Is rebirth in the same body possible

#santoshtiwariडॉ. संतोष कुमार तिवारी

सनातन धर्म में हमेशा से यह माना जाता रहा है कि हाथ की रेखाओं में मनुष्य का भविष्य छिपा होता है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस के बालकाण्ड (दोहा 67) में पार्वती विवाह के प्रसंग की चर्चा करते हुए कहा है:

 

जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष।

अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥

भावार्थ:-योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नंगा और अमंगल वेष वाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है॥67॥

अब तो विज्ञान भी यह मानने लगा है कि हर व्यक्ति के हाथ रेखाएँ अलग-अलग हैं। बैंकों में कोई भी कर्मचारी अपना कम्प्यूटर तभी चालू कर पाता है जब कि वह अपनी उंगली की रेखाओं से अपनी बायोमेट्रिक पहचान करा देता है। इसी से मिलती-जुलती कुछ व्यवस्था दुनिया के तमाम एयरलाइंस, आदि में है।

सबकी रेखाएँ अलग-अलग, सबके भाग्य अलग-अलग

चूंकि सबके भाग्य की रेखाएँ अलग-अलग हैं, इसलिए सबके भाग्य अलग-अलग हैं। मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री गया प्रसाद मानस उत्तर प्रदेश सचिवालय में काम करते थे। कुछ समय ऐसा हुआ कि उनके साथ एक श्री आई.एस. माथुर भी बैठते थे। कमरे में दो ही लोग बैठते थे इसलिए आपस में बातचीत होना स्वाभाविक था। माथुरजी डिप्टी लीगल रिमेम्बरैंसर (DLR) के पद पर थे। बाद में वह बाराबंकी के डिस्ट्रिक्ट जज हो गए थे। वह लखनऊ के भी डिस्ट्रिक्ट जज रहे। और अन्त में उनकी नियुक्ति इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज के तौर पर हुई। मेरे पिताजी की तो उनसे घनिष्ठता थी ही, मेरे भी उनसे अच्छी जान-पहचान थी।

बहुत कम लोगों को यह मालूम था कि माथुर साहब हाथ की रेखाएँ पढ़ कर भविष्य बता सकते हैं। वह अपने इस गुर का कभी प्रचार नहीं करते थे। मैंने कभी यह नहीं देखा कि उनके पास कोई अपना हाथ दिखाने आया हो। खैर, उन्होंने मेरे पिताजी अर्थात मेरे पापाजी का हाथ देखा और उनके पिछले जीवन की सभी खास-खास घटनाएँ बता दीं। और वे सभी शत-प्रतिशत सच थीं। उन्होंने पापाजी को यह भी बताया कि आपका आगे का जीवन कैसा गुजरेगा। बाद में वह सब भी सोलह आने सच निकाला। माथुर साहब ने मेरा हाथ भी देखा था और जो भी उन्होंने बताया, वह सब हमेशा पूरी तरह सच निकला।

परन्तु माथुर साहब की एक बात निकल गई। वह यह थी कि उन्होंने मेरे पापाजी को यह भी बताया था कि आपकी 75 वर्ष आयु में मृत्यु हो जाएगी। जबकि मेरे पापाजी लगभग 89 वर्षों तक जिए। पापाजी का शरीर शांत हो जाने के बाद मेरे दिमाग में अक्सर यह प्रश्न उठता था कि माथुर साहब की यह एक बात कैसे गलत हो गई। माथुर साहब तब तक इस दुनिया से जा चुके थे। नहीं तो मैं सीधे उन्हीं से पूछ लेता।

जब पापाजी 75 के हुए तब मैं हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी, शिमला, में अध्यापन कार्य करता था। अब मैं सोचता हूँ कि पापाजी को उस दौरान लखनऊ में अत्यन्त मानसिक कष्ट हुए होंगे। पापाजी के बारे में माथुरजी ने जो भविष्यवाणी की थी उसकी जानकारी मेरी माँ को भी थी, तो उनको भी उस दौरान मानसिक यातना से गुजरना पड़ा होगा।

He took rebirth in the same body

पापाजी का निधन सन् 2009 में हुआ। तब मैंने लखनऊ में एक ज्ञानी पुरुष से पूछा कि माथुर साहब की बताई सारी बातें पापाजी के जीवन में और मेरे जीवन में सौ प्रतिशत सही उतरी हैं, परन्तु यह मृत्यु वाली बात कैसे गलत सिद्ध हो गई? तब उन ज्ञानी पुरुष ने एक में मेरी जिज्ञासा एक वाक्य में शान्त कर दी। उन्होंने अंग्रेजी में कहा: He took rebirth in the same body. (अर्थात उन्होंने उसी शरीर में पुनर्जन्म ले लिया था।)

मुझे उन ज्ञानी पुरुष की बात सही लगी। इसका कारण यह था कि जब मैं ब्रिटेन से पीएच. डी. करके लगभग साढ़े तीन वर्ष बाद सन् 1993 में लखनऊ वापस लौटा था, तो मैंने धीरे-धीरे ये अनुभव किया कि पापाजी किसी से जरा सा भी नाराज नहीं होते थे। यदि उनको कोई धोखा भी दे जाता था, तो भी उससे नाराज नहीं होते थे। उसके प्रति सद्भावना बनाए रखते थे। कभी किसी की बुराई नहीं करते थे। यदि कोई उनके पास बैठ कर अपने किसी भाई आदि की बुराई करता था, तो उसे भी वह समझाते थे और ऐसा करने से मना करते थे। और तो और कभी यह भी नहीं कहते थे कि आज चीनी बहुत महंगी हो गई या सब्जी बहुत महंगी है। रुपये-पैसे की माया से वे काफी दूर होते चले गए थे।

अस्सी वर्ष की उम्र होने पर आदमी की सरकारी पेंशन में विशेष बढ़ोत्तरी हो जाती है। उस दौरान नियम यह था कि पेंशनर को इस बढ़ोत्तरी के लिए स्वयं आवेदन देना पड़ता था। पापाजी अस्सी वर्ष के हो चुके थे। परन्तु वह पेंशन बढ़ाने के लिए आवेदन करना ही भूल गए। वह अस्सी वर्ष के बाद भी लगभग नौ साल तक जिए, लेकिन उन्होंने इस बीच कभी पेंशन बढ़ाने के लिए आवेदन नहीं किया। वह हमेशा ईश्वर की स्तुति की कविताएं लिखते थे। दिन-रात उसी में मगन रहते थे। अपना पैसा खर्च करके उन्हें छपवाते थे और लोगों में बांटते थे। रामचरित मानस के सुंदर काण्ड का पाठ हर मंगलवार को नियमित करते थे। उस पाठ को करने में इतना भाव-विभोर हो जाते थे कि उनकी आंखों से आंसू टपकने लगते थे। रोजाना रामचरित मानस और वाल्मिकीय रामायण का पाठ तो वह करते ही थे। इसके अतिरिक्त तुलसीदास कृत विनय पत्रिका आदि भी वह समय-समय पर पढ़ा करते थे।

कम खाओ, गम खाओ

मेरा कहने का मतलब यह है कि पापाजी बिल्कुल अलग तरह के  व्यक्ति हो गए थे। शायद यह सब वह इसलिए कर पाए, क्योंकि मेरी माँ भी पैसे के लिए हाय-हाय कभी नहीं करती थीं। कम खाओ, गम खाओ – वाली  उनकी  नीति थी। यदि मेरी माँ की नीति इसके विपरीत होती, तो पापाजी भी संसारी माया के पीछे दौड़ते-दौड़ते हुए 75 वर्ष की आयु में इस दुनिया से विदा हो गए होते।

तुलसीदास ने विनय पत्रिका में क्या लिखा   

विनय पत्रिका में तो गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा ही है:

जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।

काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे।।1।।

भावार्थ- हे नाथ! आपके चरणों को छोड़कर और कहां जाऊं? संसार में ‘पतित-पावन’ नाम और किसका है? आपकी भांति दीन-दुखियारे किसे बहुत प्यारे हैं।।1।।

कौने देव बराइ बिरद-हित,  हठि-हठि अधम उधारे।

खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे।।2।।

भावार्थ- आज तक किस देवता ने अपने बाने को रखने के लिए हठपूर्वक चुन चुन-कर नीचों का उद्धार किया है? किस देवता ने पक्षी (जटायु), पशु ऋक्ष-वानर आदि) व्याध (वाल्मीकि) पत्थर (अहिल्या), जड़ वृक्ष यमलार्जुन और यवनों का उद्धार किया है?।।2।।

देव, दनुज मुनि, नाग, मनुज सब, माया बिबस बेचारे।

तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे।।3।।

भावार्थ- देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मनुष्य  आदि  सभी बेचारे माया के वश में हैं। (स्वयं बंधा हुआ दूसरों के बंधन को कैसे खोल सकता है इसलिए) हे प्रभो! यह तुलसीदास अपने को उन लोगों के हाथों में सौंप कर क्या करे?।।3।।

माया से हटना धीरे-धीरे होता है

पापाजी के जीवन में जैसा परिवर्तन आया, वैसा किसी भी व्यक्ति में एक दम से अचानक नहीं आ जाता है। संसारी माया से दूर हटने के ये परिवर्तन  धीरे-धीरे होते हैं। जैसेकि यदि पीतल की किसी कटोरी में तेल बहुत दिनों तक रखा रहे, तो वह एक बार में साफ नहीं होती है। उसे कई बार, और कभी-कभी तो कई दिन माँजना पड़ता है, तब वह साफ होती है।

जब कोई मायावी सम्पदा से दूर हटता है, तो वह दैवी सम्पदा की ओर अनायास ही कदम बढ़ाने लगता है।

दैवी सम्पदा क्या होती है

दैवी सम्पदा की चर्चा श्रीमद्भगवगीता के सोलहवें अध्याय में की गई है। इस अध्याय में चौबीस श्लोक हैं। उदाहरण के तौर पर यहाँ उस अध्याय के केवल दो श्लोक प्रस्तुत कर रहा हूँ:

श्रीभगवानुवाच

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति:।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥16.1॥

भावार्थ: श्री भगवान (श्री कृष्ण) बोले- भय का सर्वथा अभाव अर्थात निर्भयता, अन्तःकरण अर्थात मन की शुद्धता, ज्ञान के लिये योग में दृढ़ स्थिति, सात्त्विक दान, इन्द्रियों को वश में रखना, यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्य-पालन के लिये कष्ट सहना और शरीर-मन-वाणी की सरलता।॥16.1॥

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम्।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥16.2॥

भावार्थ: अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोध न करना, अन्तःकरण में राग-द्वेष न होना, चुगली न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, अन्तःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा, असफल होने पर विचलित  न होने का भाव (दृढ़ संकल्प)। ॥16.2॥

यह सब कहने का मतलब यह है कि मनुष्य जाने या अनजाने में अपने कर्मों के द्वारा अपने भाग्य को बदल भी सकता है। फिर भी यह सब करने के लिए ईश्वरीय कृपा तो जरूरी है ही।

दैवी और आसुरी सम्पत्तियों का प्रभाव न सिर्फ उस मनुष्य के जीवन पर पड़ता है, बल्कि उसके निकटजनों पर भी पड़ता है।

(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)