प्रदीप सिंह।
1984 के बाद 2014 में पहली बार किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला और पूर्ण बहुमत मिला। भारतीय जनता पार्टी को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यह कोई छोटी मोटी सफलता नहीं थी। 1984 में भी राजीव गांधी को जो पूर्ण बहुमत मिला वो इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के कारण मिला। इस संदर्भ में देखें तो यह उपलब्धि और बड़ी हो जाती है।
2024 के चुनाव में मुख्य रूप से दो गठबंधन आमने सामने थे। एक तरफ एनडीए, दूसरी तरफ इंडी गठबंधन। एनडीए को 44% वोट मिले और इंडी गठबंधन को 41% , दोनों गठबंधन में वोट परसेंटेज का डिफरेंस 3% था। बीजेपी को अकेले 240 सीटें मिली। कांग्रेस को अकेले 99 सीटें मिली। इंडी गठबंधन के सभी दलों को मिलाकर 234 सीटें मिली। बीजेपी को अकेले 240 मिली, यानी पूरे इंडी गठबंधन से ज्यादा अकेले बीजेपी को सीटें मिली। अब इसे विपक्ष अपनी जीत के रूप में और भाजपा की हार के रूप में बता रहा है लेकिन उस बहस को इस समय छोड़ देते हैं। आज बात करेंगे कि क्या इस चुनाव नतीजे के बाद ब्रैंड मोदी को बहुत बड़ा धक्का पहुंचा है या ब्रांड मोदी अब पहले जैसा प्रभावी नहीं रह गया? क्या अब ब्रैंड मोदी चुनाव को उस तरह से प्रभावित नहीं कर पाएगा जैसे पहले दो चुनाव यानी 2014 और 2019 में किया… और इस चुनाव को प्रभावित किया या नहीं, यह भी सवाल है।
उससे पहले सवाल यह है कि ब्रांड मोदी का मतलब क्या है? ब्रांड मोदी बना कैसे और उसका प्रभाव कैसे आंका जाए? ब्रांड मोदी या मोदी फैक्टर, जो भी आप कहें, संसदीय लोकतंत्र में उसके आकलन का एक ही तरीका है- वोट दिलाने की क्षमता। वोट दिलाने की क्षमता बड़ा वेग सा टर्म हो जाता है कि कितना वोट दिलाए तो उसको क्षमता माना जाए, कितना दिलाए दिलाए तो नहीं माना जाए। ऐसे में बात आंकड़ों की करें तो ज्यादा स्पष्ट होगी। मोदी ऐसे कितने ही लोगों का वोट अपनी पार्टी के लिए लेकर आते हैं जो मोदी के ना होने पर बीजेपी को वोट नहीं देते। यानी जो भाजपा का पारंपरिक समर्थक, मतदाता नहीं है उस वर्ग से मोदी कितना वोट लेकर आते हैं। भाजपा के लिए इससे बनता है ब्रांड मोदी क्योंकि उनके होने से यह वोट बीजेपी को मिल रहा है। अगर वह नेता ना होते तो वह वोट बीजेपी को नहीं मिलता। 2019 में भारतीय जनता पार्टी को 37.8% वोट मिला था। इसमें से 25.7% वोट बीजेपी के कोर वोटर बेस से आया और 12.1% वोट मोदी के नाम पर आया। यानी ब्रांड मोदी की ताकत अगर वोट परसेंटेज के टर्म्स में आके तो 2019 में यह 12.1% वोट पर था।
इस बार बीजेपी को 36.6% वोट मिला। यानी 2019 की तुलना में 1.2% कम हो गया। वोट का डिस्ट्रीब्यूशन कैसे हुआ यह देखना भी दिलचस्प है। इस चुनाव में आश्चर्यजनक रूप से कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी का जो कोर वोटर है, सपोर्टर है, वह वोट देने नहीं निकला। बीजेपी के जो 36.6% वोट कुल मिले हैं उसमें 27.4% वोट बीजेपी का जो कोर वोटर बेस है, उससे आया और बाकी का 9.2% वोट मोदी फैक्टर के कारण आया। आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि इस चुनाव में मोदी फैक्टर का प्रभाव 2019 की तुलना में कम हुआ। 2019 में नेशनलिज्म या राष्ट्रवाद एक मुख्य मुद्दा बन गया था। बालाकोट स्ट्राइक और उसके पहले जो सर्जिकल स्ट्राइक थी उसके कारण एक नेशनल नैरेटिव बन गया था- डिसाइसिव लीडर- घर में घुसकर मारेंगे। इससे मोदी का जो औरा बना उसके कारण ज्यादा वोट आए। इस बार इस तरह का कोई नेशनल नैरेटिव, कोई राष्ट्रीय मुद्दा नहीं था। पूरा चुनाव स्थानीय हो गया इसके बावजूद 99.2% वोट सिर्फ मोदी के कारण आया।
अब 2019 और 2024 में फर्क देखिए कि ऐसे लोगों की संख्या क्या थी जो यह कह रहे थे कि अगर मोदी ना होते तो हम भाजपा को वोट ना देते। 2019 में बीजेपी को जिन लोगों ने वोट दिया उनमें से 32% ऐसे थे जिन्होंने कहा कि अगर मोदी भाजपा के नेता ना होते तो हम भाजपा को वोट नहीं देते। इस बार यह संख्या घटकर 25% पर आ गई। एक दूसरा भी अंतर आया जो इस बात की पुष्टि करता है कि यह चुनाव ज्यादा स्थानीय हो गया। पिछले चुनाव यानी 2019 के चुनाव में 31% लोगों ने कहा कि उन्होंने स्थानीय उम्मीदवार को देखकर वोट दिया। इस बार यह आंकड़ा बढ़कर 36% पहुंच गया, यानी 2019 की तुलना में 2024 में उम्मीदवार ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गया। इसके अलावा टिकट का जो खराब बंटवारा हुआ, ऐसे लोगों को टिकट दिया गया पार्टी के ही आकलन में जिनके जीतने की संभावना नहीं थी। उसका असर आपको नतीजों में दिखाई दे रहा है।
ब्रैंड मोदी की ताकत का अंदाजा एक और आंकड़े से लगता है। वह यह कि मोदी अपने सहयोगियों- यानी एनडीए के सहयोगी दलों- को भी अपने कंधे पर लेकर चलते हैं। 2014 में वह एनडीए के सहयोगियों के लिए 20% वोट लाए। एनडीए के सहयोगी दलों को जो वोट मिले उनमें 20% का कंट्रीब्यूशन नरेंद्र मोदी का था। 2019 में यह बढ़कर 25% हो गया और 2024 में यह और बढ़ गया, 27% हो गया। यानी नरेंद्र मोदी ने अपने सहयोगियों को ज्यादा वोट दिलाया। मोदी ब्रांड की जो कीमत है 20224 के चुनाव में उसका भाजपा से भी ज्यादा फायदा उनके सहयोगी दलों को मिला। 2019 में 17% लोगों ने कहा कि हमने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के चेहरे को देखकर वोट किया। इस बार यह आंकड़ा घटकर 10% पर आ गया। क्यों आ गया… क्योंकि सामने कोई उम्मीदवार ही नहीं था अकेले मोदी थे। 2019 में राहुल गांधी को कांग्रेस पार्टी ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया था। इस चुनाव में नहीं किया। इंडी गठबंधन ने भी अपने किसी नेता को प्रधानमंत्री पद के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया। इसलिए चुनाव प्रेसिडेंशियल नहीं बन पाया। चुनाव में कोई राष्ट्रीय विमर्श नहीं बन पाया। चुनाव ज्यादा स्थानीय हो गया। चुनाव ज्यादा उम्मीदवारों पर निर्भर हो गया और उम्मीदवारों की एंटी इनकंबेंसी और गलत उम्मीदवारों का चयन इन सबने ब्रैंड मोदी पर इंपैक्ट डाला।
लोग मोदी के नाम पर तो वोट देने को तैयार थे, लेकिन ऐसे लोगों को वोट देने को नहीं। अब जिन चुनाव क्षेत्रों में बीजेपी के उम्मीदवारों को हराया है, वहां भी अगर आप बात करें तो लोग कहेंगे कि उनका मोदी से कोई विरोध नहीं है, लेकिन हम इस उम्मीदवार को नहीं जिताना चाहते थे। उसके कारण अलग-अलग थे एक- उम्मीदवार मिलता नहीं, कभी आता नहीं, उम्मीदवार अहंकारी है। दूसरा- कुछ मामलों में जैसे घोसी का मामला जहां ओम प्रकाश राजभर का बेटा लड़ रहा था। जब वो बीजेपी के साथ नहीं थे उन्होंने इतनी गालियां दी थीं बाकी लोगों को जिसके कारण नाराजगी थी। यह हुआ कि इसको किसी भी हालत में नहीं जीतने देना है। यही स्थिति मछली शहर में जो उम्मीदवार था उसकी हुई। इस तरह से कई उदाहरण हैं। मोदी का चेहरा तो लोगों को पसंद था, मोदी को वोट तो देना चाहते थे लेकिन उम्मीदवार से व्यक्तिगत नाराजगी इतनी ज्यादा थी कि वह ब्रैंड मोदी पर भी भारी पड़ गई।
इन सबके ऊपर जिसने सबसे ज्यादा नुकसान किया भाजपा और खास तौर से ब्रांड मोदी का वो है- 400 पार का नारा। ये ‘400 पार’ का नारा अधूरा नारा था। 400 पार क्यों चाहिए यह भाजपा नहीं बता पाई और आखिर तक नहीं समझा पाई। उसका फायदा एक झूठ के सहारे विपक्ष ने उठा लिया। ‘400 पार’ का नारा लगाने के कारण हुआ यह कि जो वोटर भाजपा का समर्थक था उसको लगा कि इस उम्मीदवार को हरा देंगे तो क्या फर्क पड़ेगा। अगर 400 की बजाय 399 सीटें भी एनडीए की आ जाएंगी तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। तो इस चक्कर में एक-एक करके बहुत सारी सीटें बीजेपी हार गई। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अगर यह ‘400 पार’ का नारा ना होता तो बीजेपी की सीटें 303 से आगे चली जातीं, या नहीं जातीं। उस बहस में जाने का कोई मतलब नहीं है। हां, लेकिन जितनी सीटें आई हैं- यानी 240- उससे ज्यादा आतीं।
आप मानकर चलिए कि ब्रांड मोदी अब भी इंटैक्ट है। उसमें डेंट जरूर लगा है, और डेंट लगने का कारण मोदी नहीं है, मोदी के अलावा बहुत सारे फैक्टर हैं। मोदी को लेकर भी सवाल है। सवाल बहुत सारे हैं।
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(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और आपका अख़बार के संपादक हैं)