डॉ. संतोष कुमार तिवारी।
इस्कॉन (International Society for Krishna Consciousness – ISKCON) प्रयागराज में चल रहे के महाकुम्भ में प्रतिदिन पचास लाख लोगों के लिए शाकाहारी भोजन बनवाकर श्रद्धालुओं को वितरित कर रहा है। यह महाकुम्भ लगभग डेढ़ माह चलगा। इस पुण्य कार्य का खर्चा भारत के और विश्व के जाने-माने उद्योगपति गौतम अदाणी ने उठाया। यदि महाकुम्भ की बात छोड़ भी दी जाए, तो भी इस्कॉन देश और विदेशों में शाकाहारी भोजन वितरण में दुनिया में नंबर वन संस्था बन चुकी है। दुनिया में इस्कॉन के सैकड़ों मन्दिरों में से अधिकतर में एक शाकाहारी रेस्त्रां अवश्य होता है।
आज विश्व के अधिकांश बड़े शहरों में ऐसे रेस्त्रां कम होते जा रहे हैं जहां सिर्फ शाकाहारी चीजें ही मिलती हों। मन्दिर के साथ ओनली वेज रेस्त्रां चलाने की व्यवस्था प्रभुपादजी ने भक्तों के लिए की थी।
इस्कॉन की स्थापना सन् 1966 में भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपादजी (1896-1977) ने न्यूयॉर्क, अमेरिका में की थी। स्वामी प्रभुपादजी एक लम्बी गुरु-शिष्य परम्परा का हिस्सा हैं। इस परम्परा में स्वामी प्रभुपादजी का बत्तीसवां नम्बर है और चैतन्य महाप्रभु का बाइसवां नम्बर है।
चैतन्य महाप्रभु (1486-1534) के बाद की गुरु-शिष्य की पूरी सूची इस प्रकार है:
22. चैतन्य महाप्रभु (विश्वम्भर मिश्र, निमाई पण्डित, गौराङ्ग महाप्रभु, गौरहरि, गौरसुंदर, श्रीकृष्ण चैतन्य भारती आदि)
23. रूपा गोस्वामी (स्वरूपा सनातन गोस्वामी)
24. रघुनाथ जीवा गोस्वामी
25. कृष्णदास
26. नरोत्तम
27. विश्वनाथ
28. श्रील जगन्नाथदास बाबाजी महाराज (श्रील बलदेव विद्याभूषण)
29. श्रील भक्तिवेदान्त ठाकुर
30. श्रील गौरकिशोरदस बाबाजी महाराज
31. श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर
32. श्रील ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद
चैतन्य महाप्रभु की कुछ खास बातें
स्वामी प्रभुपादजी (1896-1977) के गुरु श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर (1874-1937) की चर्चा प्रारम्भ करने के पहले चैतन्य महाप्रभु के बारे में कुछ खास बातें जानना जरूरी है, क्योंकि उन्होंने कुछ नई परम्पराओं की शुरुआत की। उन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नई शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण उनके असंख्य अनुयायी हो गए थे। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज उनके शिष्य बने। इन दोनों ने कृष्ण भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। चैतन्य महाप्रभु ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया:
हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे।।
हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे।।
स्वामी प्रभुपादजी के गुरु थे भक्तिसिद्धांतजी महाराज
स्वामी प्रभुपादजी ने अपने गुरु श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर के आदेश के अनुसार इसी परम्परा के बीज पश्चिमी देशों में बिखेरे और फिर पूरे विश्व में कृष्ण भक्ति आन्दोलन शुरू किया। यह आन्दोलन आज भी दुनिया भर में तेजी के साथ फल-फूल रहा है।
स्वामी प्रभुपादजी की अपने गुरु से मुलाकात कैसे हुई
भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपादजी के आध्यात्मिक गुरु थे गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य महात्मा भक्तिसिद्धान्तजी महाराज। उन दोनों की पहली बार जब भेंट हुई, तो उनमें थोड़ा तर्क-वितर्क, वाद-विवाद हुआ। भक्तिसिद्धान्तजी महाराज ने उनसे कहा कि तुम पश्चिमी देशों में अंग्रेजी भाषा में भगवान कृष्ण के चैतन्य महाप्रभु के विचारों का प्रचार करो।
स्वामी प्रभुपादजी का जन्म 1 सितम्बर 1896 को जन्माष्टमी के दिन एक कायस्थ परिवार में कोलकाता में हुआ था। उनका नाम अभय चरण डे रखा गया। उनके पिताजी बड़े कृष्ण भक्त थे। पूर्ण वैष्णव थे। उनके घर में साधुओं का आना जाना लगा रहता था। इस कारण उन्हें राधा कृष्ण भक्ति के संस्कार बचपन से ही मिले।
सन् 1920 में अभय चरण डे ने कोलकाता के स्काटिश चर्च कालेज से बी.ए. की परीक्षा पास की। वहां नेताजी सुभाष चन्द्र बोस उनके सहपाठी थी।
सन् 1922 में जब अभय चरण डे डॉ. बोस लाबोरैटरी लिमिटेड में मैनेजर के तौर पर कोलकाता में काम करने लगे थे, तभी एक दिन उनके एक मित्र नरेन्द्रनाथ मलिक ने उनसे कहा कि शहर में एक महात्मा जी आए हुए हैं। हम लोग चल के उनके दर्शन कर आएं। अभय चरण डे को अपने दोस्त का यह सुझाव अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कहा मैंने बहुत से महात्मा लोग देखे हैं, और सब बड़े स्टैण्डर्ड के नहीं होते हैं। इसलिए उनसे मिलने की अब मेरी कोई इच्छा नहीं है। परन्तु नरेन्द्रनाथ मलिक के आग्रह करने पर वे उन महात्माजी के दर्शन करने चले गए। और उन महात्माजी से उस पहली मुलाकात ने अभय चरण डे का जीवन बदल दिया। उनके जीवन में एक नया बीज बो दिया।
वह महत्मा जी कोई और नहीं बल्कि श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुरजी महाराज थे। उस पहली भेंट में ही उन्होंने अभय से कहा कि जाओ, पश्चिमी जगत् में भगवान कृष्ण के और चैतन्य महाप्रभु के सन्देश का अंग्रेजी में प्रचार करो।
इस्कॉन 3: एक सौ आठ मंदिरों का संकल्प पूरा कर ही देह त्यागी स्वामी प्रभुपाद जी ने
अभय उस समय नौजवान थे, राष्ट्रवादी थे और महात्मा गांधी व चितरंजन दास के प्रशंसक थे। इस कारण उन्होंने उस समय यह जवाब दिया कि चैतन्य महाप्रभु के सन्देश को पश्चिमी देशों में कौन सुनेगा, जबकि यहाँ हम लोग एक गुलाम राष्ट्र हैं। इस प्रकार कुछ देर उन दोनों के बीच तर्क-वितर्क होता रहा। अभय चरण डे का यह मत था कि यह काम भारत के स्वाधीन होने के बाद ही किया जा सकता है। परन्तु भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुरजी महाराज का कहना था कि भगवान कृष्ण के सन्देश प्रचार कार्य किसी राजनीतिक घटना के होने का इंतजार नहीं कर सकता।
यह पहली मुलाकात तो समाप्त हो गई, लेकिन भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुरजी के आदेश ने अभय चरण डे के हृदय को छू लिया। तब अभय विवाहित थे। कुछ समय बाद सन् 1923 में उन्होंने प्रयाग फार्मेसी नाम का व्यवसाय इलाहाबाद में (जिसका अब नाम प्रयागराज है) स्थापित किया।
दूसरी मुलाकात छह साल बाद सन् 1928 में हुई जब कुम्भ मेले के समय भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुरजी प्रयागराज आए हुए थे। वहां गौड़ीय मठ की शाखा का उद्घाटन समारोह था। उसका उद्घाटन यू.पी. के तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर सर माल्कोम हैली ने किया था। इस अवसर पर अभय चरण डे की एक बार फिर भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुरजी से भेंट हुई।
सन् 1933 में प्रभुपादजी ने दीक्षा ली
सन् 1933 उन्होंने भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुरजी से औपचारिक दीक्षा ली और उन्होंने ही आपको प्रभुपाद नाम दिया। 1 जनवरी 1937 को भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुरजी ने अपना शरीर त्याग दिया। इससे पहले प्रभुपादजी से उनका पत्र व्यवहार हुआ था। अपने पत्र में भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुरजी से प्रभुपादजी से फिर कहा था कि वे अंग्रेजी भाषा में चैतन्य महाप्रभु के उपदेशों का पश्चिमी देशों में प्रचार करें।
भक्तिसिद्धांतजी ने 64 गौड़ीय मठ स्थापित किए
अपने जीवनकाल में श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुरजी ने 64 गौड़ीय मठ स्थापित किए जिनमें से एक लन्दन में और एक बर्लिन में भी स्थापित हुआ, हालांकि वह कभी विदेश नहीं गए थे। सन् 1933 में भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुरजी ने अपने तीन शिष्यों को लन्दन भेजा था जहां सन् 1934 में पहले गौड़ीय मठ की स्थापना हुई।
वर्ष 1924 में भक्तिसिद्धान्तजी महाराज की 150वीं जयन्ती पर भारत सरकार ने एक विशेष डाक टिकट जारी किया था।
भक्तिसिद्धान्तजी महाराज के ब्रह्मलीन होने के बाद भी भारत में और विदेशों में और गौड़ीय मठ स्थापित हुए हैं। अभी हाल में इस लेख के लेखक के एक मित्र वियना (आस्ट्रिया) गए हुए थे। वह वहां गौड़ीय मठ भी गए थे।
सन् 1959 में प्रभुपादजी ने संन्यास लिया
सन् 1944 में प्रभुपादजी ने अपने गुरु के जन्मदिन पर BACK TO GODHEAD पत्रिका शुरू की। सन् 1950 में प्रभुपादजी अपने परिवार से अलग हो गए। कुछ दिन इधर उधर रहे और सन् 1959 में उन्होंने संन्यास ले लिया। इस बीच उन्होंने अपनी पत्रिका BACK TO GODHEAD का प्रकाशन जारी रखा। फिर उनके कुछ मित्रों ने सुझाव दिया और उनकी अंतरात्मा ने भी आवाज दी कि कोई पुस्तक लिखी जाए। तब उन्होंने श्रीमद् भागवतम् का प्रथम खण्ड लिखना प्रारम्भ किया। और फिर 69 वर्ष की आयु में सन् 1965 में प्रभुपादजी अपने गुरु के आदेश को पूरा करने के लिए अमेरिका गए। और वहीं इस्कॉन की स्थापना की।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं)