के. विक्रम राव।

अमेरिकी राजनेता श्रीमती नैंसी पेट्रीशिया पेलोसी की 2 अगस्त की रात ताईवान की यात्रा के विरोध में जिस भांति कम्युनिष्ट चीन चिंघाड रहा था, यकीन हो चला था कि अमेरिकी वायुसेना के विमानों को खाड़ी में गिराकर ही चीन मानेगा। पेलोसी का शव लहरों में खोजना होगा। रात ढले भारत के कई खबरिया चैनल तो यह दिखा रहे थे कि एशिया का ‘यूक्रेन’ यह ताईवान बन जायेगा। मगर हुआ क्या? लाल चीन की दहाड़ महज घुड़की थी। मिमियाने का स्वर तक सुनायी नहीं पड़ा। लद्दाख में लाल सेना के तेवर से जाहिर हो गया था कि चीन अब कागजी शेर मात्र है। क्या कर पाया?

प्रतिरोध में ताईवान को उसने बालू का निर्यात रोक दिया। समुद्री खाद्य पदार्थ के आयात को बंद कर दिया। यही कारण था कि चीन की मुद्रा ‘येन’ के दाम दुनिया के बाजार में बुरी तरह ढा गये।

पेलोसी है कौन

तो यह पेलोसी है कौन? यह 82-वर्षीया रणबांकुरी अमेरिका के संसद (लोकसभा) की स्पीकर है (श्री ओम बिडला जैसी)। अमेरिकी केे संविधान में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के बाद तीसरे नंबर पर है। तेज तर्रार हैं। प्राणपण आशंका के बाद भी वे ताईवान गयीं। बिना भय के। जान पर खेल कर। दुनिया को संदेश दे दिया कि मानव भावना को तानाशाही कुचल नहीं सकती। उन्होंने कहा भी कि ताईवान की महिला राष्ट्रपति साई इंग वेन बहुमत से निर्वाचित हुई हैं। पड़ोसी चीन के शीं जिनपिंग जैसी नहीं जो बिना मतदान के आजीवन राष्ट्रपति बने बैठे हैं।

इधर रात बीत गयी एक गोला तक नहीं दगा। पेलोसी के एक खरोच तक नहीं लगी। राजधानी ताइपै का अंतरराष्ट्रीय विमानपतनम सोंगशान रात भर जगमगाता रहा। वहां से राष्ट्रपति आवास तक हजारों ताईवानवासी राजमार्ग पर इस अमेरिकी नेता के स्वागत में झण्डा तथा पुष्प बरसाते रहे। दाद देनी पड़ेगी ताईवान की राष्ट्रपति सायी-इंग वेन की- जो निडर होकर लाल चीन का डटकर सामना करने पर तत्पर थीं। उनकी सखा पेलोसी पहले ही ऐलान कर चुकीं थीं कि ताईवान अकेला नहीं है। वह जनतंत्र का प्रतीक है। अधिनायकवादी चीन केे मुकाबले में डटा हुआ है। अमेरिका लोकतंत्र के साथ में है। ताईवान के साथ खड़ा है।

लोकतंत्र का पाठ पढ़ाता अलोकतांत्रिक देश

तुर्रा यह कि बिना मतदान के चुनाव कराने वाले कम्युनिष्ट चीन का आदेश है कि ताईवान में ठगी, दमन और बल से चुनाव में धांधली कर वे राष्ट्रपति बनी हैं। जबकि दो प्रत्याशियों में ताईवान के गत निर्वाचन में वोट पड़े। करीब 57 प्रतिशत वोट पाया सायी इंग वेन ने। उनकी हरीफ खान ग्वो (कोमिनतांग पार्टी) को 38 प्रतिशत वोट मिले। उन्हें पराजित कर वे दोबारा चुनाव जीतीं। चीन में तो एक ही दल (कम्युनिष्ट पार्टी) नामांकन कराता है। मतदान से तो आम चीनी वोटर अनभिज्ञ ही है।

व्यापक सोच की राजनेता

अब इस वीरांगना पेलोसी पर कुछ। शौर्य और आत्मबल की वे अथाह भण्डार है। वह जब मात्र 12 वर्ष की थी तो राष्ट्रपति जान कैनेडी के साथ टीवी पर आयी। तभी उसने डेमोक्रेटिक पार्टी से संबद्ध होने का निर्णय किया था। विधि की छात्रा रहीं पेलोसी धर्म से रोमन कैथोलिक है। पर गर्भपात पर पाबंदी लगाने की उन्होंने भर्त्सना की थी। प्रतिद्वंदी रिपब्लिकन पार्टी की वे तीव्र आलोचक हैं। उनहोंने ‘निकम्मे राष्ट्रपति’ डोनाल्ड ट्रंप पर महाभियोग का मुकदमा चलाने की मांग की थी। जब राष्ट्रपति का अमेरिकी संसद के दोनों सदनों में अभिभाषण हो रहा था, तो मंच पर ही राष्ट्रपति ट्रंप के मुद्रित भाषण को फाड कर सदन में ही पेलोसी ने फेंक दिया था। रोष दिखाया था। ईराक पर जार्ज बुश के हमले का खुलकर विरोध किया था। जब संविधान संशोधन आया कि ध्वजा जलाना निषिद्ध हो तो पेलसी की मान्यता रही कि जनाक्रोश करने का यह अहिंसक माध्यम है। वे धार्मिक प्रतीकों की सार्वजनिक नुमाइश की विरोधी रहीं हैं। वे दलाईलामा और तिब्बती आजादी की पैरोकार रही हैं। धर्मशाला नगर (हिमाचल प्रदेश) गयी भी थीं। वे अमेरिका का क्यूबा से संबंध सुधारने की हिमायती रहीं। वैचारिक रूप से पेलोसी काफी जनोन्मुखी और व्यापक सोच की राजनेता हैं। इसीलिये उन्हें भारतमित्र कहते हैं।

लगता था अमेरिकी वायुसेना के विमानों को खाड़ी में गिराकर ही मानेगा चीन

भारत में निवेश करना चाहता है ताईवान

अब ताईवान के बारे में। आखिर ताईवान आज भारत के समीपस्थ समुद्री क्षेत्र में युद्ध का कारण कैसे बन रहा है? तो पहले उस भूगोल को देंखे। उत्तरी और दक्षिणी चीन की खाड़ियों के बीच बसा ताइवान द्वीप जलडमरूमध्य है। चीन के सागर तट से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पर स्थित ताइवान द्वीप समूह आकार, मौसम और विकास की दृष्टि से गुजरात सीखा है। पहाड़ियों से घिरे, चौदह हजार वर्ग किलोमीटर में बसा है ताइवान जिसकी आबादी दो करोड़ है। जिसमें आधे श्रमिक वर्ग के हैं। कृषि केवल तीन फीसदी लोग का व्यवसाय है। तीन चौथाई आबादी बौद्ध धर्मावलम्बी है। और ईसाई छह लाख हैं। पुरुषों की औसत आयु 72 वर्ष है तो महिलाओं की उनसे छह साल अधिक है। राजधानी ताइपे की आबादी लखनऊ के बराबर है पर आकार तिगुना है। अगर ताइवान आज विश्व के सर्वाधिक विकसित राष्ट्रों में गिना जाता है तो इसका कारण मुक्त व्यापार और श्रमिकों का योगदान है। विकास दर 5.3 प्रतिशत है तो सकल घरेलू उत्पाद 11.50 खरब रुपये (साढ़े अट्ठाइस अरब डालर) वार्षिक है। उसका वार्षिक मुद्रा भंडार लगभग 96 अरब डालर (चार खरब रुपये) है जिसका वह भारत में निवेश करना चाहता है।

ताइवान की सार्वभौमिकता की उपेक्षा

ताइवान विश्व शांति के लिए चुनौती है। चीन बलपूर्वक उसे हथियाना चाहता है। जो लोग यह तर्क देते हैं कि ‘एक चीन’ नीति के तहत हांगकांग, मकाओ, पुर्तगाली उपनिवेश और ताइवान चीन के ही भू-भाग हैं वे यह नजरंदाज करते हैं कि ताइवान एक स्वाधीन निर्वाचित शासन वाला गणराज्य है जिसकी अपनी (गैर कम्युनिस्ट) विचारधारा है। अपना संविधान, राष्ट्रध्वज और दलीय राजनीतिक प्रणाली है। वह 1895 से चीन से अलग रहा है। हांगकांग की भांति कोई अंतरराष्ट्रीय संधि उस पर लागू नहीं थी कि वह चीन को लौटा दिया जाएगा।

ताइवान के मसले पर विश्व के राष्ट्रों का नजरिया अपने स्वार्थ से प्रभावित रहा है। बस भारत ही एकमात्र अपवाद है। चीन के विशाल बाजार का लोभ इन औद्योगिक राष्ट्रों के लिए इतना मोहक है कि वे ताइवान की सार्वभौमिकता की उपेक्षा कर रहे हैं। अमरीका इसका सबसे बड़ा अपराधी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। आलेख लेखक की वॉल से)