थिएटर के मरजीवा अरुण पाण्डेय-5

सत्यदेव त्रिपाठी।

जबलपुर में नाटक देखने का एक वाक़या ऐसा भी है कि मैं घर से मुम्बई आने वाला था। पता लगा की जिस अपराह्न मेरी गाड़ी जबलपुर से गुजरेगी, उसी शाम इन लोगों का एक शो है- प्रेम निशीथ की कविता ‘क़िस्सा-ए-बड़के दा’ की विवेक पांडेय निर्देशित-अभिनीत एकल प्रस्तुति।


‘क़िस्सा-ए-बड़के दा’

अरुण व उनके जबलपुर तथा वहाँ की ‘विवेचना’ से प्रेम के साथ नाटक देखने की मेरी लत तो थी ही, सबसे ऊपर कविता मेरी इतनी पसंदीदा कि मेरे परिचय के दायरे में कोई ऐसा न होगा, जिसे बिठाके मैंने ‘क़िस्सा-ए-बड़के दा’ ज़बरदस्ती न सुनायी हो- कुछ को तो कई-कई बार। जब से कविता पढ़ी- शायद अक्तूबर, 2002 के ‘हंस’ में, तब से अपनी एम॰ए॰ की कक्षा का कोई छात्र बिना यह कविता सुने एम॰ए॰ न कर पाया होगा- हर दूसरे साल प्रथम-द्वितीय वर्ष के छात्रों को इकट्ठा बिठाके पाठ करता। और अब बता ही दूँ कि मुम्बई के कुछ बड़े मंचों ने आग्रह करके मुझसे यह कविता सुनी और क्यों न बताऊँ कि इससे मैंने हज़ारों रुपए कमाये। तो बस, जबलपुर उतर गया। अरुण वैसे भी जान जाते, तो दस मिनट के ठहराव (हाल्ट) में भी मिलने आ जाते और ताज़ा खाना बनवा के अवश्य लाते- मैं उनके पुस्तकालय से एकाध किताब भी मँगा लेता, जिसे लौटानी में वापस करता।

‘हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं’

लब्बोलुबाब यह कि इतने आसंग के बीच विवेक की उस प्रस्तुति ने उस शाम को इतना यादगार बनाया व संवेदन-तंत्र को इतना समृद्ध किया कि वैसी शामें कम ही बीती होंगी। रात की ट्रेन से फिर चल निकला- ‘जीवन चलने का नाम’! इसी तरह एक वाक़या नाटक करने का भी है। किसी सदाग्रह वश मैंने एक नाटक में काम किया था- दोपात्रीय नाटक ‘बूढ़ा चाँद’ में एक बूढ़े की पूरक-सी भूमिका। पूरा नाटक केंद्रित था उस दसेक साल की बच्ची के पात्रत्व पर। अरुण ने सुना, तो बस, उत्सव में बुला लिया। और हम भी अधिक से अधिक शो करना चाहते थे। शो ठीक-ठाक हुआ। बच्ची की भूमिका के लिए अस्मिता शर्मा खूब सराही गयी। नाटक की फ़ीस वग़ैरह कुछ तय न थी। मुझे लेना था नहीं। लेकिन बच्ची को चाहिए था। वह अच्छी अभिनेत्री… और यही उसकी रोज़ी-रोटी थी। वह अड़ गयी- और एक ख़ास रक़म के लिए, जो हमारी लियाक़त से ज्यादा थी। मेरा आवेश तो उस पर था, लेकिन उसी रौ में रक़म की राशि मुँह से निकल गयी अरुण के सामने। और उन्होंने बैग से निकाल के उतना पैसा दे दिया। उनकी ऐसी फ़राखदिली व वक्त की नज़ाकत की सम्भाल की याद आने पर मैं आज भी फ़िदा एवं अपनी मजबूरी पर शर्मिंदा हो जाता हूँ। वह नाटक विजयकुमार ने निर्देशित किया था। उस बार उनके ‘हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं’ का भी प्रदर्शन हुआ था। यह जबलपुर के दर्शकों का पसंदीदा नाटक है। खूब भीड़ धंसी थी। उस बार विजय कुमार को ‘विवेचना सम्मान’ प्रदान किया गया था। इसलिए उसी अवसर पर विमोचित होने वाली विवेचना की पत्रिका के लिए वहीं रहते हुए अरुण के आग्रह से विजयकुमार पर आनन-फ़ानन में एक आलेख लिखा था और उन्हीं के कहने से उस अंक का सम्पादन भी किया था।

हम बातों से आगे बढ़ें तो बन सकते हैं कई गुना बड़ी ताकत

शरारती बच्चे के अन्दाज़ में सफ़ाई

यह मेरा सौभाग्य है कि देश के कई शहरों को वहाँ के खुत्थे रहिवासियों की नज़रों से देखने-जानने का मौक़ा मिला। इस शृंखला में अपनी हर अवाई में मिलाकर जबलपुर शहर को मैंने अरुण की आँखों से देखा है… और क्या लाजवाब कि प्राय: देर रातों को भटक-भटक कर। पूरे शहर के बसने-विकसने के इतिहास-भूगोल का उनका ज्ञान व स्मृति अद्भुत है। रामलीला के समय गोविंदगंज ले गये, तो पूरा क्षेत्र घुमाते हुए रामलीला की शुरुआत से लेकर उसकी प्रसिद्धि, उसकी खूबियों के साथ उसमें आती कुछ अनिवार्य व कुछ थोपी जाती ख़ामियों का पूरा विवरण देते गये। शहर की मशहूर मिठाई ‘खोए की जिलेबी’ है, यह बताया- वहाँ ले जाके व खिलाके। फिर यह भी कहा कि यह दो जगहों की मशहूर है- यह आज करमचंद चौक वाली खा रहे है, कल फुहारा की खिलाऊँगा और जो ज्यादा अच्छी लगे, वह भौजी व बेटे के लिए भी ले जाइएगा। और कहा ही नहीं, किया भी- कुछ भी हो जाये, जिलेबी तो हर जवाई में लेके आना ही पड़ता। जो देखना मेरे लिए तीर्थ की तरह हुआ, वह टाउनहाल में परसाईजी का घर। ‘विवेचना’ नाम उन्हीं का दिया हुआ है, जिसमें तब नाटक नही होते थे, लेकिन नाटक शुरू कराने में भी उनकी भूमिका निर्णायक रही। वे भाड़े पर जिस घर में रहते थे, उसमें रहने वालों में परसाईजी के समय के लोग ज़िंदा थे। उनकी ज़ुबानी कई आँखों देखे जीवंत व रोचक वाक़ये सुन पाने का सौभाग्य बना। नाटककार गोबिंद सेठ की भव्य व बड़ी कोठी में ले गये। उनके वारिसों से मिलवाया और पता लगा कि अपने पूर्वज के नाम-काम को लेकर वे लोग कितने सजग-सक्रिय हैं। पहली बार के जाने में बड़ी हौंस के साथ सबसे पहले उन्होंने अपने ‘ज्ञानदा’ (ज्ञानरंजनजी) से मिलवाया था। उस पहली ही मुलाक़ात में मेरा मन न जाने क्यों, बिदक गया। फिर जब दूसरी-तीसरी जवाई में अरुण ने ‘ज्ञानदा’ के पास चलने की बात की, तो मैं टाल गया। फिर शायद वे समझ गये और आगे कभी न कहा। ज्ञानरंजनजी भी ‘विवेचना’ के पुरस्कर्त्ताओं में हैं। अरुण के रंगकर्म तथा जबलपुर के रंगमंच के बनने-बढ़ने में उनका बड़ा योगदान है- पूरे साहित्य में तो है ही। इस तरह अरुण का उनसे जुड़ाव बड़ा गहरा है। असर भी बड़ा गहरा है। वे कुछ कह दें, तो अरुण अरबदा के करना चाहते हैं। एक बेहद ऊटपटाँग नाटक कर दिया कबीर पर। जब की खिंचाई मैंने, तो पकड़े गये शरारती बच्चे के अन्दाज़ में सफ़ाई दी- ज्ञानदा ने कहा था, तो मैंने कर दिया। प्रियता का यह पैमाना मानवीय भले हो, कलात्मक क़तई नहीं।

हिंदी में मंचेय नाटकों के अभाव के मिथक को तोड़ता रंगकर्म

‘हाफ़ कंसील्ड, हाफ़ रिवील्ड’

लेकिन जो पर्यटन स्थल के रूप में सबसे मशहूर जगह है भेंड़ा घाट, वहीं मैं अरुण के बिना गया और एक ही बार- वह भी बहुत बाद में। उस बार का जबलपुर जाना बहुत विरल व ख़ास रहा। अरुण को खबर हो गयी थी कि किसी दैव-योग से उनके लिए नया नाटक तैयार करने का अनुदान (प्रोडक्शन-ग्रांट) मंज़ूर हो गया है। फिर तो क्या, तबियत अपने ‘अरुण राम’ को अच्छी मिली है- बस, सुलभता के दरिद्दर हैं, वरना कुलाँचे आसमान से कम क्या मारने! तो तय किया कि आधुनिक क्लासिक करेंगे- ‘आषाढ़ का एक दिन’। फिर प्रतिबद्ध लोगों को कार्य-संहिता के अनुसार चलने और अपनी क्षमता में सर्वोत्तम देने की धुन होती है। सो, पाठ को ठीक से समझाने-व्याख्यायित करने के पहले सोपान पर अरुण महोदय को मेरे आषाढ़-प्रेम- बल्कि दीवानगी की याद आयी। घनघनाता हुआ फ़ोन आया। आवाज़ में बच्चों-सी मासूमियत और बड़ों-सा सपना था- ‘भैया, ए दाईं हमहूँ के एक ठो ग्रांट मिल गइल हौ (जो शायद बाद में मिली भी नहीं)। त ‘आषाढ़…’ फ़ानत हई। तोहंके आवे के हौ- पाठ विश्लेषण बदे, तीन दिन ख़ातिर’। फिर हहाते हुए स्वर में- हवाई जहाज़ से मँगाइब एदाईं’… तब तक बन गया था हवाई अड्डा। इस अरमान व उत्साह पर कौन न बलि जाये! मैं जबलपुर उतरा, तो अपनी गाड़ी लिये नवीनजी और साथ में अरुण मौजूद। डेढ़ इंच ऊपर दौड़ रहे थे पहिए। ‘ऊँच रुचि आछी’ के मुताबिक़ तय हुआ कि कुछ भी रूटीन नहीं होगा। तो कक्षाएँ खुले वातावरण में जंगलों-पहाड़ियों के बीच रखी गयीं- बहते झरने के किनारे। नाश्ता-पानी सब मिनी बस में लेके जाते। समूह के बच्चों के साथ बड़े भी बैठते… उस सुरम्य प्राकृतिक माहौल में बार-बार खोली-खुली आषाढ़ की परतें फिर नये सिरे से खोली गयीं और वही हुआ, जो हर अच्छी कला की हर आवृत्ति में होता है- ‘हाफ़ कंसील्ड, हाफ़ रिवील्ड’। सो, जैसे राजा रघु के राज्य में वर्षा भी ज्यादा होती, ‘विवेचना रंगमंडल’ के परम उत्साही मंसूबों की मानिंद इस बार ‘आषाढ़’ ने अपने को कुछ ज़्यादा ही ‘रिवील’ किया। और अंतिम बातचीत सिर्फ़ बच्चों के साथ भेंड़ाघाट पर रखी गयी, जिसमें कोई बड़ा शख़्स नहीं गया- सिर्फ़ मैं और भूमिकाओँ के लिए चयनित कलाकार तथा स्वेच्छा से आये समूह के कुछ उत्साही बच्चे। ‘आषाढ़…’ के संवादों-प्रसंगों-दृश्यों-व्याख्याओं के साथ पूरे दिन के दर्शन-प्रदर्शन ने दर्जनों यात्राओं में भेंड़ाघाट न जा पाने के वर्षों के अभावों को असीम भाव-समृद्धि में बदल दिया।

(लेखक कला एवं संस्कृति से जुड़े विषयों के विशेषज्ञ हैं)