सत्यदेव त्रिपाठी।
बीसवीं शताब्दी के हिंदी के सबसे बड़े लेखक जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी, 1890- 14 जनवरी, 1937) के निधन के 84 साल बाद रज़ा फाउंडेशन की मदद से लेखक-आलोचक सत्यदेव त्रिपाठी ने उनके विषय में प्रकाशित सूचनाओं, शोध और उनकी कृतियों में बिखरे सूत्रों के आधार पर प्रसाद की जीवनी -‘अवसाद का आनंद’- लिखने का उद्यम किया है जो अब पूर्णता की ओर है। प्रस्तुत हैं इसके एक अध्याय ‘उसकी स्मृति पाथेय बनी’ के सम्पादित अंश…
आँसू’ का कवि उस आलम्बन को इरादतन छिपाता है, बल्कि इसकी रचना-प्रक्रिया में छिपाने का इरादा अंतर्भुक्त हो गया है। फिर भी रमेशचन्द्र शाहजी के मन में जाने क्यों ऐसी प्रतीति होती है कि कवि को उपयुक्त आलम्बन मिल नहीं रहा है, क्योंकि आलम्बन मिला न होता, तो खोज होती, आँसू नहीं. और यहाँ तो आँसूकार उस आलम्बन के प्रति अपनी आसक्ति को खुलकर बताता है। बताने के लिए ही लिखी गयी है ‘आँसू’, बल्कि यह कि आसक्ति दुर्निवार होकर आँसू के रूप में फूट पड़ी है– ‘बह निकली कविता सरिता सी’. लेकिन कवि आसक्ति के स्वरूप को इतना साफ-साफ भी नहीं बताता कि आलम्बन जहिराने लगे, उसकी शिनाख़्त होने लगे और पहचान खुलने लगे, यानी मौन रहता भी नहीं, मुखर होता भी नहीं…, जो पुन: उत्तम कविताई की क़ुदरत है- ‘हॉफ कंसील्ड, हॉफ रिवील्ड’ का कला-मानक। सो, कुल मिलाकर ‘आँसू’ की रचना एवं तब से हो रही इसकी चर्चा में कवि की नीयत से उपजी कविता-कला ही गोया यूँ साकार हुई है, कि आलम्बन ‘साफ छिपता भी नहीं, सामने आता भी नहीं’।
यह स्थिति ‘आँसू’ के लिखे जाते से ही बन गयी. जुलाई 1922 में प्रसादजी के ही प्रस्ताव पर केशवजी के ख़ुशनुमा बगीचे में पहला पूर्ण पाठ हुआ. उनके साथ राय कृष्णदासजी भी मौजूद थे, जिनके अनुसार ‘प्रसादजी ने दो-चार शब्दों में परिचय देते हुए समग्र ‘आँसू’ तन्मयता के साथ सस्वर सुनाया. यही दोनो पूरी कृति के प्रथम श्रोता हुए. रायजी के शब्दों में ‘सुनकर हम लोग झूमने लगे…. यद्यपि इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि ‘आँसू’ की ‘वस्तु’ ऐहिक है या आध्यात्मिक, तथापि खेद के साथ कहना पड़ता है कि उसमें का अधिकांश आत्मनिष्ठ है, न कि वस्तुनिष्ठ’. इसी प्रकार ज्ञानचन्द जैन जब व्यवस्था देते हैं कि ‘प्रसादजी की कविताओं में उनके अंतरंग जीवन की कहानी छिपी हुई है. कितनी ही पंक्तियां आत्मकथात्मक हैं’, तो उदाहरण में आँसू’ ही उद्धृत करते हैं (अंतरंग -124)- ‘सुख आहत शांति उमंगें बेगार साँस ढोने में, यह हृदय समाधि बना है, रोती करुणा कोने में’
रायकृष्णजी आगे लिखते हैं
‘प्रसादजी के विशेष वात्सल्य-भाजन रहे डॉ. राजेन्द्र नारायण शर्मा। वे कवि की रचनाओं में भी गहरी पैठ रखते। उन्होंने थोड़े शब्दों में ‘आँसू’ के बारे में जो कुछ कहा है, उसके मुकाबले में किसी की कोई उपज या तर्क ठहर नहीं सकते- ‘प्रेम लिंगभेद से परे है– भगवान की भाँति, क्योंकि वह अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूप कहे गये हैं– ‘वाच्य-वाचक भेदेन भवानेव जगन्मय:’ इसी के समानांतर ही स्वयं प्रसादजी का भी कथन है। जब उनके जीवन-काल में ही ‘शशिमुख पर घूँघट डाले, अंचल में दीप छिपाये, जीवन की गोधूलि में कौतूहल से तुम आये’, के हवाले से पूछा गया कि आप अपने रहस्यमय घूँघट और अंचल वाले प्रियतम का नाम बतलाइए, तो प्रसादजी बोले–
‘आँसू’ प्रेम के देवता की अर्चना है। प्रेम अपनी माया के विग्रह से अनंत रमणीय रूप धरता है। उसे न स्त्री कहा जा सकता, न पुरुष। न कोमल कहा जा सकता है, न पुरुष’ (वाङमय-182). और उन्होंने पास में ही रखी हुई राजेन्द्र नारायण शर्मा वाली प्रति पर ये पंक्तियां अपने हाथ से लिख दीं
‘ओ मेरे प्रेम बता दे, तू स्त्री है या कि पुरुष है, दोनों ही पूछ रहे हैं, तू कोमल है या कि पुरुष है?’
‘उनको कैसे समझा दूँ, तेरे रहस्य की बातें, जो तुमको समझ चुके हैं, अपने विलास की घातें।’
फिर ‘आँसू’ के छपकर आते ही विनयमोहन शर्मा एवं उनकी मित्रमण्डली का निश्चित मत बना कि ‘आँसू’ का ‘आलम्बन (यानी ‘उसकी’ की संज्ञा) प्रसादजी की कोई प्रेयसी ही हो सकती है’ (वाङमय -261)। ऐसा इसलिए भी, क्योंकि इतनी गहन आसक्ति अपने किसी चहेते प्रिय के बिछोह की ही वेदना, बेचैनी व तड़प से हो सकती है, तभी तो इन सबकी गहराई में बड़ी निजता है। निजता का वास्ता प्रेम से है– ‘आँसू’ प्रेम काव्य है– बिरह का प्रेम काव्य।
नन्ददुलारे वाजपेयीजी ने लिखा है
‘उद्दाम शृंगारिक स्मृतियों के साथ सम्पूर्ण समाधानकारक दार्शनिकता ‘आँसू’ की विशेषता है’ (वाङ्मय-22). निश्चय ही ‘आँसू’ का प्रेमी हारा हुआ है। असफल प्रेमी यदि पागल नहीं हो जाता, तो दार्शनिक होकर ही सामान्य जीवन जी सकता है। इसलिए इसके दर्शन पर तत्त्वचिंतक समीक्षक व दार्शनिक सोचते रहे हैं– और भी सोचें… लेकिन जीवन के पन्ने उलटने-खोलने वाले इस उपक्रम में उसके विवेचन के लिए बिल्कुल जगह (स्पैस) नहीं है और मूल बात यह भी कि जीवन है, तो दर्शन है, जबकि प्रेम है, तो जीवन है– भले जीवन के कारण ही प्रेम हो. और आँसू में उद्दाम शृंगारिक स्मृतियां हैं, तो उतना ही उद्दाम प्रेम भी रहा होगा…. फिर तत्कालीन दैनिक ‘आज’ के समीक्षक को यह सामान्य प्रेम-काव्य क्योंकर लगा होगा, वही जानें – हाँ, रहस्य का आभास तो ठीक है? (261-62 वाङमय).