#santoshtiwariडॉ. संतोष कुमार तिवारी।

गीता-वाटिका, गोरखपुर नगर से थोड़ी दूर पर रेलवे लाइन  के पास है। यह एक तरह की तप स्थली है, क्योंकि यहाँ कई तपस्वी रहे,  विशेष तौर पर तब जब यहां गीता प्रेस का सम्पादकीय कार्यालय था। गीता प्रेस की मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ के आदि सम्पादक भाईजी  श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार (1892-1971) यहाँ रहते थे। और गीता-वाटिका के ही परिसर में भारत के कोने-कोने से आए ‘कल्याण’ के कई विद्वान लेखक और सन्त-पुरुष भी रहते थे। ऐसे ही लोगों में से एक थे स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती (1911-1987)। तब उनका नाम शान्तनु बिहारी  द्विवेदी था। बाद में उन्होंने संन्यास ले लिया था और फिर वह  स्वामी अखण्डानन्दजी सरस्वती के नाम से विख्यात हुए।

स्वामी अखण्डानन्दजी ने अपनी पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ में कई सन्यासियों के साथ हुए अपने अनुभव की चर्चा की है। उस पुस्तक का प्रथम संस्करण फरवरी 1988 में उनका शरीर शान्त हो जाने के बाद प्रकाशित हुआ और चतुर्थ संस्करण मई 2012 में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक में स्वामी अखण्डानन्दजी ने भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार पर एक लम्बा लेख (पृष्ठ संख्या 264 से 288 तक) लिखा है। स्वामी अखण्डानन्दजी के जीवन काल में ही यह लेख ‘आनन्द बोध’ नामक पत्रिका में वर्ष 1986-87 कई भागों में प्रकाशित  हुआ था। बाद में वह उनकी पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ का हिस्सा बना। उस लेख  में स्वामी अखण्डानन्दजी ने एक मौनी बाबा की चर्चा की है।

गीता वाटिका में मौनी महात्मा का आगमन

अपनी पुस्तक के पृष्ठ संख्या 278-279 पर मौनी बाबा के बारे में स्वामी अखण्डानन्दजी ने लिखा:

“उन दिनों (गीता वाटिका) बहुत ही एकान्त एवं शान्त था। एक दिन कोई अपरिचित सज्जन (वहाँ) आये। गौरवर्ण, युवावस्था, श्वेत वस्त्र, अत्यन्त दुर्बल गात्रयष्टि (शरीर दुबला पतला शरीर)। भाईजी तुरन्त उनकी कुटिया में गए और सब व्यवस्था ठीक-ठीक कर दी।“

स्वामी अखण्डानन्दजी ने आगे लिखा

भाईजी से एकान्त में कुछ बात की होगी – मुझे कुछ स्मरण नहीं है। उन्हें एक फूस की कुटिया में ठहरा दिया गया। उनका नाम, ग्राम, जाति, प्रान्त किसी को मालूम न था। अपने ठाकुरजी की पूजा करते थे। परन्तु, किसी को उन्होंने अपने ठाकुरजी का दर्शन नहीं कराया। बोलते नहीं थे, लिखते भी नहीं थे। इस अद्भुत महात्मा को लोग बहुत कौतूहल की दृष्टि से देखते थे। वे भजन में मगन रहते, लीन रहते, न ऊधो का लेना, न माधो का देना। कथा-कीर्तन में आते-जाते नहीं थे। सम्भवत: किसी की ओर देखते नहीं थे। किसी दिन इनके ठाकुरजी को भोग लगानेके लिए जो किशमिश भेजी गई, वह स्वच्छ नहीं थी। कुछ गीली-गीली-सी थी और किशमिश के ही छोटे-छोटे तिनके उनमें थे। वे हाथ में किशमिश लिए भाईजी के पास गए। मेरे प्यारे-प्यारे कोमल-कोमल सुकुमार ठाकुरजी के लिए ऐसी किशमिश! – टूटी फूटी हिन्दीमें लिखकर भाईजी को दे दिया।

अन्तिम दिन

वे महात्मा वर्षों तक यहाँ रहे। किसी से बात नहीं, कोई सम्बन्ध नहीं। एक दिन उनकी कुटिया के सामने से कोई जा रहा था। उनको इशारेसे बुलाया । उनका आदर तो सभी करते थे। वे जाकर उनके सामने खड़े हो गए। श्रीरामचरितमानस का छोटा-सा गुटका (लघु-पुस्तक) उसके हाथ में दिया। जटायु की मृत्यु का प्रसंग निकालकर संकेत दिया कि इसे पढ़ें, बैठ गए। पढ़ने लगे। गीधकी स्तुति सुनते-सुनते उनमें सात्त्विक भाव का उदय हुआ। उनकी आँखों से आँसू तो हमेशा ही गिरते रहते थे। परन्तु, उस समय तो अखण्ड धारा गिरने लगी। स्तुति सुनते-सुनते जैसे उन्होंने हाथ जोड़कर श्री सीताराम को प्रणाम करने के लिए सिर झुकाया हो। धरतीपर गिर पड़े और उनका शरीर छूट गया। पाठ करने वालेने किसीको सूचना दी – हम सब लोग इकट्ठे हो गए। भाईजी ने उनकी  अन्त्येष्टि क्रिया करवाई।“

जटायु-मृत्यु प्रसंग क्या है

जटायु-मृत्यु के प्रसंग की गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरित मानस के अरण्य काण्ड में इस प्रकार चर्चा की है:

दोहा :

कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रघुबीर।
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर॥30॥

भावार्थ:-कृपा सागर श्रीरघुवीर (श्रीरामचन्द्रजी) ने अपने करकमल से उसके (जटायु के) सिर का स्पर्श किया (उसके सिर पर करकमल फेर दिया)। शोभाधाम श्री रामजी का (परम सुन्दर) मुख देखकर उसकी सब पीड़ा जाती रही॥30॥

चौपाई :

तब कह गीध बचन धरि धीरा। सुनहु राम भंजन भव भीरा॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥

भावार्थ:- तब धीरज धरकर गीध ने अर्थात जटायु ने यह वचन कहा- हे भव (जन्म-मृत्यु) के भय का नाश करने वाले श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! रावण ने मेरी यह दशा की है। उसी दुष्ट ने जानकीजी को हर लिया है।

लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाईं। बिलपति अति कुररी की नाईं॥
दरस लाग प्रभु राखेउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना॥

भावार्थ:- हे गोसाईं! वह उन्हें लेकर दक्षिण दिशा को गया है। सीताजी कुररी (कुर्ज) की तरह अत्यंत विलाप कर रही थीं। हे प्रभो! आपके दर्शनों के लिए ही मैंने प्राण रोक रखे थे। हे कृपानिधान! अब ये चलना ही चाहते हैं।

राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता॥
जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥

भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी ने कहा- हे तात! शारीर को बनाए रखिए। तब उसने मुस्कुराते हुए मुँह से यह बात कही- मरते समय जिनका नाम मुख में आ जाने से अधम (महान् पापी) भी मुक्त हो जाता है, ऐसा वेद गाते हैं-॥

सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगें॥
जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज तें गति पाई॥

भावार्थ:- वही (आप) मेरे नेत्रों के विषय होकर सामने खड़े हैं। हे नाथ! अब मैं किस कमी (की पूर्ति) के लिए इस देह को रखूँ? नेत्रों में जल भरकर श्री रघुनाथजी कहने लगे- हे तात! आपने अपने श्रेष्ठ कर्मों से (दुर्लभ) गति पाई है॥

परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
तनु तिज तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥

भावार्थ:- जिनके मन में दूसरे का हित बसता है (समाया रहता है), उनके लिए जगत् में कुछ भी (कोई भी गति) दुर्लभ नहीं है। हे तात! शरीर छोड़कर आप मेरे परम धाम में जाइए। मैं आपको क्या दूँ? आप तो पूर्णकाम हैं (सब कुछ पा चुके हैं)॥5॥

दोहा :

सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥31॥

भावार्थ:- हे तात! सीता हरण की बात आप जाकर पिताजी से न कहिएगा। यदि मैं राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुम्ब सहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा॥31॥

चौपाई :

गीध देह तजि धरि हरि रूपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी॥

भावार्थ:- जटायु ने गीध की देह त्याग कर हरि का रूप धारण किया और बहुत से अनुपम (दिव्य) आभूषण और (दिव्य) पीताम्बर पहन लिए। श्याम शरीर है, विशाल चार भुजाएँ हैं और नेत्रों में (प्रेम तथा आनंद के आँसुओं का) जल भरकर वह स्तुति कर रहा है॥

छंद :

जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।
दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं॥1॥

भावार्थ:- हे रामजी! आपकी जय हो। आपका रूप अनुपम है, आप निर्गुण हैं, सगुण हैं और सत्य ही गुणों के (माया के) प्रेरक हैं। दस सिर वाले रावण की प्रचण्ड भुजाओं को खंड-खंड करने के लिए प्रचण्ड बाण धारण करने वाले, पृथ्वी को सुशोभित करने वाले, जलयुक्त मेघ के समान श्याम शरीर वाले, कमल के समान मुख और (लाल) कमल के समान विशाल नेत्रों वाले, विशाल भुजाओं वाले और भव-भय से छुड़ाने वाले कृपालु श्री रामजी को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ।

बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं।
गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं॥
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं॥2॥

भावार्थ:- आप अपरिमित बल वाले हैं, अनादि, अजन्मा, अव्यक्त (निराकार), एक अगोचर (अलक्ष्य), गोविंद (वेद वाक्यों द्वारा जानने योग्य), इंद्रियों से अतीत, (जन्म-मरण, सुख-दुःख, हर्ष-शोकादि) द्वंद्वों को हरने वाले, विज्ञान की घनमूर्ति और पृथ्वी के आधार हैं तथा जो संत राम मंत्र को जपते हैं, उन अनन्त सेवकों के मन को आनन्द देने वाले हैं। उन निष्कामप्रिय (निष्कामजनों के प्रेमी अथवा उन्हें प्रिय) तथा काम आदि दुष्टों (दुष्ट वृत्तियों) के दल का दलन करने वाले श्री रामजी को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ।

जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई॥3॥

भावार्थ:- जिनको श्रुतियाँ निरंजन (माया से परे), ब्रह्म, व्यापक, निर्विकार और जन्मरहित कहकर गान करती हैं। मुनि जिन्हें ध्यान, ज्ञान, वैराग्य और योग आदि अनेक साधन करके पाते हैं। वे ही करुणाकन्द, शोभा के समूह (स्वयं श्री भगवान्) प्रकट होकर जड़-चेतन समस्त जगत् को मोहित कर रहे हैं। मेरे हृदय कमल के भ्रमर रूप उनके अंग-अंग में बहुत से कामदेवों की छवि शोभा पा रही है।

जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा॥
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी॥4॥

भावार्थ:- जो अगम और सुगम हैं, निर्मल स्वभाव हैं, विषम और सम हैं और सदा शीतल (शान्त) हैं। मन और इंद्रियों को सदा वश में करते हुए योगी बहुत साधन करने पर जिन्हें देख पाते हैं। वे तीनों लोकों के स्वामी, रमानिवास श्री रामजी निरंतर अपने दासों के वश में रहते हैं। वे ही मेरे हृदय में निवास करें, जिनकी पवित्र कीर्ति आवागमन को मिटाने वाली है॥4॥

दोहा :

अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥32॥

भावार्थ:- अखंड भक्ति का वर माँगकर गीधराज जटायु श्री हरि के परमधाम को चला गया। श्री रामचंद्रजी ने उसकी (दाहकर्म आदि सारी) क्रियाएँ यथायोग्य अपने हाथों से कीं॥32॥

चौपाई :

कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥
गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥

भावार्थ:- श्री रघुनाथजी अत्यंत कोमल चित्त वाले, दीनदयालु और बिना ही कारण कृपालु हैं। गीध (पक्षियों में भी) अधम पक्षी और मांसाहारी था, उसको भी वह दुर्लभ गति दी, जिसे योगीजन माँगते रहते हैं।

‘पावन प्रसंग’ पुस्तक कहाँ मिलेगी

स्वामी अखण्डानन्दजी की पुस्तक  ‘पावन प्रसंग’ चतुर्थ संस्करण (मई 2012) का मूल्य रु 80/- था। यह स्वाभाविक है कि अब नए संस्करण का मूल्य कुछ बढ़ा हुआ होगा। इस पुस्तक के प्रकाशक हैं:

सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, स्वामीश्री अखण्डानन्द पुस्तकालय, आनन्द कुटीर, मोतीझील- वृन्दावन – 281121

स्वामी अखण्डानन्दजी की लगभग 120 पुस्तकें लिखीं। वे या तो गीता प्रेस, गोरखपुर ने या फिर सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, वृन्दावन ने प्रकाशित की हैं। ‘कल्याण’ के सम्पादकीय विभाग में काम करते हुए स्वामी अखण्डानन्दजी ने  श्रीमद्भागवत-महापुराण का संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद किया था तथा अन्य कई पुस्तकें भी लिखीं थीं, जिनमें शामिल हैं: श्री भीष्म पितामह, भक्तराज हनुमान्, महात्मा विदुर, आदि। इनमें से श्री भीष्म पितामह, भक्तराज हनुमान्, महात्मा विदुर गीता सेवा ट्रस्ट के एप (gitaseva.org) को डाउनलोड करके फ्री में पढ़ी जा सकती हैं।

(लेखक झारखण्ड केंद्रीय विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर हैं)