गीता प्रेस के संस्थापक जयदयालजी गोयन्दका: एक परिचय
डॉ. संतोष कुमार तिवारी
गीता प्रेस जैसी महान संस्था के संस्थापक श्री जयदयालजी गोयन्दका (1885-1965) के बारे में अबसे कुछ वर्ष पूर्व तक बहुत ही कम जानकारी उपलब्ध थी। पिछले वर्ष गीता सेवा ट्रस्ट, जोधपुर ने एक पुस्तक प्रकाशित की – ‘गीता के परम प्रचारक’। उसमें काफी जानकारी उपलब्ध है। यह लेख प्रधानत: उसी जानकारी पर आधारित है।
प्रारम्भिक जीवन
सेठजी के नाम से जाने जाने वाले जयदयालजी का जन्म चुरू (राजस्थान) में हुआ था। जब वह कोई तेरह वर्ष के रहे होंगे, तब नाथ-सम्प्रदाय के सन्त श्री मंगलनाथजी महाराज चुरू आए। जयदयालजी के मन पर मंगलनाथजी के त्याग और वैराग्य की गहरी छाप पड़ी। जब वह 18 वर्ष के थे, तब व्यापार के लिए बांकुड़ा (बंगाल) आ गए थे। परन्तु कुछ वर्षों बाद व्यापार का कार्य घरवालों पर छोड़ कर श्रीमद्भगवद्गीता के प्रचार में लग गए। 22 वर्ष की आयु में वह सत्संग व्याख्यान देने लगे थे। कोलकाता, चक्रधरपुर, खड़गपुर जहां कहीं भी वह रहते, वहाँ उनका सत्संग जरूर होता था।
श्रीमद्भगवद्गीता का शुद्ध पाठ उपलब्ध नहीं हो रहा था
उन दिनों सत्संग के लिए न कोई मंच बनता था और न ही कोई प्रचार होता था। कोलकता में धीरे-धीरे सत्संगियों की संख्या बढ़ती गई। इसके लिए अन्य स्थान की अवश्यकता हुई। तब बांसतल्ला गली में गोविन्द-भवन (भगवान का घर) नाम से एक स्थान कराये पर लिया गया। वहाँ सभी सत्संगियों को स्वाध्याय के लिए श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात गीता की अवश्यकता होती थी। परन्तु शुद्ध पाठ और सही अर्थ की गीता सुलभ नहीं हो पा रही थी। सुलभता से ऐसी गीता मिल सके इसके लिए गोयन्दकाजी ने कोलकाता के वणिक प्रेस में पाँच हजार प्रतियाँ छपवाईं। ये प्रतियाँ बहुत जल्दी खत्म हो गईं। फिर छह हजार प्रतियों का दूसरा संस्करण छपवाया गया। परन्तु उसमें प्रूफ की भूलों को ठीक करने में बहुत दिक्कत हो रही थी। तब गोयन्दकाजी ने अपना प्रेस लगाने की सोची। गोरखपुर के दो कर्मठ मित्रों, घनश्यामदासजी जालान और महावीर प्रसादजी पोद्दार, ने उनको सुझाव दिया कि प्रेस उनके शहर में खोला जाए और वे उस प्रेस की देखभाल भी करेंगे।
गीता प्रेस की स्थापना
उन दोनों मित्रों के भरोसे सन् 1923 में गोरखपुर में एक छोटा सा मकान लगभग दस रुपये किराये पर लिया गया और गीता प्रेस की स्थापना हुई। छह सौ रुपये में एक हैंडप्रेस मशीन खरीदी गई। वह हैंडप्रेस हाथ से चलाया जाता था। उसमें बहुत धीरे-धीरे छपाई का काम हो पाता था। उसमें तीन कुशल व्यक्ति एक घंटे में मुश्किल से एक सौ पन्ने छाप सकते थे। समय के साथ प्रेस का विस्तार होता गया। गोयन्दकाजी और श्री हनुमान प्रसाद पोद्दारजी (भाईजी) द्वारा लिखित पुस्तकें, गीता (हिन्दी अनुवाद सहित) और रामचरितमानस आदि वहाँ से प्रकाशित होने लगीं। सेठजी, भाईजी, स्वामी रामसुखदासजी तथा कुछ अन्य लोगों के निष्काम सहयोग और समर्पण से धीरे-धीरे गीता प्रेस सनातन धर्म साहित्य का विश्व का सबसे बड़ा प्रकाशन केंद्र बन गया।
उद्देश्य: कम मूल्य पर पुस्तकें सुलभ कराना
गीता प्रेस लागत से कम मूल्य पर अर्थात बहुत सस्ते में अपनी पुस्तकें पाठकों को सुलभ कराता है। गीता प्रेस की स्थापना के पहले गीता की पुस्तक मिलनी दुर्लभ थी। मिलती भी तो पाठ शुद्ध नहीं होता था और उसका मूल्य भी दे पाना सर्वसाधारण के लिए सुलभ नहीं था। हिन्दू धर्म की तमाम पुस्तकें संस्कृत में है। तब महाभारत का मूलसहित हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध नहीं था। हमारे कई पुराण भी तब हिन्दी में उपलब्ध नहीं थे। गीता प्रेस ने इन सभी पुस्तकों को हिन्दी अनुवाद सहित सस्ते मूल्य में सर्वसाधारण को सुलभ कराया।
गीता प्रेस की स्थापना के पहले वाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस, आदि हिन्दू धर्म की कुछ पुस्तकें बाज़ार में थीं, परन्तु उनका मूल्य इतना ज्यादा होता था कि वह जनसाधारण को सुलभ नहीं हो पातीं थीं। इसके अतिरिक्त उनकी छपाई, बाइंडिंग, आदि उतनी अच्छी नहीं थी जितनी कि गीता प्रेस की थी।
देवी-देवताओं के मनमोहक चित्र
दूसरी ओर गीता प्रेस ने देवी देवताओं के मनमोहक चित्रों के साथ अपनी पुस्तकें पाठकों को दीं। यहाँ यह बता देना भी जरूरी है कि गीता प्रेस की हिन्दी मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ के प्रारम्भिक अंकों की लगभग एक वर्ष (1926-27) तक छपाई श्री वेंकटेश्वर मुद्रणालय, मुम्बई में हुई थी। बाद में इसकी छपाई गोरखपुर में होने लगी।
सेठजी ने सबसे पहले कोलकाता में गोविन्द-भवन की स्थापना की थी एक रजिस्टर्ड सोसाइटी के तौर पर। गीता प्रेस, गोरखपुर उसी गोविन्द-भवन का हिस्सा है। आज यह गोविन्द-भवन कोलकाता में महात्मा गांधी मार्ग पर है।
गीता प्रेस किसी से दान नहीं लेता
यहाँ यह बता देना भी जरूरी है की गीता प्रेस किसी से दान नहीं लेता। सेठजी का मानना था कि दानदाता अपने पैसे के बल पर संस्था की नीति को प्रभावित करते हैं।
स्वर्गाश्रम, ऋषीकेश, में गीता भवन की स्थापना
आज स्वर्गाश्रम में छह गीता भवन हैं जिनमें कुल एक हजार से अधिक कमरे हैं। इनमें नि:शुल्क रहने की व्यवस्था है। श्रद्धालुजन वहाँ रुकते हैं और भगवत-चिंतन और सत्संग करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि वहाँ एक वटवृक्ष वाले स्थान पर स्वामी रामतीर्थ ने भी तपस्या की थी।
शुद्ध आयुर्वेदिक औषधियों का निर्माण
इस समय शुद्ध आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण के लिये गीता भवन में व्यवस्था है। नि:शुल्क आयुर्वेदिक औषधालयों का संचालन भी किया जाता है। स्वर्गाश्रम, गोरखपुर, चुरू, कोलकाता, और सूरत में नि:शुल्क औषधि वितरण की व्यवस्था है। पहले कोलकाता में भी औषधियों का निर्माण होता था।
चुरू में श्रीऋषिकुल, ब्रह्मचर्याश्रम की स्थापना
अपने जन्मस्थान, चुरू, राजस्थान, में गोयन्दकाजी ने सन् 1924 में श्रीऋषिकुल, ब्रह्मचर्याश्रम की स्थापना की थी। इस आवासीय विद्यालय का उद्देश्य है कि बचपन से ही बच्चों में अच्छे संस्कार पड़ें। वहाँ बच्चों को सन् 1924 से आज तक शिक्षा, वस्त्र, शिक्षण सामाग्री इत्यादि, नि:शुल्क दी जाती है। उनसे भोजन का खर्च नाममात्र का लिया जाता है।
जयदयालजी गोयन्दका का साहित्य
सेठजी द्वारा लिखित और उनके प्रवचनों पर आधारित लगभग 115 पुस्तकें हैं। उनके द्वारा टीककृत गीतातत्वविवेचनी उनकी सर्वाधिक प्रिय और प्रतिनिधि रचना है। यह हिन्दी के अतिरिक्त बंगला, उड़िया, कन्नड़, तमिल, अंग्रेजी, तेलुगू, गुजराती और मराठी भाषाओं में भी प्रकाशित हो चुकी है। प्रत्येक भाषा में गीतातत्वविवेचनी की अब तक छपी प्रतियों की संख्या इस प्रकार है:
हिन्दी: 14,97,750
अंग्रेजी: 1,52,500
बंगला: 62,500
मराठी: 33,000
गुजराती:37,000
तमिल: 4,97,500
कन्नड़: 90,000
उड़िया: 1,64,500
तेलुगू: 2,05,000
कुल: 27,39,750
उपर्युक्त आंकड़े यह बताते हैं कि हिन्दी के बाद इस पुस्तक की सर्वाधिक मांग तमिल और तेलुगू में रही है। इसके बाद उड़िया और अंग्रेजी संस्करण का नम्बर आता है।
सेठजी की सादगी
सेठजी रेलवे के साधारण डिब्बे में सफर करते थे। वह साँवले वर्ण के थे। अतिसाधारण कपड़े पहनते थे। मारवाड़ी पगड़ी बांधते थे। आत्मप्रचार से कोसों दूर रहते थे। सेठजी के सत्संग में आने वाली स्त्रियॉं के लिए नियम था की वे अकेली न आवें। अपने परिवार के पुरुषों के साथ आवें।
जगन्नाथपुरी में एक अनुभव
एक बार सेठजी जगन्नाथपुरी गए। वहाँ एक धर्मशाला में कमरे के लिए पूछा। प्रबन्धक ने कहा – कमरा खाली नहीं है। सेठजी वापस जाने लगे। तभी किसी ने उन्हें पहचान लिया और प्रबन्धक से कहा – तुम इन्हें नहीं जानते? ये गीता प्रेस के अध्यक्ष हैं। वह दौड़ कर सेठजी के पास आया और उन्हें न पहचानने के लिए क्षमा मांगने लगा और कमरा देने लगा। सेठजी ने कहा – गीता प्रेस के काम के लिए मैं गीता प्रेस का अध्यक्ष हूँ। यहाँ तो मैं बांकुड़ा से आया हुआ जयदयाल गोयन्दका हूँ। यह कह कर वह वहाँ से चल दिये। उन्होंने गीता प्रेस के नाम के कारण मिलने वाला कमरा स्वीकार नहीं किया।
गोयन्दकाजी थे गृहस्थ सन्त
गोयन्दकाजी गृहस्थ सन्त थे। सन् 1960 में बांकुड़ा, बंगाल में उनकी पत्नी का शरीर शान्त हो गया, और गोयन्दकाजी सन् 1965 में ऋषीकेश में ब्रह्मलीन हुए।
गीता प्रेस स्थापित करके गोयन्दकाजी ने तमाम महान विद्वानों और विभूतिओं को सनातन धर्म की सेवा करने का अवसर दिया। गीता प्रेस गोरखपुर आज मात्र एक प्रिंटिंग प्रेस नहीं है, यह एक तीर्थ स्थल बन गया है।
(लेखक झारखण्ड केन्द्रीय विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)