पुस्तक समीक्षा।
राजीव रंजन।
आचार्य केशव प्रसाद मिश्र ने कहा था कि साहित्य का एक काम मनोरंजन भी प्रदान करना है। हिन्द युग्म, नोएडा से प्रकाशित जयंती रंगनाथन का नया उपन्यास ‘शैडो’ यही काम करता है।
कुछ दिनों पहले पत्रकार-कथाकार श्याम बिहारी श्यामल का उपन्यास ‘कंथा’ पढ़ रहा था, जो कालजयी कवि-नाटककार-कथाकार जयशंकर प्रसाद के जीवन और उनके समय की कथा कहता है। इसमें एक प्रसंग आता है, जिसमें हिन्दी साहित्य के व्यवस्थित इतिहास लेखन की शुरुआत करने वाले आचार्य रामचंद्र शुक्ल एक कटु टिप्पणी करते हैं पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ पर। उन दिनों ‘उग्र’ जी की लिखी हुई किताबें- ‘चन्द हसीनों के खतूत’ और ‘दिल्ली का दलाल’ पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय हुई थीं और खूब बिक रही थीं। आचार्य शुक्ल का मानना था कि इस तरह का लेखन कर ‘उग्र’ जी हिन्दी साहित्य का माहौल बिगाड़ रहे हैं। आचार्य शुक्ल कहते हैं- ‘यहीं काशी के रामकटोरा में उधर बैठकर एक तरफ मुंशी प्रेमचन्द तो दूसरी तरफ इधर गोवर्द्धनसराय में विराजमान प्रसाद किस तरह साहित्य को गम्भीर अभिव्यक्ति और व्यापक लक्ष्यपूर्ण विमर्श के मंच माध्यम का आकार देने में जुटे हैं, यह पूरा हिन्दी संसार समझ रहा है; किन्तु ऐसे सारे उपक्रम आपके ऐसे अगम्भीर कार्यों से अन्ततः मिट्टी में मिलकर रह जाएंगे। आपकी अगर चल गई तो पूरा साहित्य क्षेत्र ही एक बारहमासा होलियाना इलाका होकर रह जाएगा, जहां भोंडे और अगम्भीर प्रलाप धुन्ध की तरह गहराकर मुख्य धारा में छाये रहेंगे।’
इस पर प्रख्यात साहित्यकार आचार्य केशव प्रसाद मिश्र कहते हैं- ‘चलिए ठीक है, रसोई में नमक की भी कोई कम भूमिका नहीं। बगैर इसके स्वाद कहां आ पाता है!… अब आप यह बताएं कि साहित्य का एक काम तो पाठक को बीच-बीच में मनोरंजन भी देते चलना है… इसके लिए तो हमें एक उग्र चाहिए ही चाहिए न!… बहरहाल एकाध चुटकी तो सहनीय है ही।’
कथा का रोमांच
दरअसल इस प्रसंग की याद आई वरिष्ठ पत्रकार-उपन्यासकार जयंती रंगनाथन के नवीनतम उपन्यास ‘शैडो’ को पढ़ते हुए। ₹199 मूल्य का ये उपन्यास खाने में चुटकी भर डलने वाले नमक की याद दिलाता है, जिसके बिना खूब यत्न और अच्छी-अच्छी चीजों को डालकर बनाया गया खाना भी बेस्वाद लगता है। उपन्यास को पढ़ना शुरू किया था, तो सोचा था कि एक हफ्ते में धीरे-धीरे खत्म कर दूंगा। लेकिन यह क्या! जब पढ़ना शुरू किया, तो पहले पृष्ठ से ही इसके प्रभाव में ऐसे आया कि 10 पेज, 20 पेज, 30 पेज, 40 पेज, और आगे, और आगे पढ़ते गया। इस रोमांचक कथा को बीच में छोड़ने का मन ही नहीं हुआ। सप्ताह भर में धीरे-धीरे पढ़ने की योजना को ध्वस्त हो जाने में सात मिनट भी नहीं लगे।
जैसाकि आचार्य केशव प्रसाद मिश्र ने कहा था कि साहित्य का एक काम मनोरंजन भी प्रदान करना है, जयंती रंगनाथन का उपन्यास ‘शैडो’ यही काम करता है। यह पुनर्जन्म की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है। इस उपन्यास की कथा में पास्ट लाइफ रिग्रेशन थेरेपी (हिप्टोनिज्म का प्रयोग करके पिछले जन्म को जानने की प्रक्रिया। इसका उपयोग कर थेरेपिस्ट वर्तमान जन्म की मनोवैज्ञानिक समस्याओं का निदान करने की कोशिश करते हैं) की बेहद अहम भूमिका है। इस उपन्यास का जो प्लॉट है, व्यक्तिगत रूप मैं उन बातों को नहीं मानता, लेकिन इसके बावजूद एक पाठक के तौर पर मैं एक सम्मोहन में बंधता चला गया। किसी भी कृति की यह सफलता है कि उसके विषय से असहमत होते हुए भी पाठक उससे किनारा करने में खुद को असमर्थ पाए।
अंत तक उत्कंठा… आगे क्या होगा
इस उपन्यास की खासियत यह है कि अंत तक उत्कंठा बनी रहती है कि अब आगे क्या होगा। थ्रिल और रहस्य अंत तक बरकरार रहता है। कौन खलनायक है, कौन नायक है, यह अंत में जाकर ही पता चलता है। हम जिसे जो समझ रहे होते हैं, वो कुछ और निकलता है। पुनर्जन्म और पास्ट लाइफ रिग्रेशन थेरेपी पर बहुत कुछ रचा जा चुका है। ढेरों फिल्में इस पर बन चुकी हैं। मुझे ‘कुदरत’, ‘महबूबा’, ‘एक पहेली लीला’ जैसी कई फिल्में इस विषय पर याद आ रही हैं। गुलशन नंदा का वह उपन्यास भी याद आता है, जिस पर ‘नीलकमल’ फिल्म बनी थी। वैसे ‘महबूबा’ भी उन्हीं के उपन्यास पर बनी थी। इसके बावजूद जयंती रंगनाथन ने उपन्यास का कथानक, ताना-बाना और किरदारों को ऐसे बुना है कि ‘शैडो’ एकदम तरोताजा लगता है। इस पर किसी की छाया नजर नहीं आती। इसकी एक और खासियत है कथा का प्रवाह। कई अविश्वसनीय घटनाओं (हालांकि जो मुझे अविश्वसनीय लगता है, जरूरी नहीं कि सबको लगे- बहुत सारे लोग ऐसे हैं, जो सुपर नेचुरल घटनाओं पर शिद्दत से यकीन करते हैं) के बावजूद कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि कहीं भी प्रवाह में बाधा आ रही है। इस उपन्यास का भाषा इसकी एक और यूएसपी है। यह एकदम आम आदमी की भाषा है। युवा जिस भाषा में सोचते, बोलते और लिखते हैं, ये वही भाषा है। ‘धर्मयुग’ से पत्रकारिता का सफर शुरू कर सोनी एंटरटेनमेंट टेलिविज़न, वनिता, अमर उजाला, नंदन जैसे पड़ावों से अनुभव समृद्ध होते हुए जयंती रंगनाथन इन दिनों हिंदुस्तान अख़बार में एक्जीक्युटिव एडिटर हैं। शैडो में वह अपनी भाषा से युवाओं को चुनौती दे रही हैं। निस्संदेह ‘शैडो’ को पढ़ना एक रोलर कोस्टर राइड के रोमांच से गुजरने जैसा है।
उपन्यास अंश: शैडो
कुछ ब्लैक एंड व्हाइट, कुछ कलर
जयंती रंगनाथन।
बंगले के सामने भीड़-सी लगी थी। शीला से मिलने रिश्तेदार और दोस्त आ रहे थे। मारिया, मयंक को लेकर अंदर आ गई। शीला अभी भी अपने कमरे में ही थीं। पलंग पर तकिए से सिर टेककर बैठी थीं। मयंक को गौर से देखा, फिर मुँह फेरकर बैठ गईं।
मारिया ने उनके पास जाकर कहा, “अम्मा, देखिए तो, मैं लेकर आई हूँ। आप याद कर रही थीं ना। कल ये हमारे साथ ही तो आए थे यहाँ?”
शीला पलटीं, गौर से मयंक की तरफ देखा, फिर बुदबुदाकर बोलीं, “ठीक है, पर शोभित कहाँ है? उसे बुलाओ? तुम उसे लेने गई थी न?”
मारिया की आवाज गंभीर थी, “वो कल प्लेन एक्सीडेंट में गुजर गए… आप साथ थीं उनके।”
शीला ने सिर हिलाया। धीरे से बोलीं, “कुछ याद नहीं रहता मुझे। सब भूल जाती हूँ। शोभित चला गया?”
वो रोने लगीं। मारिया उनकी पीठ पर धीरे-धीरे हाथ फेरने लगी।
शीला का रोना रुक गया। मयंक उनके पास हक्का-बक्का सा खड़ा रहा।
शीला उसकी तरफ देख रही थीं। मयंक को अजीब लगा। पता नहीं क्या सोच रही थीं, अपने बेटे के बारे में या उसके बारे में? शीला ने हाथ के इशारे से उसे अपने पास बुलाया, उनकी आवाज बहुत धीमी थी, “माफ़ कर देना। मैं तुम्हें पहचान नहीं पाई।”
मयंक भावुक हो गया। उनके हाथ पकड़कर बोला, “आप माफ़ी क्यों माँग रही हैं? बस, आप ठीक हो जाइए।”
“तुम कहीं जाना मत। अभी यहीं रहना।”
मयंक ने हाँ में सिर हिलाया।
शीला से मिलने बाहर कई लोग खड़े थे। सब एक-एक करके अंदर आकर उन्हें गले लगाते, मलयालम में सांत्वना देते और चले जाते। मयंक बंगले के गोल कमरे से होता हुआ बाहर आ गया। बरामदे से लगे कमरे में दीवारों पर ढेर सारी तस्वीरें लगी थीं। कुछ ब्लैक एंड व्हाइट, कुछ कलर।
वह रुक गया। तस्वीरों में शोभित को पहचान गया। उसके बचपन की तस्वीरें, कॉलेज की तस्वीरें तस्वीरों के बीच उसे एक पहचानी हुई शक्ल दिखाई दी। एक चंचल-सी शक्ल वाली साँवली लड़की, छोटे कटे बालों में एक लंबी सी लड़की के गले में बाँहें डालकर खड़ी थी। चंचल-सी दिखने वाली लड़की को वह पहचान गया।
उमा… उमा के बगल में कौन है? नोरा जैसी तो नहीं लग रही? हो सकता है हो… उसने ध्यान से देखा। उमा एक और तस्वीर में नजर आ रही थी। वह एक रेस्तराँ के सामने पोज बनाकर खड़ी थी और उसके साथ शोभित खड़ा था। शोभित को पीछे से किसी ने गले लगा रखा था। उसका चेहरा फोटो में नहीं आ रहा था। बस उसके बेलबॉटम का एक हिस्सा और उड़ते हुए बाल नज़र आ रहे थे। कलर फोटो में उमा साफ़ पहचान में आ रही थी।
मयंक चौंका हुआ फोटो फ्रेम के सामने खड़ा था। उसे पता ही नहीं चला मारिया कब वहाँ आ गई।
“मेरे हसबैंड की पुरानी फोटोज हैं। उन्हें बहुत शौक था। अपनी सारी यादगार फ़ोटो फ्रेम करके रखते थे।”
“आप इसे जानती हैं?” शोभित ने उमा की तस्वीर पर उँगली रखकर पूछा। मारिया ने नहीं में सिर हिलाते हुए कहा, “इस लड़की का जिक्र तो शोभित ने कभी नहीं किया, पर हाँ, शोभित के पीछे जो लड़की खड़ी है, उसे जानती हूँ।”
“वो कौन है?”
“शोभित की पहली प्रेमिका काव्या… उसी की वजह से तो शोभित को वायनाड छोड़ना पड़ा था।