पांच-छह साल पहले तक जनवरी महीना शुरू होते ही लोगों को माघ जतरा (मेला) का बेसब्री से इंतजार रहता था लेकिन सदियों से चली आ रही माघ जतरा (मेला) की परंपरा अब छोटानागपुर में पूरी तरह खत्म हो गई है। आधुनिकता के दौर में शहरीकरण, मेला टांड़ की खरीद-बिक्री और ऑनलाइन शॉपिंग की संस्कृति लोगों की खरीदारी और मिलने-जुलने के मुख्य माध्यम माघ जतरा को लील गयी। 

विभिन्न जगहों पर लगता था माघ मेला

अब से लगभग चार-पांच साल पहले तक खूंटी, सिमडेगा, लोहरदगा, गुमला आदि जिले की विभिन्न जगहों पर माघ मेला लगता था। चूंकि, यह मेला माघ महीने से शुरू होकर फाल्गुन तक चलता था। इसलिए इसे माघ जतरा या माघ मेला कहा जाता था। अलग-अलग दिनों में अलग-अलग जगहों पर माघ जतरा लगता था। जतरा कहीं एक सप्ताह तक चलता था, तो कहीं तीन या चार दिन। खूंटी, तोरपा, तपकारा, मुरहू,, डोड़मा, जरियागढ़, कामडारा, सिमडेगा, सिसई, कर्रा, लापुंग सहित अन्य जगहों पर एक सप्ताह तक माघ जतरा लगता था और काफी विख्यात था।

माघ मेला से स्थानीय लोगों को मिलता था रोजगार

माघ मेला से राजस्व की वसूली के लिए संबंधित अंचल कार्यालय से बोली लगाई जाती थी। सिमडेगा का माघ मेला जिसे गांधी मेला कहा जाता था, उसकी शुरुआत गणतंत्र दिवस के दिन 26 जनवरी को होता था। माघ मेला से स्थानीय लोगों को रोजगार तो मिलता ही था, सरकार को भी अच्छा-खासा राजस्व मिल जाता था लेकिन मेला टांड़ की भूमि के अतिक्रमण या जमीन के मालिक द्वारा भूखंड की बिक्री कर दिये जाने के कारण अधिकतर जगहों पर जमीन की कमी से जतरा लगना बंद हो गया।

2017 में लगा था आखिरी मेला

खूंटी में संभवतः 2017 में अंतिम माघ मेला लगा था जबकि मुरहू और हास्सा में भी उसके बाद माघ जतरा नहीं लगा। तोरपा, तपकारा, जरियागढ़, कर्रा, लापुंग और कामडारा में भी वर्षों पहले माघ मेला का अस्तित्व समाप्त चुका है। तपकारा के रहने वाले मनोज कुमार जायसवाल और अखिलेश शर्मा कहते हैं कि जब वे लोग छोटे-छोटे थे, उस समय मेला काफी भव्य होता था। आठ दिनों तक लगने वाला मेला रात भर चलता था। रात को संभ्रांत परिवार की महिलाएं खरीदारी के लिए निकलती थी।

नये रिश्ते तय करने का माध्यम

तोरपा के व्यवसायी कृष्ण गुप्ता कहते हैं कि माघ जतरा झारखंड के आदिवासियों और मूलवासियों की सांस्कृतिक परंपरा की पहचान थी। माघ मेला के बहाने यहां के आदिवासी और मूलवासी अपने जवान लड़के-लड़की के वैवाहिक संबंध की बात करने के लिए आते थे। मेला के बहाने लड़का-लड़की एक दूसरे को देखकर पसंद करते थे। मेला देखने के बहाने लोग मेहमान नवाजी का भरपूर लुत्फ उठाते थे। वे कहते हैं कि आज आधुनिकता के दौर में यह सब लुप्त प्राय हो चुका है। जरूरत है इस संस्कृति को बरकरार रखने की।

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अब वो आनंद कहां : मनोज कुमार

बाबा आम्रेश्वर धाम प्रबंध समिति के महामंत्री और जिला सांसद प्रतिनिधि मनोज कुमार कहते हैं कि अब वो आनंद कहां? माघ जतरा किसी खास जगह खत्म होने के बाद दूसरी जगह शुरू होता था। खूंटी के बाद मुरहू में मेला लगता था। इसके बाद तपकारा, डोड़मा, कामडारा के बाद जरियागढ़ और कर्रा में मेला लगता था। मनोज कुमार कहते हैं कि आधुनिकता और शहरीकरण ने माघ जतरा की परंपरा को खत्म कर दिया। यह लोगों के मिलने और अपने संबंधों को प्रगाढ़ करने का बहुत बड़ा माध्यम था।(एएमएपी)