प्रदीप सिंह।
बात करते हैं आजादी मिलने से थोड़ा पहले की। 15 अगस्त, 1947 को आजादी मिली और ये बात है मार्च 1947 की… कि क्या हुआ… किस तरह से जिन्ना और लियाकत अली ने पूरी कांग्रेस पार्टी को मात दी? कैसे जवाहरलाल नेहरू चूक गए? कैसे जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने? जवाहरलाल नेहरू 1947 में प्रधानमंत्री नहीं बने थे। जवाहरलाल नेहरू पहली बार 1946 में अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री बने थे। उस दौरान क्या-क्या हुआ? कैसे कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग की संयुक्त सरकार बनते-बनते रह गई… फिर बन गई… और फिर कैसे टूटते-टूटते बच गई?… ये सब बताऊंगा लेकिन शुरुआत करते हैं अगस्त 1946 से।
‘नेहरू नंबर-2 की पोजीशन नहीं ले सकते’
12 अगस्त, 1946… उस समय देश की आजादी की बातचीत चल रही थी लेकिन तब तक कोई तारीख तय नहीं हुई थी कि देश कब आजाद होगा, अंग्रेज कब यहां से जाएंगे। उस समय अंतरिम सरकार बनाने की बात चल रही थी। उस समय भारत के गवर्नर जनरल थे लॉर्ड एपी वेवेल। उन्होंने कहा कि मैं कांग्रेस अध्यक्ष यानी जवाहरलाल नेहरू को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर रहा हूं। नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष कैसे बने थे- इस बारे में मैं पहले बता चुका हूं कि कांग्रेस पार्टी की वर्किंग कमेटी और कांग्रेस की जितनी राज्य इकाई थी उनमें से एक को छोड़कर सबने सरदार पटेल के पक्ष में फैसला दिया था लेकिन गांधीजी ने उसे बदलवा दिया। गांधीजी ने इसके पीछे दो कारण बताए थे। उन्होंने कहा कि हम लोगों में नेहरू ही अकेला अंग्रेज है। अब आप देखिए कि नेहरू और देश के भावी प्रधानमंत्री को लेकर गांधीजी की सोच क्या थी। दूसरा, उन्होंने कहा कि नेहरू नंबर-2 की पोजीशन नहीं ले सकते। सेंस ऑफ इनटाइटलमेंट की शुरुआत यहीं से हो गई कि नेहरू का जन्म नंबर-2 बनने के लिए नहीं बल्कि नंबर-1 बनने के लिए हुआ है। यह भावना नेहरू-गांधी परिवार में अभी तक चल रही है। लॉर्ड वेवेल ने अंतरिम सरकार बनाने के लिए नेहरू को बुला लिया। अब सवाल यह था कि क्या मुस्लिम लीग इसमें शामिल होगी।
नेहरू का प्रस्ताव जिन्ना ने ठुकराया
नेहरू ने मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मोहम्मद अली जिन्ना को प्रस्ताव दिया कि उनके मंत्रिमंडल में जो 14 सदस्य होंगे उनमें 9 कांग्रेस के और 5 मुस्लिम लीग के होंगे। जिन्ना ने इस प्रस्ताव को नकार दिया। यह बात 12 अगस्त से 15 अगस्त, 1946 के बीच की है। 16 अगस्त को जिन्ना ने सीधी कार्रवाई का आह्वान कर दिया और कोलकाता में भीषण दंगा शुरू हो गया। सरकारी अनुमान के मुताबिक उस दंगे में 5,000 से ज्यादा लोग मारे गए 15,000 से ज्यादा लोग घायल हुए। इसके अलावा देश में और कई जगह दंगे हुए। इससे जिन्ना का हौसला बढ़ गया। जिन्ना को लगा कि मेरी ताकत बहुत ज्यादा है और मुझे कम पर समझौता नहीं करना चाहिए। आठ दिन बाद सरकार का गठन हुआ लेकिन सरकार ने कामकाज संभाला 2 सितंबर,1946 को। उस सरकार में प्रधानमंत्री नेहरू के अलावा सरदार वल्लभभाई पटेल, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, सी. राजगोपालाचारी, आसिफ अली, शरत चंद्र बोस, जॉन मथाई, बलदेव सिंह, सफत अहमद खान, जगजीवन राम, सी. एच. भाभा और अली जाकीर शामिल थे। इस सरकार में डॉ. भीमराव आंबेडकर शामिल नहीं थे क्योंकि नेहरू किसी भी हालत में उन्हें अपने मंत्रिमंडल में लेना नहीं चाहते थे, 1947 के बाद भी नहीं चाहते थे। आजादी के बाद तो गांधीजी के दबाव में उन्हें शामिल किया गया और बाद में निकाल दिया गया। निकालने से मेरा मतलब ऐसी परिस्थितियां पैदा की गई कि वह छोड़ने पर मजबूर हो गए।
बंटवारे की मांग
जब अंतरिम सरकार का गठन हुआ तो इसके जवाब में जिन्ना ने हमला बोला। उन्होंने कहा कि देश का बंटवारा होना चाहिए, पाकिस्तान बनना चाहिए और मुसलमानों का अलग देश होना चाहिए। भारत के वायसराय लॉर्ड वेवेल ने समझौता कराने की कोशिश की, वे नेहरू और गांधी से मिले। उन्होंने उनसे कहा कि दिल्ली और कोलकाता में कांग्रेस व मुस्लिम लीग की साझा सरकार बने। केवल सरकार के गठन का मामला नहीं था, संविधान सभा के गठन का भी था। वेवेल ने एक चाल चली। उन्होंने नेहरू से कहा कि संविधान सभा के गठन की मंजूरी तभी देंगे जब प्रांतों का जो समूह बनाया जा रहा है वह कैबिनेट मिशन के मुताबिक बनाया जाए। नेहरू ने उसे मना कर दिया। 2 सितंबर, 1946 को अंतरिम सरकार ने कामकाज संभाला। इसके साथ ही मुंबई और अहमदाबाद में दंगे शुरू हो गए। अंतरिम सरकार का बनना, देश का विभाजन होना, देश का आजाद होना कई सालों का ये पूरा घटनाक्रम हिंदू-मुस्लिम दंगों की छाया में हुआ। आज जो ये बहुत हिंदू- मुसलमान हो रहा है, हमको आजादी ही हिंदू-मुसलमान के आधार पर मिली। आज जो परिस्थिति बन रही है वह फिर से 1945, 46, 47 वाली बन रही है इसलिए ज्यादा चिंता की बात है। इसको मौजूदा सरकार के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है, यह एक अलग विमर्श का विषय है।
नेहरू की चूक
जिन्ना ने अगली चाल चली। उन्होंने छतरी के नवाब सर सुल्तान अहमद को लॉर्ड वेवेल के पास भेजा और कहा कि अंतरिम सरकार में शामिल होने के लिए वेवेल सीधे जिन्ना को आमंत्रित करें बजाय इसके कि नेहरू आमंत्रित करें तो मुस्लिम लीग तैयार हो सकती है। नेहरू से यहीं गलती हो गई, इस बात को कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं जिनमें सरदार पटेल भी शामिल थे उन्होंने भी माना था। जिन्ना का यह प्रस्ताव सुनने के बाद वेवेल को लगा कि एक बार नेहरू से बात कर लें। उन्होंने नेहरू से पूछा कि क्या मुझे जिन्ना से मिलना चाहिए? नेहरू का जवाब था कि अगर आप किसी से मिलना चाहते हैं तो मैं रोक कैसे सकता हूं। वेवेल ने इसका निष्कर्ष निकाला कि नेहरू को इससे कोई ऐतराज नहीं है, वह इसे मुद्दा नहीं बनाएंगे कि आप जिन्ना से मिले या उनके प्रस्ताव पर विचार किया तो हम मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे देंगे। सरदार पटेल का मानना था कि यही मौका था जिन्ना को नीचे रखने का, जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री हैं तो अब उन्हीं से इस बारे में बात करनी पड़ेगी। कांग्रेस के उस समय के जो वरिष्ठ नेता थे वे इस बात पर एकमत थे कि यह मौका जवाहरलाल नेहरू चूक गए। अब आप देखिए कि बात इसलिए अटकी हुई थी कि संविधान सभा बननी थी। संविधान सभा में कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों शामिल होती तो बंटवारे की बात पीछे चली जाती। जिन्ना को यह बात समझ में आ गई थी इसलिए उन्होंने लॉर्ड वेवेल से बात की और कहा कि मुस्लिम लीग सरकार में शामिल होगी- और हुई भी। मगर संविधान सभा के मुद्दे पर जिन्ना गोलमोल बात करते रहे। सरदार पटेल ने फिर कहा कि जिन्ना की बात में मत आइए, संविधान सभा में मुस्लिम लीग शामिल होगी इसका जिन्ना से लिखित आश्वासन लीजिए लेकिन वेवेने कहा कि मैं सब ठीक कर दूंगा और नेहरू मान गए।
जिन्ना की चतुराई
जिन्ना ने लिखित में कुछ नहीं दिया और आगे क्या किया ये बताता हूं। 15 अक्टूबर, 1946 को जिन्ना ने घोषणा की कि मुस्लिम लीग अंतरिम सरकार में शामिल हो रही है। उन्होंने राष्ट्रवादी मुसलमानों को निकलवा दिया। जो कांग्रेस के साथ थे वे राष्ट्रवादी थे और जो कांग्रेस के साथ नहीं थे वे राष्ट्रवादी नहीं थे, राष्ट्रवादी मुसलमानों की ये उस समय की परिभाषा थी। जिन्ना ने वेवेल से अपनी सारी शर्तें मनवाली और नेहरू या वेवेल की एक भी शर्त नहीं मानी। अब आप देखिए कि जिन्ना ने कितनी चतुराई से कितना रणनीतिक खेल खेला। वेवेल और गांधीजी के कहने पर कांग्रेस पार्टी ने नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया लेकिन नेहरू का यह कद, यह पद जिन्ना को स्वीकार नहीं था। जब मुस्लिम लीग के सरकार में शामिल होने की घोषणा हुई तो जिन्ना ने कहा कि मैं सरकार में नहीं रहूंगा। मैं अपने जूनियर के अंदर में काम नहीं कर सकता। जबकि सरदार पटेल सीनियर होते हुए भी गांधीजी के दबाव में नेहरू के नीचे काम करने को तैयार हो गए। दोनों तरफ के नेताओं की सोच को देखिए, सरदार पटेल ने देश हित में, कांग्रेस के हित में और गांधीजी के नैतिक दबाव में इसे स्वीकार कर लिया। जिन्ना पर ऐसा कोई दबाव नहीं था इसलिए उन्होंने स्वीकार नहीं किया। अब जैसा कि हमेशा सरकार बनने पर होता है, मंत्रालय को लेकर झगड़ा शुरू हुआ। जिन्ना चाहते थे कि मुस्लिम लीग के मंत्रियों में से किसी को गृह मंत्रालय मिले। कांग्रेस पार्टी इसके लिए तैयार नहीं थी। तब रफी अहमद किदवई ने अपनी समझदारी का परिचय देते हुए बड़ी चतुराई का सुझाव दिया और कहा कि इससे मुस्लिम लीग संतुष्ट हो जाएगी। उन्होंने कहा कि वित्त मंत्रालय मुस्लिम लीग को दे दीजिए, उनके यहां वित्तीय मामलों का कोई बड़ा जानकार नहीं है। उन्हें वित्त मंत्रालय मिलेगा तो कुछ ही दिनों में उनकी पोल खुल जाएगी कि वे नहीं चला पा रहे हैं। इससे मुस्लिम लीग की प्रतिष्ठा गिरेगी और उनके बारे में लोगों की राय बदलेगी लेकिन यह दांव उलटा पड़ गया।
कांग्रेस पार्टी चारों खाने चित
मुस्लिम लीग से लियाकत अली वित्त मंत्री बने। उन्होंने जो किया उससे पूरी कांग्रेस पार्टी चारों खाने चित हो गई। लियाकत अली ने मार्च 1947 में अपना पहला बजट पेश किया। वह बजट सोशलिस्ट बजट था। उससे परेशानी हुई नेहरू और कांग्रेस को- लेकिन यह छोटी परेशानी थी। उन्होंने एक और काम किया जो उनका मास्टर स्ट्रोक कहा गया। उन्होंने 150 उद्योगपतियों के खिलाफ जांच आयोग बिठा दिया कि ये सब टैक्स की चोरी कर रहे हैं। इससे कांग्रेस में खलबली मच गई क्योंकि ये सब कांग्रेस समर्थक उद्योगपति थे और आजादी के आंदोलन में मदद करने वाले लोग थे। लियाकत अली और जिन्ना को पता था कि इनके खिलाफ कार्रवाई से देश के विभाजन का उनका जो सपना है उसमें आसानी हो जाएगी और वही हुआ भी। अब आप देखिए जिन्ना और लियाकत अली की सोच और इधर से नेहरू और उनके साथियों की सोच। पूरी कांग्रेस पार्टी- जिनमें नेहरू, गांधी, पटेल, राजेंद्र बाबू, राजा जी सब थे- वो भांप नहीं पाई। लियाकत अली की इस घोषणा के बाद कांग्रेस और मुस्लिम लीग में दूरी और बढ़ गई। अब जिन्ना ने अपना दूसरा वार किया। जिन्ना ने कहा कि मुस्लिम लीग संविधान सभा में शामिल नहीं होगी, इसका कांग्रेस के पास कोई माकूल जवाब नहीं था। मेरठ में कांग्रेस का सम्मेलन हुआ। आचार्य जेबी कृपलानी अध्यक्ष थे। उनकी अध्यक्षता में हुए इस सम्मेलन में यह प्रस्ताव पास हुआ कि मुस्लिम लीग कैबिनेट मिशन को या तो पूरी तरह से स्वीकार करे या सरकार से बाहर हो जाए। इस प्रस्ताव के पास होने के दूसरे दिन से नोआखाली में भीषण दंगे शुरू हो गए। आपको पता है कि नोआखाली का दंगा कितना भीषण था, वहां न पुलिस कुछ कर पा रही थी न सेना। आखिर में गांधीजी गए, आमरण अनशन पर बैठे तब जाकर कई दिन बाद स्थिति शांत हुई। उसमें गांधीजी की भूमिका को लेकर हिंदू पक्ष बहुत सवाल उठाता है लेकिन उस विषय पर अभी बात नहीं करूंगा।
कोई नहीं रोक पाया दंगा
अब आप देखिए कि उस दौरान लगातार दंगे हो रहे थे। देश के पिछले सौ-दो सौ साल के इतिहास में उस समय जितने बड़े, जितने कद्दावर नेता थे उसके बाद कभी नहीं हुए, फिर भी वे हिंदू-मुस्लिम दंगा रोक नहीं पाए। 1945 से 1948 तक के तीन-चार साल के दौरान हिंदू-मुस्लिम दंगों में जितने लोग मारे गए उतने आजादी के 75 साल में भी नहीं मारे गए। इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि कितना भीषण दंगा हुआ था। दंगों की लंबी श्रृंखला है। बंटवारे के दौरान जो लोग मारे गए, उसके अलावा लाखों लोग मारे गए, करोड़ों बेघर हुए कोई रोक नहीं पाया। 9 दिसंबर को संसद का सत्र शुरू हुआ। जवाहरलाल नेहरू ने अपने सचिव के जरिये लियाकत अली को सरकार में शामिल होने का संदेश भिजवाया। जिन्ना और पूरी मुस्लिम लीग ने इस बात को मुद्दा बना लिया कि यह हमारा अपमान है। नेहरू ने खुद निमंत्रण देने की बजाय अपने सचिव के जरिये निमंत्रण भिजवाया। इसके बाद जब बजट आया तो कांग्रेस में बड़ी बेचैनी थी। नेहरू ने मथाई से कहा कि इस बजट की समीक्षा करो और निकालो कि क्या-क्या गड़बड़ है। मथाई ने उस बजट की समीक्षा की और कहा कि कुछ गड़बड़ नहीं है- इसके खिलाफ कुछ नहीं बोल सकते- तो फिर कांग्रेस पार्टी ने तय किया कि एक ही रास्ता है कि इस बजट को पास न होने दिया जाए लेकिन वायसराय ने ऐसा करने नहीं दिया। वायसराय ने नेहरू से कहा कि आगे भी आपको मौका मिलेगा लेकिन ये नहीं होने देंगे। यहां तक आते-आते वायसराय वेवेल मुस्लिम लीग के पक्ष में जाते हुए साफ-साफ दिख रहे थे। यह पता चल गया था कि वे नेहरू और कांग्रेस पार्टी के पक्ष में नहीं हैं। ये जो दिख रहा था कि वे नेहरू और कांग्रेस का पक्ष ले रहे हैं लेकिन दरअसल वे मुस्लिम लीग का पक्ष ले रहे थे। कांग्रेस यहां फिर मात खा गई। वह वेवेल के तौर-तरीकों को, उनके इरादों को भांप नहीं पाई।
जिन्ना की मंशा हुई पूरी
तब कांग्रेस पार्टी ने लंदन संदेश भिजवाया कि वेवेल को वापस बुला लिया जाए और उनकी जगह कोई नया वॉयसराय नियुक्त किया जाए। वेवेल की और भी शिकायतें आ रही थी। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉन एटली, वेवेल के काम से संतुष्ट नहीं थे। उनका मानना था कि वे बहुत प्रोएक्टिव नहीं हैं, फैसला लेने में जल्दी नहीं करते हैं। इन सबको देखते हुए 20 फरवरी, 1947 को एटली ने घोषणा की कि अगस्त 1947 में ब्रिटेन भारत छोड़ देगा और भारत को आजादी मिल जाएगी। इस घोषणा के साथ ही लॉर्ड माउंटबेटन को भारत का नया वॉयसराय घोषित कर दिया गया। उनके वायसराय बनने की घोषणा के कारण ही मुस्लिम लीग और कांग्रेस पार्टी की अंतरिम सरकार गिरने से बच गई थी। सरदार पटेल धमकी दे चुके थे कि या तो मुस्लिम लीग के मंत्री सरकार से इस्तीफा दें या फिर कांग्रेस पार्टी सरकार से निकल जाएगी। माउंटबेटन के वायसराय बनने की घोषणा से अंतरिम सरकार गिरने से बच गई लेकिन जिन्ना जो-जो चाहते थे वह उन्होंने कर लिया। लॉर्ड माउंटबेटन के आने के बाद भी भारत का विभाजन रुका नहीं और उसमें एक तरह से वे सहायक हो गए। कांग्रेस पार्टी की तुलना में राजनीतिक रूप से जिन्ना ज्यादा चतुर नजर आए। उनका जो लक्ष्य था उन्होंने हासिल कर लिया। कांग्रेस का लक्ष्य था भारत का विभाजन न हो। गांधी सहित कोई भी नेता इसे रोक नहीं पाया।
इतिहास से सबक लेना जरूरी
यह थी भारत के विभाजन से पहले की कहानी। इसमें आपको बहुत कुछ दिखेगा। इसमें आपको दिखेगा कि उस समय जब इतने बड़े-बड़े कद के नेता थे- महात्मा गांधी जैसा व्यक्तित्व था- तब भारत में हिंदू-मुस्लिम संबंध कैसे थे। मैं बार-बार यह बात कहता हूं कि इतिहास की किताबों में लिखा है कि जिन लोगों ने पाकिस्तान बनाने की मांग की उनमें से ज्यादातर मुसलमान पाकिस्तान गए ही नहीं। वे यहीं रुक गए क्योंकि वे ऐशो-आराम के आदी थे, उनका जीवन यहां जिस तरह से चल रहा था यहां से जाने के बाद वहां क्या होगा पता नहीं इसलिए कौम के लिए पाकिस्तान मांग रहे थे और अपने निजी हित के लिए पाकिस्तान नहीं गए। कांग्रेस पार्टी इसे समझ नहीं पाई। मुझे लगता है कि यह इतिहास की सबसे बड़ी गलती थी जिसका खामियाजा आज हम भुगत रहे हैं। जो पाकिस्तान की मांग कर रहे थे उनको पाकिस्तान भेजा जाना चाहिए था। इतिहास को अब बदला तो नहीं जा सकता लेकिन इतिहास से सबक लेना जरूरी होता है। जो इतिहास से सबक नहीं लेते हैं वे इतिहास के कूड़ेदान में जाने के लिए तैयार रहते हैं।