प्रदीप सिंह।
कभी-कभी जीवन में होता है- व्यक्तियों, संगठनों और राष्ट्र के जीवन में भी होता है। एक छोटी सी गलती हो जाने पर, उसका पछतावा बहुत लंबे समय तक होता है। क्या उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले जिन्ना का मुद्दा उठाकर अखिलेश यादव ने वो गलती कर दी है? लग ऐसा ही रहा है। अब उसका पछतावा उन्हें कब तक होगा, कितना होगा, ये सब तो चुनाव नतीजे आने के बाद पता चलेगा, लेकिन उसके संकेत मिल रहे हैं।
शिखर पुरुष हाशिये पर
आप देखिए कि जिन्ना की तारीफ करके कौन-कौन से लोग क्या थे और उनका क्या हश्र हो गया। यह जानने के लिए अब बहुत पुराने इतिहास और अतीत में नहीं जाते हैं। भारतीय जनता पार्टी की ही बात कर लेते हैं। लालकृष्ण आडवाणी जिन्ना की मजार पर गए और उनके बारे में अच्छी बातें लिखीं। उनको सेकुलर बताया और लौटकर आए तो उन्हीं की पार्टी के उन नेताओं ने, जिनको उन्होंने उंगली पकड़कर चलना सिखाया था, उनके खिलाफ अभियान शुरू किया। पार्टी के पार्लियामेंटरी बोर्ड में उनके खिलाफ निंदा प्रस्ताव पास हुआ। उसके बाद उनको आखिरकार अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा। और… उसके बाद क्या हुआ? आप सबको मालूम है कि जिस पार्टी को खड़ा करने में उनका इतना बड़ा योगदान था, उस पार्टी में उनका राजनीतिक जीवन हाशिये पर चला गया। भीष्म पितामह होते वो पार्टी के- 2014 में सरकार आने के बाद जब 2017 में राष्ट्रपति बनाने का मौका आया तो राष्ट्रपति हो सकते थे, उपराष्ट्रपति हो सकते थे- नहीं हो पाए।
जसवंत को बीजेपी से निकाल दिया
दूसरा उदाहरण हैं जसवंत सिंह, जो 1977 में जनता पार्टी से आए। उसके बाद जब पार्टी जनता पार्टी से अलग हुई और भारतीय जनता पार्टी बनी, तब से लगातार बीजेपी के साथ रहे- महत्वपूर्ण पदों पर रहे- सीसीएस के मेंबर रहे, विदेशमंत्री और रक्षामंत्री रहे, पार्टी के उपाध्यक्ष व महामंत्री रहे, प्रवक्ता भी रहे। इन सब पदों पर रहने के बावजूद उन्होंने एक किताब लिखी, जिसमें जिन्ना की प्रशंसा की, बचाव किया और उनको पार्टी से निकाल दिया गया। तो इन जिन्ना के प्रशंसकों का ये हश्र क्यों हुआ बीजेपी में? बीजेपी को मालूम था कि इसका चुनावी नुकसान कितना बड़ा होने वाला है। क्योंकि इस देश के लोग जिन्ना को एक हीरो के रूप में या जिन्ना के प्रति किसी भी तरह की सहानुभूति को कभी बर्दाश्त या पसंद नहीं करेंगे- इसीलिए यह हुआ।
भारी पड़ेगी यह गलती
इसके बावजूद अखिलेश यादव को जिसने भी सलाह दी हो- उन्होंने जिन्ना की तारीफ की और एक ही सांस में गांधी, नेहरू और पटेल के साथ जिन्ना का नाम लिया और बताया कि देश की आजादी के आंदोलन में उनका भी बड़ा योगदान रहा है। तो उसके बाद से क्या हुआ? बीजेपी हमलावर हुई। बाकी पार्टियां जो वैसे सेकुलरिज्म (धर्मनिरपेक्षता) के नाम पर, समाजवादी पार्टी के बचाव में खड़ी होती थीं, उनको थोड़ी हिचकिचाहट हुई। हालांकि किसी ने समाजवादी पार्टी का विरोध नहीं किया, लेकिन बचाव करने के लिए उस तरह से आक्रामक रूप से भी सामने नहीं आईं- उसका असर ये हुआ। तीसरा, अब जिस तरह से बीजपी ने इसको राष्ट्रवाद के मुद्दे से जोड़ने का फैसला किया है, उसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कूद पड़ा है- उससे आपको अंदाजा लगेगा कि अखिलेश यादव को उनकी यह गलती कितनी भारी पड़ने वाली है।
राष्ट्रवाद की अलख
झांसी की रानी की जन्म-जयंती 19 नवंबर से 16 दिसंबर (1971 में जिस दिन भारतीय सेनाओं की विजय हुई थी, बांग्लादेश बना था, पाकिस्तान की सेना ने सरेंडर किया था वो विजय दिवस) तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने उत्तर प्रदेश के हर जिले में और ब्लॉक लेवल तक राष्ट्रवाद की अलख जगाने की शुरुआत की है। इस दौरान प्रभात-फेरी निकाली जाएंगी, वंदेमातरम का गायन होगा, सभाएं-सेमिनार होंगे। लोगों को देश के लिए शहीद होने वालों और कुर्बानी देने वालों के बारे में बताया जाएगा और नई पीढ़ी को राष्ट्रवाद से जोड़ने की कोशिश की जाएगी। जो लोग जुड़े हैं, उनको फिर से और मजबूती से जोड़ने की कोशिश की जाएगी। इसमें कुछ भी नकारात्मक नहीं है, जिसका विरोध बीजेपी के विरोधी दल कर सकें। सामाजिक स्तर पर इस समय जो देश में माहौल है, उसमें राष्ट्रवाद की बात करने पर उस तरह का प्रतिरोध और विरोध सामने नहीं आता, जो कुछ साल पहले तक आता था।
अगर बयान से पीछे हट जाते अखिलेश…
इससे आप अंदाजा लगाइए कि अखिलेश यादव ने जो बोला-कहा और जिस पर वो कायम रहे, अगर वो उससे पीछे हट जाते तो शायद उनके लिए बचाव का रास्ता होता या उनको उतना नुकसान नहीं उठाना पड़ता। अखिलेश यादव के बाद, उनके सहयोगी दल के नेता ओमप्रकाश राजभर ने जो बात कह दी, इन सबको मिलाकर अब बीजेपी और आरएसएस मिलकर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के खिलाफ एक मौहाल बनाने की कोशिश करेंगे। केवल जिन्ना की बात नहीं है- 2012 में सत्ता में आने और मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश यादव ने जिस तरह से आतंकवाद और बम ब्लास्ट के आरोपियों के खिलाफ मुकदमे वापस लेने की भरपूर कोशिश की- वह भी सबको याद है। अगर अदालत बीच में न आती तो वे मुकदमे वापस हो जाते। उनके समय-समय पर ऐसे तत्वों के समर्थन में बयान, उसके अलावा अभी अफगानिस्तान में तालिबान जो कुछ कर रहा है, उसके समर्थन में समाजवादी पार्टी के बड़े नेताओं का बयान- ये सब मिलाकर माहौल बनाते हैं कि जिन्ना की प्रशंसा करके समाजवादी पार्टी देश के लिए अपनी जान की आहुति देने वाले शहीदों का अपमान कर रही है। समाजवादी पार्टी उन लोगों का समर्थन करती है जो निर्दोष लोगों को मारने वाले आतंकवादी हैं- पर उस सेना का नहीं, जो अपनी जान की कुर्बानी देकर देश की रक्षा करती है। सेना की सर्जिकल स्ट्राइक हो, चाहे बालाकोट की एयर स्ट्राइक हो- समाजवादी पार्टी ने दोनों की आलोचना की थी और सवाल उठाए थे।
विकासवाद से राष्ट्रवाद की नयी थीम
राष्ट्रवाद एक ऐसा मुद्दा है जो चुनाव में छाया रहेगा। विकासवाद से राष्ट्रवाद- ये बीजेपी की नई थीम है उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की। प्रधानमंत्री ने पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे का अभी उद्घाटन किया है, उसमें भी आपको ये दोनों तत्व नजर आएंगे। प्रधानमंत्री का एयरफोर्स के सी130 हैरियर विमान (मालवाहक जहाज) से उतरना। आज तक कोई प्रधानमंत्री सेना के मालवाहक जहाज में नहीं बैठा है। उसमें आना और वहां हुआ एयर शो। इससे लोगों के मन में राष्ट्रवाद, देश की सुरक्षा- इन सब भवनाओं का एक संदेश जाता है, जो प्रधानमंत्री ने देने की कोशिश की। केवल पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे की बात नहीं की। उनके लिए पूर्वाचल एक्सप्रेस-वे हो या बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे जो बन रहा है या गंगा एक्सप्रेस-वे जो बनने वाला है और तमाम राज्य सरकार की योजनाएं, केन्द्र सरकार की योजनाएं- सभी विकास से राष्ट्रवाद का दर्पण हैं। दरअसल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले सात साल में एक इंस्पिरेशनल क्लास तैयार की है। जो गरीब वर्ग हैं वो- उसमें अति पिछड़े भी आते हैं- सवर्णों में जो गरीब हैं वो भी आते हैं- दलित वर्ग भी है- उसमें मुसलमानों का गरीब तबका भी है- इसमें कोई भेदभाव नहीं किया गया। इन सबको सरकारी योजनाओं का भरपूर और पारदर्शी तरीके से फायदा पहुंचाया गया। यह ठीक है मुसलमान बीजेपी को वोट नहीं देंगे, लेकिन जो बाकी जातियां और वर्ग हैं, उनमें ये भावना तैयार हुई है कि अगर बीजेपी को, मोदी को वोट देने की बात हो तो वो अपनी जातीय अस्मिता को कुछ समय के लिए अलग रखकर वोट दे सकते हैं। वो इसलिए वोट दे सकते हैं कि उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन, बदलाव आ रहा है। तो ये जो क्लास है, जो मोदी के कारण, उनकी नीतियों और कार्यक्रमों के कारण बीजेपी से जुड़ी है- इसको उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने और मजबूत किया है।
एक नया मतदाता वर्ग बनाया बीजेपी ने
वन डिस्ट्रक्ट वन प्रोडक्ट- ये कोई उद्योगपतियों के लिए चलाया गया कार्यक्रम नहीं था। हर जिले में जो कलाकार हैं चाहे वो किसी भी विधा के हों, जो हुनरमंद हैं, कारीगर हैं उनको एक प्लेटफार्म देना उनको हर तरह की मदद देना- आर्थिक मदद, औजार, दूसरी चीजों की मदद और उनको बाजार उपलब्ध कराना- उस सबसे उत्तर प्रदेश का निर्यात बढ़ा है। ये सब चीजें, जिनमें केन्द्र सरकार की भी योजनाएं हैं जिनसे लोगों को फायदा हुआ है। घर से लेकर शौचालय और उज्ज्वला योजना तक तमाम योजनाएं हैं, किसान सम्मान निधि है- इन सबके कारण बीजेपी ने एक अलग तरह का मतदाता वर्ग तैयार किया है। उसमें जब राष्ट्रवाद जुड़ता है तो उसकी ताकत और बढ़ जाती है। राष्ट्रवाद के जुड़ने से जो जातीय अस्मिता की राजनीति है, वो और कमजोर पड़ती है। तीन चीजें उसे कमजोर करती हैं- एक ये जो महत्वाकांक्षा का जो दौर चलाया है नरेंद्र मोदी ने वो और दूसरा धर्म, तीसरा राष्ट्रवाद। तीनों जब मिलते हैं तो एक अलग तरह का कॉम्बिनेशन बनता है, एक अलग तरह के मतदाता समूह का निर्माण होता है, जिसकी नजर में बीजेपी के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है। यही कारण है कि 2014, 2017, 2019 में भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश में बड़ी जीत हुई। यही कारण है कि इस मतदाता वर्ग ने अभी तक बीजेपी को छोड़ा नहीं है और छोड़ने का कोई संकेत भी नहीं दिया है। चाहे समाजवादी पार्टी हो, बहुजन समाज पार्टी हो, कांग्रेस हो, आरएलडी हो- चारों पार्टियों में से किसी पार्टी ने कोशिश भी ज्यादा नहीं की और यह हुआ भी नहीं है कि उनके साथ कोई नया सामाजिक वर्ग जुड़े। चाहे वो जाति के आधार पर हो, धर्म के आधार पर हो या फिर उनके किसी काम के आधार पर हो- बल्कि उनके काम के कारण लोग नजदीक आने की बजाय दूर ज्यादा हो रहे हैं ।
दिलचस्प चुनाव
उत्तर प्रदेश का चुनाव जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, वह ज्यादा रुचिकर होता जा रहा है। राजनीतिक दृष्टि से जो लोग चुनाव का राजनीतिक अध्ययन करना चाहते हैं उनकी दृष्टि से बहु-आयामी होता जा रहा है, उसमें नये-नये आयाम जुड़ते जा रहे हैं। यह जो आरएसएस शुरू करने जा रहा है, निश्चित रूप से इसका बीजेपी को अगले विधानसभा चुनाव में बड़ा फायदा होने वाला है। बीजेपी को ये मौका दिया है अखिलेश यादव ने अपने एक बयान से। और हो सकता है 2022 के चुनाव के नतीजे जब आएं तो अगर अखिलेश यादव को सबसे ज्यादा अफसोस होगा- तो अपने इस एक बयान पर।