डॉ. मयंक चतुर्वेदी

देश में एक बार फिर  यूनिफॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) को लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है ।  ‘आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ जिस प्रकार से अपनी छोटी मानसिकता का परिचय दे रहा है, उससे साफ समझ आ रहा है कि वह भारत के तमाम मुसलमानों को गुमराह करने के कार्य में लगा है । कहना होगा कि‍ आज कहीं ना कहीं यह संस्था भारत में मुसलमानों को इस्लाम के नाम पर मजहब को ऊपर रख देश को तोड़ने का कार्य कर रही है ।वस्‍तुत: ऐसा कहने का ठोस कारण यह है कि आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना सैयद राबे हसनी नदवी की अध्यक्षता में हुई नदवातुल उलेमा बोर्ड की कार्यकारिणी बैठक में प्रस्ताव पारित कर मुसलमानों से यह आह्वान किया गया कि ”मुसलमान का मतलब अपने आपको अल्लाह के हवाले करना है, इसलिए हमें पूरी तरह शरीअत पर अमल करना है” इसके साथ ही बोर्ड सरकार से यह कहता है कि देश के संविधान में हर शहरी को अपने धर्म पर अमल करने की आजादी है, इसलिए वह आम नागरिकों की मजहबी आजादी का एहतराम करते हुए यूनिफॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता) का इरादा छोड़ दे । वास्‍तव में यह प्रस्‍ताव में लिखी बातें तो गलब ही हैं!  वह तो सीधे केंद्र सरकार को धमकी दे रहा है !

पर्सनल लॉ बोर्ड साथ में कह रहा है, ”मुल्क में अगर भाईचारा खत्म हो गया तो मुल्क का इत्तेहाद पार हो जाएगा।  अगर नफरत के जहर को नहीं रोका गया तो ये आग ज्वालामुखी बन जाएगी और मुल्क की तहजीब, उसकी नेकनामी, इसकी तरक्की और इसकी नैतिकता सब को जलाकर रख देगी।” अब इनसे कोई पूछे, कौन फैला रहा है नफरत ?  ”मध्‍य प्रदेश, उत्‍तर प्रदेश, झारखण्‍ड, महाराष्‍ट्र, जम्‍मू-कश्‍मीर” आज आप भारत के किसी भी कौने में चले जाएं वहां ” सर तन से जुदा” के नारे कौन लगा रहा है? और सिर्फ ये नारा लगाया ही नहीं जा रहा, जो कहा गया उस पर अमल करते हुए अब तक पता नहीं कितने लोगों के ” सर तन से जुदा” कर भी दिए गए हैं । कोई इनसे पूछे कि जो यह प्रस्‍ताव पास कर रहे हैं, वह देश तोड़ने का नया फरमान तो नहीं ?

बोर्ड के महासचिव मौलाना खालिद सैफ उल्लाह रहमानी कह रहे हैं,  धर्मांतरण को लेकर बनाए गए विभिन्‍न राज्‍यों के कानूनों को तुरंत वापिस लिया जाए।  हमारे संविधान में हर नागरिक को किसी धर्म को अपनाने और धर्म का प्रचार करने की पूरी आजादी दी गई है, लेकिन वर्तमान में कुछ प्रदेशों में ऐसे कानून लाए गए हैं, जो नागरिकों को इस अधिकार से वंचित करने की कोशिश है जोकि निंदनीय है, लेकिन उनसे कोई यह अवश्‍य पूछे कि धर्मांतरण के लिए संविधान ने नहीं कहा है, लालच देकर, भय दिखाकर लोगों के ईमान को बदल देने को संविधान कानून से रोकने की बात कहता है। सदियों से भारत में लालच और भय से कौन धर्म बदलवाने में संलिप्‍त है?  यह किसी से छिपा नहीं है। देश का विभाजन भी हो गया, आश्‍चर्य की बात है कि जिन लोगों ने देश तोड़ने में बढ़ चढ़कर हिस्‍सा लिया, जब विभाजन हुआ तो वे अधिकांश लोग नए बने पाकिस्‍तान में गए भी नहीं और स्‍वाधीनता आन्‍दोलन में बराबरी की हिस्‍सेदारी का अलाप करते हुए फिर से शेष भारत में आज भी मजहबी राजनीति कर रहे हैं।

हम सबको याद है कि 1948 में जब हिंदू कोड बिल संविधान सभा में पहली बार पेश किया गया, तब विरोध करने वालों ने इसका जमकर विरोध किया था, किंतु डॉ. भीमराव अंबेडकर अपने उद्देश्‍य से डिगे नहीं।  वे भारत की स्त्रियों को हर स्थिति में समान अधिकार दिलाने के लिए संकल्‍प‍ित थे। तत्‍कालीन कानून मंत्री अंबेडकर ने 5 फरवरी 1951 को हिंदू कोड बिल को संसद में दोबारा प्रस्‍तुत किया।  इसके बाद 17 सितंबर 1951 को चर्चा के लिए इस बिल को फिर संसद के पटल पर रखा गया।  संसद में विरोध के चलते प्रधानमंत्री नेहरू ने हिंदू कोड बिल को चार हिस्सों में बांट दिया, जोकि अंबेडकर जी को सही नहीं लगा और उन्‍होंने तत्‍कालीन प्रधानमंत्री नेहरू के इस प्रस्ताव के खिलाफ आहत होकर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा तक दे दिया था।

डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पारित करवाने को लेकर साफ कहा कि ”मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से अधिक दिलचस्पी और खुशी हिंदू कोड बिल पास कराने में है।” और आखिर 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट आया,  जिसके अंतर्गत तलाक को कानूनी दर्जा, अलग-अलग जातियों के स्त्री-पुरूष को एक-दूसरे से विवाह का अधिकार और एक बार में एक से ज्यादा शादी को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। फिर 1956 में ही हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू दत्तक ग्रहण और पोषण अधिनियम और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम देश में संवैधानिक नियमन से लागू हुए ।

कह सकते हैं कि ये सभी कानून महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए लाए गये थे।  इसके तहत पहली बार महिलाओं को संपत्ति में अधिकार और लड़कियों को गोद लेने पर जोर दिया गया। उस समय भी संसद का इस बात पर जोर था कि यह कानून सिर्फ हिन्‍दुओं के लिए नहीं भारत में रहनेवाले प्रत्‍येक नागरिक के लिए समान रूप से लागू हों। इस संदर्भ में इतिहास और संसद की बहसें देखी जा सकती हैं कि तत्‍कालीन कांग्रेस सरकार खासकर जवाहरलाल नेहरु इसके लिए तैयार नहीं हुए और यह कानून हिन्‍दुओं तक सीमित होकर रह गया।

उस समय विशेष रूप से  मुसलमान और ईसाईयों की जनसंख्‍या भी बहुत कम थी इसलिए ही यह भारतीय संसद द्वारा वर्ष 1956 में हिंदू व्यक्तिगत कानूनों (जो सिखों, जैनियों और बौद्धों पर भी लागू होते हैं) को संहिताबद्ध किया जाकर स्‍थ‍िर हो गया लेकिन वर्तमान समय में देश बहुत कुछ बदल चुका है। फिर जो भी आज यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध कर रहे हैं, उन्‍हें यह नहीं भूलना चाहिए कि संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता की चर्चा की गई है। राज्य के नीति-निर्देशक तत्‍व से संबंधित इस अनुच्छेद में कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा’।

समान नागरिक संहिता में देश के प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान कानून होगा, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो। अभी देश में जो स्थिति है उसमें सभी धर्मों के लिए अलग-अलग नियम हैं। मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का अपना-अपना पर्सनल लॉ है । जब एक देश, एक झंडा और एक विधान है तब इस तरह का विभेद ठीक नहीं। ऐसे में जरूरत है समान नागरिक संहिता की, जिसमें कि देश का प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति जिस प्रकार से वोट देने के लिए समान है, उसी प्रकार से कानून की नजर में समान रहते हुए एक समान अधिकारों एवं कर्तव्‍यों का पालन करने के लिए प्रतिबद्ध हो । इसलिए जितनी जल्‍दी देश में समान नागरिक संहिता लागू हो उतना अच्‍छा है। (एएमएपी)