गुजराती फिल्म ‘हेल्लारो
सत्यदेव त्रिपाठी ।
गुजराती का यह शब्द ‘हेल्लारो’ हिन्दी के हिलोरें का लगभग समानार्थी है। इनके ध्वनि-विपर्यय कर दिये जाएं, तो लहरें भी बन जाता है। और जब ये हिलोरें या लहरें उन्माद बनकर जीवन के सारे कटु अवरोधों को बहा ले जायें, तो उसी का नाम है – ‘हेल्लारो’।
66वें भारतीय फिल्म पुरस्कार समारोह में देश की सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के सम्मान से नवाजी गयी गुजराती फिल्म ‘हेल्लारो’ है तो मूलत: भारतीय समाज की रूढियों के ख़िलाफ, लेकिन लगती है कि पुरुष द्वारा नारी-उत्पीड़न की फिल्म।
बिना दिखाए काफी कुछ कह डाला
असल में उत्पीड़न तो फिल्म में है, पर नज़रों के सामने नहीं है – याने दृश्यों में नहीं के बराबर दिखाया गया है। हाँ, संकेतों में उजागर बख़ूबी किया गया है। लिहाजा दिखता नहीं, पर छाप गहरी छोड़ता है। और यही ‘हेल्लारो’ की फिल्मांकन-कला का सबसे सशक्त पक्ष है – फिल्म का जान-परान। विधा दृश्य है, पर बिना दिखाये क्या और और कैसे कह देना है, की वाजिब समझ व कौशल इसकी बडी ख़ासियत है। कुछ उदाहरण देखें- एक छोटी बच्ची सीता (पाप्ती मेहता) अपने पिता के साथ गरबा खेलने चलने को कहती है, तो पिता घूरते हुए जाते-जाते पत्नी से उसे समझा देने के लिए कहता है– याने स्त्रियों के गरबा करने के प्रतिबन्ध की क्रूरता दिखायी नहीं गयी, पर बेटी से कहने के लिए पत्नी से कहके पीढ़ी-दर-पीढ़ी असर का किस्सा बयान कर दिया गया। इसी तरह हंसा (एकता बछवानी) के गर्भ पर पति के लातों की ठोकरें दिखायी नहीं गयीं, पर हंसा की ज़ुबानी गाँव की स्त्रियों को बतवाया गया कि बच्ची गर्भ में लातों की चोटों से मरी है। संवाद में ही सर्वाधिक व्यंजक विधान वहाँ द्रष्टव्य है, जब फिल्म की पढ़ी-लिखी भावी नायिका मंजरी (श्रद्धा डाँगरे) व्याह के घर आती है और उसका फौजी पति अर्जन (अर्जव त्रिवेदी) पहली देखा-देखी में ही बड़े रोब से पढ़ाई के बारे में पूछता है और सातवें दर्ज़े तक की पढाई को ‘बहु केहवाय’ (बहुत ज्यादा है) बताते हुए धमकी देता है – ‘पढ़ने-लिखने से जो पंख व सींगें निकल आती हैं, उन्हें ख़ुद ही काट लेना, वरना हम काटेंगे, तो बड़ी पीड़ा होगी’। इसमें दृश्य-हिंसा से बचने के अलावा पंख के प्रतीक के जरिए कलात्मकता का दोहरा रचाव हुआ है। और तेहरा रचाव यूँ कि यह संवाद फिल्म की काफी शुरुआत में आता है। इसमें बड़ी ख़ूबसूरती से फिल्म के आगे की कथा के संकेत पिरो उठे हैं, जो साहित्य व सिनेमा-कला का ख़ूबसूरत व सनातन आयाम माना जाता है।
सटीक और मारक संवाद
यूँ सौम्य जोशी के संवाद इतने सटीक, मारक और संवादमयता से लबरेज़ हैं कि उनके साथ न्याय करने के लिए एक अदद आलेख की दरकार है। आगे चलकर पति की चेतावनी को नज़रअन्दाज़ करती हुई उस गाँव में स्त्रियों के गरबा-नृत्य पर लगे प्रतिबन्ध को तोड़ने की पहल मंजरी ही करती है – यानी उसके सींग तो नहीं, पर पंख निकले, जो भर गाँव की स्त्रियों में उग आये। सब की सब आकुल उडानें भरने लगीं – गरबा करने लगीं…. आकुल औरतें या ऐंग्री वीमेन! इनकी आकुलता जब खुलती है, तो फिर प्रताड़ना होती है – सबकी एक साथ अपने-अपने घरों में…। लेकिन दिखता नहीं वह भी। बन्द घरों से आवाजें भर आती हैं– दृश्य का श्रव्य कौशल। इस तरह औरतों के साथ होते पुरुष-अत्याचार का कुछ दिखता नहीं और इसे हिंसा नहीं कहा जा सकता – जैसा बखाना है मिस्टर बोर्डे ने। और इस पिटाई-दृश्य की प्रयुक्ति में तो हिंसा दिखाने से बचने के अलावा इस भितरघाव का बेहद सृजनात्मक उपयोग भी है।
रूढियां अक्सर बावस्ता होती हैं स्त्रियों से
फ़िलहाल तो बोर्डे सदृश लोगों से यह अर्थाना है कि मर्दों का स्त्रियों पर जो अत्याचार दिखाया भले न गया हो, पर बताया-सुनाया गया है, वह फिल्म का वास्तविक कथ्य नहीं है। यह तो कथ्य का गौण उत्पादन (बाइ प्रोडक्ट) है। असल में फिल्म पुरुषों के अत्याचार के विरुद्ध नहीं है, समाज में पैठी रूढ़ियों के खिलाफ है। लेकिन रुढ़ियां अक्सर बावस्ता होती हैं स्त्रियों से, जिसका उद्भव और विकास अपनी प्रकृति प्रदत्त्तता में ऐतिहासिक है। लिहाजा उनके पालन में पिसती स्त्रियां ही हैं। भोग वही बनती हैं। मंजरी कहती भी है एक जगह- ‘भोग भले बन गयीं, भाग नहीं बनेंगे’। भाग का अर्थ यहाँ कर्त्ता है– करने वाले, जो पुरुष हैं। वस्तुत: रूढ़ियों के निर्माता वे भी नहीं हैं, बल्कि कहीं न कहीं वे भी अज्ञान के चलते रूढ़ियों के पालन में प्रकारांतर से रूढ़ियों के शिकार बनते हैं।
एक दिन वह औरत भाग गयी
इसीलिए फिल्म के अंत में पुरुष पराजित या लज्जित नहीं होते – टूटती हैं रूढ़ियां। किंतु तोड़ने की चर्चा के पहले यह भी कह दूँ कि इन रूढ़ियों के बनने की प्रक्रिया भी पिरोयी गयी है फिल्म में, जिसे देखने की नज़र पैदा करनी होगी – ‘शौक़-ए-दीदार अगर है, तो नज़र पैदा कर’। गरबा की ही तरह औरतों के बुनाई करने पर भी बन्दिश है। यह वर्जना इस तरह बनी कि कभी इस गाँव की एक औरत अपनी बुनी वस्तुओं को चोरी-छिपे बेचने लगी, जबकि तब कला का व्यापार नहीं होता था। स्ंवाद है– ‘आपणे अइयां पैसा ना कमवाय। कमाइये तो बायडी बज़ार मां आवी गई केहवाय’ (अपने यहाँ औरत से पैसा नहीं कमवाते। औरत ने कमाना शुरू किया, मतलब बाज़ार घर में आया)। फिर सामान बाज़ार ले जाने वाले के साथ एक दिन वह औरत भाग गयी। तब से गाँव में औरतों की बुनाई बन्द– न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी!
इस तरह रूढ़ियां बनती-बढती रहीं
यही तरीका रहा लोक का। इसी तरह हर काम बन्द कर दिया जाता रहा और रूढ़ियां बनती-बढती रहीं। मेरे अपने गाँव में कार्त्तिक अमावस्या को नहीं, कार्त्तिक शुक्ल एकादशी को दीपावली मनायी जाती थी – दिठवन (गन्ना चूसने की शुरुआत) व देव-दीवाली के दिन, क्योंकि अमावस्या को गाँव का कोई अनिष्ट हो गया था। परिहार स्वरूप दीवाली के लिए उस तिथि का त्याग। ऐसे विधानों के चलते ही हमारी संस्कृति को शास्त्रीय शब्दावली में ‘वर्जनामूलक’ कहा गया। हिन्दू धर्म इसका बड़ा शिकार रहा– आज भी है। इसी का जो चरम रूप फिल्म में ग्रहीत है, वह सोद्देश्य रूप से गरबा-नृत्य है, जिसकी सोद्देश्यता गुजरात प्रदेश के चलते परिवेशपरक है। इसके लिए गुजरात के परिवेश पर बनती फिल्म में गरबे से बड़ा कोई माध्यम हो नहीं सकता था। वहाँ के जन-जन के मन-मन में, रोम-रोम में बसा है गरबा। फिर रूढ़ियों को तोड़ने के लिए फिल्म को जिस उन्माद की दरकार होती, उसके लिए गुजरात के अंचल में इससे बेहतर कुछ हो नहीं सकता था। सो, मेरे गाँव की दीपावली की तरह फिल्म के उस गाँव में यह मान्यता पैठ गयी कि सूखा पडने का याने बारिश न होने का कारण है – औरतों का गरबा करना। इसलिए उस पर कठोर बन्दिश लग गयी है। औरतों का गरबा करना वर्जित हो गया है। सांस्कृतिक वर्जना का एक नृशंस स्वरूप खड़ा हो गया है। तात्पर्य यह कि रूढ़ियों की ऐसी निर्मितियों में मूलत: जीवन-जगत की आपदाओं से बचने-बचाने के उद्यम निहित होते हैं। लेकिन कारण बनता है- शिक्षा व सोच का अभाव। यह एक ऐसा मनोविज्ञान है, जिसे उसकी तकनीकी शब्दावली में आद्य ग्रंथि (ऑर्केटाइप कॉम्प्लेक्स) कहा गया है– यानी ऐसी कुधारणायें पूरे समाज की होती हैं। इसी सामूहिक मनोवृत्ति के शिकार हैं फिल्म के गाँव के पुरुष भी। वस्तुत: कर्त्ता वे भी नहीं हैं। स्त्रियों पर बन्दिश लगाने की उनकी नीयत दर-असल उनकी नियति से परिचालित है।
पुरजोर कलात्मक कड़ी
लेकिन अब वैसी अशिक्षा व अन्धविश्वास न रहे। शिक्षा व सोच के अभाव में ये रूढ़ियां पैदा हुईं, तो उनके भाव में आज ये टूट रही हैं। हमारे गाँव की भी टूटी – अब अमावस्या को ही मनायी जाती है दीपावली। उस पर भी फिल्म बन सकती थी… लेकिन नहीं बनी, क्योंकि वहाँ फिल्म लिखने-बनाने वाला कोई अभिषेक शाह पैदा नहीं हुआ। उस अवसर पर वहाँ गीत-नृत्य जैसा कोई कलारूप नहीं नहीं रहा, जिसमें गरबा जैसी दीवानगी हो। गुजरात में गरबा-नृत्य का कलारूप होता तो क्या है, उसके बिना जीवन नहीं होता, रहना नहीं होता। सो, सौम्य जोशी ने वैसे गीत लिखे– दमित को खोलते हुए, कथ्य को कड़ी कड़ी में जोडते-पिरोते हुए। लड़कियाँ नाचीं, तो उसमें जान उडेल दिया। गज़ब की नृत्य-संरचना (कोरियोग्राफी) बनी। दिलक़श गायकी ने उसे लहका-लहरा दिया। कुल मिलाकर एक युति बनी। सबकी ख़ूबसूरत संगति बनी। ‘संगति ही सौन्दर्य है’ की मान्यता को सार्थक करती हुई। और इस सारी बन्दिशों को तोड़ने की एक पुरजोर कलात्मक कड़ी बन गयी फिल्म ‘हेल्लारो’, जो सिद्ध कर रही है कि जितने अच्छे से यह काम फिल्म कला कर सकती है, कोई और नहीं। इसने देश-काल के बन्धनों को भी तोड दिया है।
बेज़ा तक़ल्लुफ से बगावत
पूरी फिल्म ही ‘हर इक बेज़ा तक़ल्लुफ से बगावत का इरादा है’ का प्रतीक बन गयी है। अब इस सोपान पर यह प्रश्न भी बेमानी है कि ‘हेल्लारो’ को ब्रजवाणी नामक ढोल बजने की ख्याति वाले जिस कच्छ के इलाके पर आधारित किया- कहा गया है। 1975 के जिस कालखण्ड को सन्दर्भित किया गया है, उसमें कहीं कभी गरबा जैसी प्रथा पर रोक लगी थी या नहीं, सूखा पड़ा था या नहीं। यानी इसकी सचाई प्रवृत्तियों की है, इतिहास के आँकड़ों की नहीं। लेकिन उस समय को साक्षी बनाने का तरीका भी बेहद सहज ढंग से आता है, जिसमें राजनीतिक तथ्यों का व्यंग्यात्मक व सिनेमाई आयामों की कलात्मक प्रयुक्तियां देखते ही बनती हैं। उस वर्ष लगी ‘कटाकटी’ (इमर्जेंसी) को लेकर पंचायत में यूँ जिक्र होता है- ‘जब सरकार ही नहीं पहुँची इस गाँव तक, तो कटाकटी क्या पहुँचेगी’! और उस वर्ष बनी फिल्मों का प्रतिनिधित्त्व करने वाली ‘शोले’ और ‘बॉबी’ के साक्ष्य बड़े ही खिलन्दड़े अन्दाज़ में आते हैं। गाँव की नवचा (किशोर) टोली अपने एकांत में ‘कमरे में बन्द, और चाबी खो जाये’ और ‘छमिया के नाच’ का लार टपकाती हसरत भरा जिक्र करती है।
रतिया की कथा
पंचायत में सरकारी-तंत्र का नग्न यथार्थ है, तो नवचों की टोली में लोकजीवन का खाँटी और निछद्दम विनोदी रूप आया है। इसी तरह गवँईं परिवेश में पुरुष-स्त्री सम्बन्धों की गोपनीयता और उसकी चर्चा पर सख़्त मनाही के चलते ऐसी बातें आड़ में बड़े दिलचस्प ढंग से होती हैं। इसे साकार करते हुए फिल्म में नयी शादी की रातों के बाद हम-उम्र जवानों और जनानाओं के बीच गाढ़े प्रतीक-संकेतों में बडी बेबाक चर्चा नियोजित है। मंजरी से तो पानी भरने के समय ‘रतिया की कथा’ सुनने की बेकली के संकेत भर आते हैं, पर उसका फौजी पति अर्जन अपने दोस्तों में बड़ी शान से कहता है– ‘मैं तो बन्दूक की छह की छह गोलियां एक ही बार में दाग देना चाहता था, पर दुश्मन दो में ही ढेर हो गया’। आज के तथाकथित आधुनिक (मॉडेर्न) लोगों को ऐसे ख़ाँटी लोकजीवन का पता ही नहीं। सो अपने अनाडीपने में वे इसका लुत्फ़ नहीं ले पाकर इसमें भद्दई और मर्दवाद देख रहे हैं, जो नितांत दयनीय लगता है।
बदलाव की एक अनोखी बयार
‘हेल्लारो’ अभिषेक शाह की पहली फिल्म है – पहला प्यार। उसी तरह आयी भी है– ‘लेके पहला-पहला प्यार, भरके आँखों में ख़ुमार…’। यह ख़ुमार जिस शख़्स में आ गया, उसके जीवन को बदल देता है। यहाँ आँखों में ख़ुमार याने उन्माद पैदा करती अभिषेक की नज़र– दृष्टि कह लें, जिसकी ताज़गी का कमाल ये कि वह पूरे समाज को बदलने का बायस बन सकती है। ‘हेल्लारो’ पूरे सिने-जगत में भी बदलाव की एक अनोखी बयार लेकर आयी है। विशेषज्ञों ने उसे सराहा है, मान दिया है। अब रूढ़ि बनने की शब्दावली में कहें, तो फिल्म में आपदा है तीन सालों से पड़ा सूखा और समाज के अज्ञान से बनी रूढ़ियों का प्रतिनिधित्त्व हुआ है- स्त्रियों के गरबा खेलना बन्द कर देंने में, क्योंकि ग्रामीण-जनसमाज का विश्वास है कि इसी से शायद नाराज़ है मावडी – गाँव की कुलदेवी, जिसे गरबा कर-करके मनाते, खुश करना चाहते हैं पुरुष। मुखी (शैलेश प्रजापति) के शब्दों में हाथ जोड़कर, माथा नवाकर पूरा गाँव उससे बारिश लाने की गुहार करता है – ‘आ वरशे पाउस लावजे म्हारी मावडी’…(इस साल बारिश लाना देवि माँ)। ये मावणियां ही देश के समूचे जीवन की संचालिका रही हैं। यहाँ तो फिल्म की नियंता पात्र है – रूढिग्रस्त और रूढिमुक्त दोनो की कर्त्ता। बेजान, पर सबसे जानदार। बे-वजूद, पर सबसे प्रबल बा-वजूद।
प्रतिबन्ध को तोड़ने की कड़ी
इस रूढ़ि और प्रतिबन्ध को तोड़ने की कड़ी में अग्रदूत बनकर फिल्म में पहले व्याह के आती है मंजरी, जो कुछ पढी-लिखी है। फिर अन्य गाँव ‘बलेलिया’ से आता है – मुणजीभाई (जयेश मोरे), जो गरबा-नृत्य का कुशल ढोलकिया है। ख़ाँटी कलाकार और साथ ही इसी कला के चलते गरबा-प्रतिबन्ध की रूढ़ि की चरम त्रासदी का भुक्तभोगी। अति संक्षेप में फिल्मायी उसकी कथा ही ‘हेल्लारो’ की मूल कथा की प्राणवायु की संचारिका है। भाव में आकर बजती उसकी ढोलक और उसकी थाप पर निबिड आधी रात के आलोक में अनायास नाच पड़ी उसकी पत्नी मंगला व नन्हीं-मुन्नी बेटी रेवा। परिवार के मिले-जुले वाद्य-संगीत-धुन-नृत्य मे साकार हुआ था ‘बाढ़ बनकर फट पड़ते भावों’ (स्पॉण्टेनियस ओवरफ्लो) वाला कला-स्वभाव। कला को परिभाषित करते विलियम वर्ड्सवर्थ के इस कथन की प्रक्रिया को अभिषेक ने गोया व्यावहारिक परिणति में उतार दिया है और रूढ़ियों को तोड़ने की अपनी मुख्य बात को कहने का तोड़ बना दिया है। इसका भी जैसा ख़ूबसूरत उपयोग इस फिल्म में बिना कहे, करके दिखाने में हुआ है, अन्यत्र दुर्लभ है। लेकिन मुणजी-परिवार के इस देवोपम भाव व उच्छल कला-स्वभाव की त्रासदी का मंजर दरपेश होता है, जब अन्धविश्वास भरे अज्ञान के आवेश में स्त्री के न नाचने की प्रथा को तोड़ने के प्रतिकार व दण्डस्वरूप गाँव वाले जला देते हैं मुणजी भाई का घर– भस्म हो जाती हैं पत्नी-बेटी। और यह सब दृश्यों में दिखाके होता है, क्योंकि यहाँ मुक़ाबला सीधे-सीधे रूढ़ि से है – पुरुष-स्त्री वाले गौण उत्पादन से नहीं। मुणजी बच जाता है और घायल-लथपथ हुआ नीमबेहोशी की अवस्था में उसी रास्ते में पड़ा पाया जाता है, जिस रास्ते से होकर मंजरी व उसके गाँव ‘बाँढ’ की औरतें पानी लेने रोज़ आती-जाती हैं। रह-रह कर मुणजी की कराह सुनायी पड़ रही होती है- ‘पानी-पानी’, लेकिन ‘पर-पुरुष से बात तक न करने’ के जड़ नियम में बँधी स्त्रियां उस करुण पुकार को अनसुनी करते हुए चली जा रही होती हैं… कि अचानक मुड़कर मंजरी अपने घड़े का पानी पिला देती है। फिर उसकी ढोलक के बारे में पूछती है और ‘वगाडसो?’ (बजाओगे?) के रूप में पूछते हुए बजाने का इसरार भी कर देती है। पानी पिलाके जीवन देने की कतज्ञता के संक्षिप्त उल्लेख के साथ ढोल पर टंकार गूँजती है।
बात संकेतों में स्पष्टता से कही
बस, शुरू हो जाता है ‘स्त्रियों के गरबा पर बन्दिश’ की रूढ़ि को तोड़ने का वह सिलसिला, जिसके लिए बननी शुरू हुई थी फिल्म। फिल्म में काव्य-कलामयता ऐसी कि सिर्फ़ चारों गीतों से भी मुख्य विषय की पूरी बात संकेतों में स्पष्टता से कही जा सकी है। इसके लिए सौम्य जोशी की रचनात्मकता की जितनी सराहना की जाये, कम है।
गुजरात-राजस्थान आदि के भौगोलिक परिवेश की, प्राकृतिक स्थिति-गति की होनी का अनूठा प्रयोग करके अनहोनी सिने-रचना करते हैं। वरना उत्तर प्रदेश–बिहार आदि में न पानी का ऐसा संकट और न रोज़ घडे लेकर औरतों का पानी लाने पोखर व ताल-तलैया जाने की प्रथा। सो, कैसे मिलता फिल्म व इसकी स्त्रियों को वह आकाश और अवकाश (स्कोप व स्पैस) कि वे अपनी दमित इच्छाओं की एकांत व निर्द्वन्द्व पूर्त्ति अनायास कर पातीं! ‘हेल्लारो’ की सिने रचना में वैसे तो पूरी फिल्म में छायी है त्रिभुवन बाबो और सादी नेने की अद्भुत चलचित्रिकी (सिनेमेटोग्रैफी), लेकिन पानी के लिए जाने व लेके आने तथा वहाँ के गरबा नृत्य में पूरे खुले वातावरण को मिलाकर जो कमाल रच उठा है, वह तो अवर्णनीय है।
मुणजी के साथ दर्शकों का तादात्म्य
और अंजाम का डर सबको है – दर्शक को सबसे ज्यादा, क्योंकि अब तक मुणजी के साथ स्त्रियों का ही नहीं, इन सबके साथ दर्शकों का भी तादात्म्य हो चुका होता है। लेकिन अंजाम का आना तो तय है, अटाल्य है। सबको इसका पता भी है कि ‘बिन आये न रहे’! यह फिल्मकार की परीक्षा है। तो वह भी सोपान-दर-सोपान खेलता है- विषय के साथ, दर्शकता के साथ। अंजाम के आने को खेल बना देता है। प्रयोग करता है। अहटियाता (अन्दाज़ा लगाता) है। पहले सोपान पर विधवा केसर (वृन्दा त्रिवेदी) को गाँव की मर्द बिरादरी ने मजबूरी में पानी भरने जाने की इजाज़त तो दी, पर उससे बोलने की कठोर बन्दिश के साथ। लेकिन मंजरी की पहल पर सभी बोलने लगती हैं और कोई अशुभ नहीं होता– रूढियों की एक कली टूटती है। फिर दूसरा प्रसंग और भी प्रखर। गाँव में एक औरत चम्पा (कौशाम्बी भट्ट) को मरा हुआ बच्चा पैदा होता है… सबको ठकमुर्री मार जाती है- हो गया अनिष्ट! लेकिन खेल यह कि फिल्मकार इसे नाचने के पाप की कुधारणा के सीधे खण्डन का जरिया बना देता है। चम्पा ने ही खाँटी बात बताके स्त्रियों को विश्रांति दी– ‘तुम लोगों के नाचने के पाप से बच्चा नहीं मरा है, नज़दीकी प्रसव के समय बार-बार मना करने के बावजूद मर्द ने लातों से मारा, उससे मरा है’। इस तरह यथार्थ के दर्शन-निदर्शन से धीरे-धीरे इन मिथ्या धारणाओं की एक-एक कडी तोड़ते-टूटते सही चेतनता की ओर कदम-दर-कदम बढती जाती है फिल्म।
लिबास में एकरूपता, सबकी अलग पहचान भी कायम
लगभग बीस औरते हैं। एक ही गाँव के प्रचलन के मुताबिक उनके लिबास व बनाव में एकरूपता के बावजूद जिस तरह सबकी अलग पहचान भी कायम है, उसी तरह सामूहिकता के बावजूद कोई भूलती नहीं, भुलायी जा सकती नहीं। सबकी पहचान के अपने काम व अन्दाज़ हैं। अधिकांश को अपना व्यक्तित्त्व देने की फिल्म की कोशिश विरल रूप से कामयाब हुई है। मंजरी के रूप में श्रद्धा डांगरे को तो कथा ने ही मुख्य भूमिका अदा कर दी है, जिसमें हर बार हर काम की पहल करती मंजरी के रूप में श्रद्धा का अभिनय भी हलराती व डूबती-उतराती लहरों जैसा है। सब मिलाकर योजनाबद्ध रूप से शनै: शनै: एक ज़मीन तैयार की गयी है। फिर उसी वक़्त गरबा का पखवाड़ा– नवरात्र लाकर कथा-सूत्र को उत्कर्ष (क्लाइमेक्स) की तरफ ले जाने का विधान बनाना भी मौजूँ रूप में सधा है। इस अवसर के जरिये सारी औरतें मिलकर योजना बनाती हैं कि ढोल बजाने की कला के बल ढोलकिया के रूप में मुणजी को हमेशा के लिए गाँव में रखा दिया जाये। मुणजी से प्रस्ताव रखाती हैं, जिस पर चलती जाँच-पड़ताल के बीच भगलो पुन: अपनी प्रतुत्पन्न मति को उसी बातूनीपने से पेश करके प्रस्ताव मंजूर करा देता है।
सारी आकुलतायें सम पर
इस तरह हमेशा का बन्दोबस्त हो जाता है- रोज़ सुबह पानी भरने के समय ताल-किनारे मृदंग पर औरतों का गरबा और बाकी समय गाँव का ढोलकिया बनकर पूजा का गरबा। अब सारी आकुलतायें सम पर और आखिरी थाप के लिए सारे सरंजाम तैयार…तो अब गरबा का राज़ खुलना ही था। कारण बनता है– नाच करके पाप करने का वही सनातन अन्धविश्वास, जो डर बनकर सदियों से व्याप्त है। उस दिन पानी भरने जाने के ठीक पहले ही एक औरत के मायके से उसके भाई व पिता की अकस्मात मृत्यु की खबर आती है और वह सहसा टूट जाती है। सास को बता देती है कि यह उसी के गरबा नाच के पाप का फल है। फिर सास से पूरा गाँव सुनता है। उसी वक़्त पहुँचता है मंजरी-पति फौजी भी। तीन महीने की छुट्टी पर। और आनन-फानन में सब लोग धावा बोल देते हैं। नाचते हुए रँगे हाथों सब पकड़ी जाती हैं। तभी बनता है बन्द घरों में सबकी अलग-अलग पिटाई का वह दृश्य। फौजी याद भी दिलाता है- सींग़-पंख काट लेने की अपनी चेतावनी…, जिस पर अब अमल शुरू कर देता है। इस तरह रुआत के अंत में तब्दील होने की संगति भी बनती है। उधर मुणजी का सर काटने के लिए धार तेज हुई तलवार लिये तैयार मुखी… कि तब तक पुन: संकटमोचक बनकर भगलो ‘आइ गयउ हनुमान, जिमि करुणा मँह वीर रस’ – ‘अरे मरने वाले की अंतिम इच्छा तो पूछ लो’, की टेर लगाते हुए आता है। और यह पाँसा सारी बाज़ी पलट देता है। सच्चा कलाकार और क्या माँगेगा– अपनी कला के साथ संगति के कुछ पल। सो, भगलो माँग लेता है एक बार ढोलक बजा लेने की इच्छा। और ढोलक की थाप पर एक तरफ तो घुमड़ते हैं बादल और दूसरी तरफ वो होता है, जो सिर्फ़ कला और कला की जिजीविषा ही कर सकती है, जिसके लिए गीत में पहले ही कहा जा चुका है– ‘जेना हाथमां रमे छे मारा मन नी घुँघरिओ, जेना ढोलथी बजूके मारा पगनी बिजडियो ((जिसके हाथ में खेलते हैं मेरे मन के घुँघरू, जिसकी ढोल से चमकती है मेरे पैरों की बिजली)।
बह जाती हैं सारी रूढ़ियां-वर्जनाएं
और अब फिल्म के उपराम पर ऐसा हो जाता है। थाप सुन कर पिटी-कुटी-टूटी-फूटी औरतें अपने-अपने घरों से निकलना शुरू होती हैं और साथ ही पड़नी शुरू होती हैं बूँदें– चिरप्रतीक्षित साध पूरे अंचल की। धीरे-धीरे वर्षा-वाद्य-संगीत-नृत्य का उमड़ पडता है पारावार, जिसमें बह जाती हैं सारी रूढ़ियां-वर्जनाएं। न किसी को कुछ कहने की ज़रूरत पड़ती है, न सुनने की किसी को फुर्सत रहती है। अंतिम गीत आता है – ‘ठेक्या माँ थोरियो ठेकी में वाड’ (नागफनी को लाँघ गयी, नागफनी की बाड़ को लाँघ गयी)। इसमें गज़ब की संकल्पना-उद्भावना है कि पुरुष-स्त्री समूहों के नृत्य-दृश्य बारी-बारी से आते रहते हैं। और मुक्ति की प्रतीक पंक्तियां गीत-संगीतमय टेर लगाती हैं- ‘ढोज्या में ढोज्या ते दीधेला घूँट, हवे माँझी झाँझरीने बोलवानी छूट…’ (छलका दिये मैंने तुम्हारे दिये (ज़हर के) घूँट, अब है मेरे नूपुरों को बोलने की छूट) के प्रतीक में मुक्त होती हैं स्त्रियां रूढियों को मानने से… और पुरुष इन्हें लगाने से। यानी पूरा समाज मुक्त होता है, जो वस्तुत: कला का अंतरिम अभिप्रेत होता है। इस तरह ये हिलोरें (हेल्लारो) मुक्ति की हैं – रूढ़ियों-वर्जनाओं से मुक्ति की, पर ख़ास यह कि कला की जानिब से, कला के द्वारा और अफाट कलामयता के साथ। यह संतुलन भी कि प्रयोजन पर कला न हावी हो, न प्रयोजन तले दबे। यानी अभिषेक के पहले-पहले प्यार का वादा फिफ्टी-फिफ्टी!