प्रदीप सिंह।
उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का शनिवार 21 अगस्त को देर रात निधन हो गया। लखनऊ के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। देश भर से तमाम लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। लेकिन उत्तर प्रदेश के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों ने श्रद्धांजलि नहीं दी- मुलायम सिंह यादव और उनके पुत्र अखिलेश यादव। क्यों यहां इन दोनों का ही जिक्र किया गया है और इस श्रेणी में मायावती का नाम नहीं लिया गया- इसके विशेष कारण हैं।
जो मन में, वही जुबान पर
कल्याण सिंह दुनिया से जाते जाते बहुत से लोगों के चेहरे से नकाब उठा कर गए। जो धर्मनिरपेक्षता, पिछड़ों का मसीहा होने का दावा करते थे- सामाजिक समरसता, समाजवाद और गरीबों के उत्थान की बात करते थे- इनमें से बहुत से लोगों को कल्याण सिंह एक तरह से एक्सपोज करके गए। कल्याण सिंह बहुत बेबाक नेता थे। जो उनके मन में होता था वही जुबान पर। मन में कोई दुराव छिपाव नहीं था। उनकी पूरी राजनीति बहुत ही पारदर्शी थी। अपनी पसंद नापसंद कभी छुपाई नहीं। 1991 में पहली बार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने से पहले वह एक मंत्रिमंडल में मुलायम सिंह यादव के साथ मंत्री रह चुके थे। दोनों पिछड़ा वर्ग से आते थे। मुलायम सिंह- यादव समुदाय से थे और कल्याण सिंह- लोध समुदाय यानी अति पिछड़ा वर्ग से आते थे। जैसी कि अभी मांग चल रही है कि पिछड़ों की जातिगत जनगणना कराई जाए ताकि पता चल सके कि किसकी संख्या कितनी है। मालूम नहीं यह होगी या नहीं- यदि यह जनगणना होती है तो वह कल्याण सिंह जैसे नेता के लिए ज्यादा मुफीद होती। लेकिन मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, लालू प्रसाद यादव और तेजस्वी यादव के लिए तो यह बहुत महंगी साबित होने वाली है। लेकिन इस बारे में बात फिर कभी। अभी बात कल्याण सिंह की हो रही है।
पहली भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री
कल्याण सिंह 1991 में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की पहली सरकार के मुख्यमंत्री बने जिसे स्पष्ट बहुमत मिला। उस समय उत्तर प्रदेश का विभाजन नहीं हुआ था। उत्तराखंड नहीं बना था। राज्य विधानसभा में 425 सीटे थीं और भारतीय जनता पार्टी की 221 सीटें आई थीं। कल्याण सिंह अयोध्या आंदोलन के अग्रणी नेताओं में तो थे। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने पहला काम उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति को ठीक करने का किया। उस समय कानून व्यवस्था की स्थिति का आलम यह था कि अपहरण और फिरौती बाकायदा एक उद्योग का रूप ले चुका था। मुख्यमंत्री बनने के 6 महीने के भीतर कल्याण सिंह ने इस स्थिति को ठीक किया। उनके मंत्रिमंडल में राजनाथ सिंह शिक्षा मंत्री थे जो नकल विरोधी अध्यादेश लाए। यहां यह विषय नहीं है कि कल्याण सिंह ने क्या किया और अयोध्या आंदोलन में उनकी क्या भूमिका रही। यहां हम जिक्र कर रहे हैं कि किस तरह से देश में राजनीति और वोट बैंक की राजनीति ने समाज में रिश्तो को प्रभावित किया है। वोट बैंक की राजनीति से आशय अल्पसंख्यकों और खासकर मुसलमानों की राजनीति से है।
कोई दुश्मनी थी?
मुसलमान वोट लेने के लिए पार्टियां और नेता किस हद तक जा सकते हैं इसका उदाहरण है कल्याण सिंह की मृत्यु के बाद का घटनाक्रम। उनके निधन के बाद उनका पार्थिव शरीर लखनऊ में उनके सरकारी निवास और उत्तर प्रदेश भाजपा के मुख्यालय में रखा गया। उसके बाद उनके गृह जनपद अलीगढ़ के अतरौली में उनका अंतिम संस्कार किया गया। इन तीन जगहों में से कहीं भी मुलायम सिंह यादव या अखिलेश यादव उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने नहीं आए। क्यों नहीं आए? क्या उनमें कोई दुश्मनी थी? ऐसा नहीं है। 2009 में इन्हीं कल्याण सिंह का मुलायम सिंह यादव साथ ले चुके थे। दोनों पिछड़ों की राजनीति करते रहे। इस समय तो समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और बिहार की बात करें तो राष्ट्रीय जनता दल में होड़ है कि किस तरह से अति पिछड़े वर्गों को जोड़ा जाए। चुनाव जीतने और सरकार बनाने के लिए ‘टॉप अप’ की जरूरत है। उसके लिए इस समय बीजेपी के साथ मजबूती से खड़े अति पिछड़ा वर्ग के कुछ हिस्से को अपने पक्ष में लाना उनके लिए बहुत जरूरी है।
ताकि मुसलमान नाराज न हो जाएं
आज इस राजनीति पर मुसलमानों से प्रेम, तुष्टीकरण, मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति भारी पड़ी है। मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव में से कोई कल्याण सिंह के अंतिम दर्शन या उनके अंतिम संस्कार में सिर्फ इसलिए नहीं आया कि उनको लगा इससे मुसलमानों में गलत संदेश जा सकता है। मुसलमान नाराज हो सकते हैं। गौर कीजिए कि जो व्यक्ति दुनिया से जा चुका- जो अब आपका कोई नुकसान नहीं कर सकता- उसके साथ आपने क्या किया? मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री रहते अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाई और दशकों बाद उसको यह कहते हुए जस्टिफाई किया कि मुसलमानों का भरोसा जीतने के लिए यह जरूरी था। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस राजनीति को वे किस सीमा तक ले जाना चाहते हैं। मेरा मानना है कि देश में यदि अति पिछड़ों का कोई सबसे बड़ा नेता हुआ है तो वह कल्याण सिंह हैं। कल्याण सिंह ने अति पिछड़ों का नेता होते हुए भी साबित किया कि कैसे बाकी वर्गों को साथ लेकर चला जा सकता है। सवर्णों को सामाजिक समरसता बनाते हुए कैसे साथ लेकर चला जा सकता है- इसका वह सर्वोत्तम उदाहरण हैं। जो भी अति पिछड़ों की राजनीति करना चाहते हैं उनके लिए कल्याण सिंह एक नायक और एक मिसाल की तरह हैं। उनका अनुकरण करना चाहिए। सोचना चाहिए कि उन्होंने ऐसा क्या किया कि पिछड़े वर्गों का नेता होने के बावजूद उनको सवर्णों का भी उसी प्रकार समर्थन हासिल था। इन सब बातों पर विचार करने के बजाए उनको लगा अगर कल्याण सिंह के अंतिम दर्शन करने, श्रद्धांजलि देने के लिए गए तो मुसलमान नाराज हो जाएंगे इसलिए अच्छा है अपने घर में बैठे रहो।
इससे शर्मनाक और क्या
इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है। पर मामला यहीं पर नहीं रुका। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के कुलपति ने कल्याण सिंह के निधन पर शोक व्यक्त किया। इस पर विश्वविद्यालय परिसर में उनके खिलाफ पोस्टर लगे, नारे लगाए गए- कैंपस के आसपास सांप्रदायिक तनाव का वातावरण बन गया। ये किस समाज के लोग हैं जो जीवित कल्याण सिंह से तो डरते ही थे, उनके पार्थिव शरीर का भी उनके मन में इतना भय है। कल्याण सिंह ने कभी किसी का बुरा नहीं किया, किसी के खिलाफ बदले की कार्रवाई नहीं की। वह मंत्री रहे- मुख्यमंत्री रहे- भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे- उनकी गिनती पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं में होती थी। इसके बावजूद पार्टी तो छोड़िए, पार्टी के बाहर का भी कोई व्यक्ति नहीं कह सकता कि कल्याण सिंह ने किसी का बदला लेने के लिए उसका नुकसान किया हो। देखिए फर्क क्या है? कल्याण सिंह के सामने अगर कभी ऐसी स्थिति आती तो वह अवश्य जाते चाहे वह उनका घोर विरोधी या दुश्मन ही क्यों ना होता।
सिद्धांतों से समझौता नहीं
उन्होंने ईमानदारी और अपने सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया। हालांकि दूसरी बार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में सौ मंत्री बना दिए थे। मेरा मानना है कि यह उनका राजनीतिक रूप से एक गलत फैसला था जिससे उनकी छवि को नुकसान पहुंचा। लोगों के सामने उनका जो सिद्धांतवादी चेहरा था, उसको ठेस पहुंची। लेकिन उसके अलावा चाहे वह नीतियों-कार्यक्रमों का मामला हो या कोई और- उन्होंने किसी की नहीं सुनी और हमेशा सही का साथ दिया। उनकी अपनी पार्टी के लोगों ने भी अगर कोई ऐसी सिफारिश की जो गलत या गैरकानूनी थी- तो नहीं मानी और साफ़ कहा कि हम यह नहीं करेंगे। संघ के तमाम लोगों की सिफारिशें उन्होंने नहीं मानीं क्योंकि उनको लगा कि यह ठीक नहीं हैं। ऐसे नेता की मृत्यु के बाद इस तरह की राजनीति निश्चित रूप से उचित नहीं है।
अब नहीं चाहिए ब्राह्मण!
मुस्लिम वोट के बारे में एक पक्ष तो यह है। अब दूसरे पक्ष की बात करते हैं। हम सबने देखा कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में पिछले बीस पच्चीस दिनों से ब्राह्मणों को लुभाने की होड़ लगी थी। प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन हो रहा था ताकि ब्राह्मण उनके साथ आ जाएं। खासतौर से समाजवादी पार्टी के लोग यह कोशिश पहले भी कर चुके हैं और असफल हो चुके हैं। बहुजन समाज पार्टी को जरूर 2007 में ब्राह्मणों के कुछ वोट मिले थे जो उस समय भाजपा की स्थिति बहुत खराब होने के कारण मिले थे। आज कोई कारण नहीं है कि ब्राह्मणों का वोट भाजपा के बजाय किसी और पार्टी को जाए। लेकिन हर पार्टी अपना आधार बढ़ाने के लिए दूसरे वर्गों को लुभाने की कोशिश करती है और इसमें कुछ गलत भी नहीं है। लेकिन पिछले दो हफ्ते से बहुत सन्नाटा है। कोई प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन नहीं हो रहा- सपा, बसपा ब्राह्मणों को लुभाने की बात नहीं कर रहीं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने 2017 में अपने चुनाव अभियान की शुरुआत ब्राह्मण को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने से की थी- वह भी चुप है। इसकी वजह है। इन लोगों को एहसास हुआ है और ऐसा फीडबैक मिला है कि अगर ब्राह्मण आएगा तो मुसलमान चला जाएगा। मुसलमान को ब्राह्मण पसंद नहीं है। अतः इन सम्मेलनों पर अचानक ब्रेक लग गया है। अब कोई प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन कराने या ब्राह्मणों को जोड़ने की बात नहीं कर रहा।
मुस्लिम वोट की होड़
उत्तर प्रदेश की दो प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियों सपा और बसपा की स्थिति देखें तो उनमें मुस्लिम वोट के लिए होड़ है। मुस्लिम वोट पाने, मुसलमानों को खुश करने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। ध्यान रहे कि जब मैं मुसलमानों को खुश करने के लिए कहता हूं तो इसका आशय आम मुसलमानों से नहीं है। ये लोग आम मुसलमानों की ख़ुशी, उनके विकास, शिक्षा व रोजगार के लिए कुछ नहीं करना चाहते। तुष्टीकरण में आम मुसलमान नहीं आता। ये कुछ कठमुल्लों और मौलानाओं को खुश करने का प्रयास करते हैं जो मुस्लिम समाज के स्वयंभू नेता हैं। उनको लगता है कि अगर इनको साध लिया तो पूरी बिरादरी सध जाएगी। कम पढ़े लिखे होने से मुसलमानों को लगातार डराया जाता है। उनमें असुरक्षा का एहसास भरकर ऐसा परसेप्शन बना दिया गया है कि मुसलमानों को लगता है बीजेपी के खिलाफ वोट देना उनकी सुरक्षा की गारंटी है। इस कारण मुसलमान बीजेपी के खिलाफ सबसे ताकतवर पार्टी या उम्मीदवार को आंख बंद करके वोट दे देता है। हालांकि पिछले 74 सालों में इससे कुछ हासिल नहीं हुआ है उनको। बीजेपी विरोध के नाम पर मुसलमानों को डरा कर जिन पार्टियों को सत्ता मिली उन्होंने आम मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया। वरना उनकी यह दशा ना होती।
पब्लिक जान रही असलियत
हमारे सामने है कि कल्याण सिंह ने जाते-जाते समाजवादियों और पिछला वर्ग के नायकों के चेहरे से किस तरह नकाब हटा दिए। उन्हें सिर्फ और सिर्फ सत्ता चाहिए… और किसी भी कीमत पर चाहिए। यूं तो राजनीति में हर नेता और दल को सत्ता चाहिए और उसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार होता है। लेकिन हर चीज की एक सीमा- एक लक्ष्मण रेखा होती- जहां तक जाकर रुक जाना होता है। ऐसी कोई लक्ष्मण रेखा इनके लिए नहीं है। इनको समाज, प्रदेश, देश से से ही नहीं- बल्कि ये जिस वर्ग का नेता होने का दावा करते हैं उसके हित से भी- कोई मतलब नहीं है। मतलब सिर्फ एक बात से है कि कैसे हम फिर से सत्ताधारी बन जाएं। कल्याण सिंह ने जाते-जाते उत्तर प्रदेश के दो बड़े नेताओं के चेहरे से जो नकाब हटाई है, उसे जाहिर है प्रदेश की जनता देख रही होगी और उनकी असलियत समझ रही होगी।