मुख्यमंत्री पद से ही नहीं सत्ता से स्थाई विदाई।
प्रदीप सिंह।
दिल्ली की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन होने जा रहा है- बल्कि समझिए हो गया। अरविंद केजरीवाल पहली बार 2013 में कांग्रेस के समर्थन से चार महीने के लिए मुख्यमंत्री बने थे। फिर उसके बाद 2015 और 2020 के चुनाव में प्रचंड बहुमत से जीतकर मुख्यमंत्री बने थे। अरविंद केजरीवाल के अगर इन कार्यकाल की बात करें तो वो तीन बार मुख्यमंत्री बने। सिर्फ एक बार अपना कार्यकाल पूरा कर पाए। बाकी दो बार में एक बार चार महीने के लिए मुख्यमंत्री रहे। और इस बार लगभग साढ़े चार साल वह मुख्यमंत्री के पद पर रहे। उसमें से उनका 6 महीना जेल में गुजरा। तो कहां से चले थे (अन्ना आंदोलन से चले थे) और यहां तक पहुंचे।
अरविंद केजरीवाल का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा उनके राजनीतिक जीवन के अंत की शुरुआत है। उनकी मुख्यमंत्री पद से विदाई हुई है। मुझे लगता है कि जब भी चुनाव होंगे उनकी दिल्ली की राजनीति से विदाई होने वाली है। अक्सर आपने सुना होगा कि लोग दुर्घटनाओं के बारे में कहते हैं कि प्रारब्ध खींच कर ले जाता है। आप नहीं जाने वाले थे। कहीं अचानक आपका मन बदल गया। आप किसी फ्लाइट से जा रहे हैं और अचानक कोई व्यक्ति आ गया कि मेरी बड़ी इमरजेंसी है मुझे जाने दीजिए, अपनी जगह दे दीजिए। और लोग दे देते हैं। ऐसी बहुत सी घटनाएं दुनिया भर में आपने सुनी होंगी कि दुर्घटना स्थल पर अक्सर प्रारब्ध उस व्यक्ति को खींच कर ले जाता है। मुझे लग रहा है कि अरविंद केजरीवाल के साथ भी यही हुआ।
आतिशी का मुख्यमंत्री बनना अरविंद केजरीवाल के लिए शुभ संकेत नहीं है। यह ठीक है कि उन्होंने जो टाइमिंग सेट की, जो रणनीति बनाई, उसके हिसाब से सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि आतिशी कार्यकारी और कठपुतली मुख्यमंत्री रहें। लेकिन राजनीति में कभी-कभी बहुत छोटा सा कदम भी बहुत बड़ा असर डालता है और अरविंद केजरीवाल के साथ यही होने जा रहा है। उनके लिए अब मुख्यमंत्री पद पर लौटना मुश्किल होगा। हालांकि उन्होंने यह भी इंश्योर कर लिया है कि मुख्यमंत्री आवास में कोई ना जाने पाए। अरविंद केजरीवाल इस्तीफा देने के बाद मुख्यमंत्री आवास में रहेंगे कि नहीं रहेंगे- अभी स्पष्ट नहीं है। जो नियम है कानून है उसके मुताबिक नहीं रहना चाहिए। लेकिन आप मानकर चलिए कि आतिशी भी मुख्यमंत्री आवास में नहीं जाने वालीं। उनको बड़ा स्पष्ट कह दिया गया है कि चुनाव तक के लिए आप कार्यकारी मुख्यमंत्री हैं। तो कोई कंफ्यूजन नहीं है। कोई इस तरह की अनिश्चितता नहीं है कि चुनाव के बाद क्या होगा। अगर आम आदमी पार्टी जीतती है तो आतिशी मुख्यमंत्री नहीं होंगी यह तय है।
चुनाव में सबसे बड़ी बात होती है नैरेटिव की। अरविंद केजरीवाल को इसका मास्टर माना जाता है। लेकिन जब बुरे दिन आते हैं तो अच्छे से अच्छा रणनीतिकार फेल होने लगता है। वही अरविंद केजरीवाल के साथ हो रहा है। शराब घोटाले में उनकी गिरफ्तारी हुई। उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। उनको लगा कि ये उनका मास्टर कार्ड है। मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे तो उनके लिए आसानी होगी। जेल से जल्दी छूट जाएंगे। हो सकता है उनके वकीलों ने उम्मीद दिलाई हो। लेकिन उनके मास्टर कार्ड लगातार फेल हो रहे हैं। लंबा समय जेल में बिताना पड़ा अभी जब रेगुलर बेल दी है तब भी सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि मुख्यमंत्री के रूप में काम नहीं करेंगे। अरविंद केजरीवाल पिछले छह महीने से ज्यादा समय से दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में काम नहीं कर रहे हैं।
औपचारिक रूप से भले ही केजरीवाल मुख्यमंत्री पद से अब हट रहे हों लेकिन व्यावहारिक रूप से देखें तो वह मुख्यमंत्री पद से पहले ही हट चुके हैं या कहें कि मुख्यमंत्री के दायित्व से पहले ही मुक्त हो चुके हैं। अब सवाल यह है कि अरविंद केजरीवाल क्या संदेश देना चाहते हैं? क्या नैरेटिव बनाना चाहते हैं? उनके लोगों की अगर मानें तो वह इस इस्तीफे के जरिए और कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनाकर यह संदेश देना चाहते हैं कि वह सत्ता से चिपके नहीं रहना चाहते। मैं कह रहा हूं इसका ठीक उल्टा संदेश जा रहा है कि आखिरी समय तक आप चिपके रहे, जब आपको लगा कि अब इसका बहुत ज्यादा नुकसान हो सकता है, एंटी इनकंबेंसी कई गुना बढ़ सकती है तब आपने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने का फैसला किया। अब आपके पास यह दावा करने की कोई मोरल कैपिटल (नैतिक पूँजी) नहीं रह गई है कि हमको सत्ता से मोह नहीं है। आप शराब घोटाले में जेल गए थे। किसी राजनीतिक आंदोलन में जेल नहीं गए थे। अन्ना हजारे के आंदोलन में जेल गए होते तो अलग बात थी, पर वो शराब घोटाले में जेल गए। उनके लोग कह रहे हैं कि यह संदेश दिया जा रहा है कि एक महिला को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है। दिल्ली में ऐसा तीसरी बार हो रहा है। सबसे पहले सुषमा स्वराज कुछ समय के लिए मुख्यमंत्री बनी थीं, उसके बाद शीला दीक्षित लगातार तीन टर्म मुख्यमंत्री रही और अब आतिशी बनने जा रही हैं। आतिशी के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले उनकी पार्टी ने तय कर दिया है कि उनका कार्यकाल कितना होगा? अरविंद केजरीवाल जो नैरेटिव बनाने की कोशिश कर रहे हैं उसमें किस तरह से पलीता।
पहली बात, आपने उतनी भी नैतिकता नहीं दिखाई जितनी हेमंत सोरेन ने या उससे पहले जो मुख्यमंत्री गिरफ्तार हुए चाहे लालू प्रसाद यादवहों, जयललिता हों- जो भी भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार हुआ उसने उसी समय इस्तीफा दे दिया। जेल जाने से पहले इस्तीफा देकर पूर्व मुख्यमंत्री के रूप में जेल गए। अरविंद केजरीवाल ने ऐसा नहीं किया। वह देश के पहले मुख्यमंत्री हैं जो मुख्यमंत्री के रूप में जेल में रहे। फिर भी वह हाई मॉरल ग्राउंड लेना चाहते हैं। दूसरी बात, उन्होंने दूसरा नया नैरेटिव बनाने की कोशिश है कि अपना पद यानी मुख्यमंत्री का पद महिला को सौंप दिया। तब लोगों के ध्यान में आता है आपने अपनी ही पार्टी की एक राज्यसभा सदस्य को मुख्यमंत्री के सरकारी आवास में अपने ही निजी सचिव से पिटवाया, हमला करवाया। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। बड़ी मुश्किल से अब जाकर उनके निजी सचिव विभव कुमार को बेल मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने विभव कुमार के खिलाफ बड़ी ही सख्त टिप्पणियां की है कि यह आदमी मुख्यमंत्री आवास में पहुंचा कैसे और इसकी इतनी हिम्मत कैसे हुई कि एक महिला सांसद के साथ इस तरह का बर्ताव करे। वह मुकदमा अभी चल रहा है। विभव कुमार बरी नहीं हुए हैं केवल अरविंद केजरीवाल की तरह उनको भी जमानत मिल गई। स्वाति मालीवाल के साथ जो हुआ वह मुकदमा चल रहा है उसमें जेल भले ही विभव कुमार गए हों लेकिन कटघरे में अरविंद केजरीवाल खड़े हैं। क्योंकि जिस दिन यह घटना हुई उस दिन अरविंद केजरीवाल अपने सरकारी आवास में मौजूद थे। अगर उनके जेल में रहते हुए यह घटना हुई होती तो वह अपने को इस घटना से अलग कर सकते थे लेकिन वो उस घर में मौजूद थे।
आम आदमी पार्टी के पास अब कोई नैरेटिव रह नहीं गया। अरविंद केजरीवाल के पास भी नहीं रह गया। जुआरी जब एक के बाद एक बाजी हारता जाता है तो एक समय ऐसा आता है कहता है कि आखिरी दांव खेलता हूं। सब कुछ दांव पर लगा देता हूं। अरविंद केजरीवाल ने सब कुछ दांव पर लगा दिया। मनीष सिसौदिया को तरीके से काट दिया। कायदे से केजरीवाल के बाद वो पार्टी और सरकार में भी नंबर दो थे। जेल से बाहर आ गए हैं। उनको मुख्यमंत्री का पद दे सकते थे, नहीं दिया क्योंकि उनको चुनाव के बाद हटाना बड़ा कठिन हो जाता। है। केजरीवाल को यह मालूम है कि चुनाव के बाद अगर पार्टी जीत गई तो आतिशी को हटाना आसान है। मनीष सिसौदिया को हटाना बड़ा मुश्किल होता। तो सब कुछ दाव पर लगाया है कि अगर 2025 के चुनाव में उनकी पार्टी जीतती है तो फिर से मुख्यमंत्री बन सकें। यह जनता है यह सब जानती है… सब कुछ देख रही है। उसको समझ में आ रहा है। आप क्या कर रहे हैं, नहीं कर रहे हैं- यह एक मसला है। असली मसला जो जनता की नजर में होता है, जिस पर जिस कसौटी पर आपको परखती है- वह वह होता है आपकी नीयत। लोगों को अरविंद केजरीवाल की नीयत में खोट नजर आने लगा है। जिस पर पहले शक नहीं होता था, वह झूठ भी बोलते थे तो लोग सच मान लेते- अब उनके सच को भी लोग सच मानने को तैयार नहीं। यह है उनकी राजनीतिक यात्रा! तो अरविंद केजरीवाल की मुख्यमंत्री पद से विदाई दरअसल उनकी राजनीति से विदाई है और मानकर चलिए कि उनके अच्छे दिन अब नहीं आने वाले।
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(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अख़बार’ के संपादक हैं)