व्योमेश जुगरान।
उत्तराखंड में फाल्गुन के इस मदमाते मौसम पर चुनावी तैयारी के रंग कुछ ऐसे बिखरे कि सियासी होल्यारों ने मुख्यमंत्री टीएसआर (त्रिवेंद्र सिंह रावत) का चेहरा बदरंग कर डाला। चुनावों से ठीक पहले लत्ते फाड़ने वाली होली सूबे की सियासत का स्थायी ‘खैला’ बन चुकी है। बेशक यह त्रिवेंद्र सिंह रावत और उनकी कोटड़ी के लिए किसी जलजले से कम न हो, मगर पहाड़ की नेतृत्वहीन और अभागी जनता के लिए नई बात नहीं है। वह इस राज्य की स्थापना के बीस सालों में दसवीं बार मुख्यमंत्री बदलता देख रही है। नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत हैं।
अनोखा संयोग
इस बार एक अनोखा संयोग भी बना है।अंग्रेजी के संक्षिप्त नामाक्षरों की जानिब से देखें मुख्यमंत्री की नेम प्लेट बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है पहले भी मुख्यमंत्री टीएस रावत (त्रिवेंद्र सिंह रावत) थे और अब भी मुख्यमंत्री टीएस रावत (तीरथ सिंह रावत) ही हैं।
भारतीय जनता पार्टी के प्रथम मुख्यमंत्री (कामचलाऊ) नित्यानंद स्वामी को फरवरी 2002 में चुनावों से ऐन पहले भगत सिंह कोश्यारी ने रिप्लेस किया। कोश्यारी फेल रहे और रंग जमाया, कांग्रेस के नारायण दत्त तिवारी ने। 2007 के चुनावों में भाजपा के कद्दावर नेता जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी ने ‘कांटों का ताज’ पहना और करीब ढाई साल बाद ही पार्टी आलाकमान ने उन्हें विदाई का फरमान पकड़ा दिया।
नाटकीय अंदाज
जुलाई 2009 में बेहद नाटकीय अंदाज में महत्वाकांक्षी रमेश पोखरियाल निशंक गद्दीनशीं हुए मगर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा होने के कारण उन्हें 2012 की चुनावी नैया पार लगाने लायक नहीं समझा गया और इसके लिए जनरल खंडूड़ी को दोबारा लाना पड़ा। खंडूड़ी पार्टी को जीत के मुहाने तक तो ले गए, मगर खुद अपना चुनाव गंवा बैठे। ताक में बैठी कांग्रेस ने जोड़तोड़ कर विजय बहुगुणा के नेतृत्व में सरकार बना ली। मगर बहुगुणा को भी अधबीच में चलता कर दिया गया और हरीश रावत का बरसों पुराना सपना पूरा हुआ। रावत के नेतृत्व में कांग्रेस 2017 का चुनाव बुरी तरह हार गई और लॉटरी लगी, भाजपा के त्रिवेन्द्र सिंह रावत की।
नेतृत्वहीनता का एक और प्रहसन
ताजा घटनाचक्र में चुनाव से पहले त्रिवेन्द्र सिंह रावत का इस्तीफा सीधे-सीधे उन माननीयों का ‘खैला’ है जो चुनावी नैया को डूबते देख ‘नई पतवार’ के सहारे पार लगना चाहते हैं। उन्हें पता है कि इस बार ‘मोदी मैजिक’ उनके काम नहीं आने वाला। कानोंकान तो यह है कि इस ‘खैला’ में कम से कम 30 विधायक शामिल थे जो दिल्ली को ‘डराने’ बनाने के लिए काफी थे। इधर चमोली, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा और बागेश्वर को मिलाकर गैरसैंण कमिश्नरी बनाने के इकतरफा निर्णय से कुमांऊ लॉबी की त्यौरिंयां पहले से चढ़ी हुई थीं, तिस पर महिला लाठीचार्ज जैसे विषयों के बहाने त्रिवेन्द्र सिंह रावत पर लक्ष्य साधना आसान हो गया। त्रिवेन्द्र सिंह रावत का चुपचाप समर्पण उत्तराखंड में नेतृत्वहीनता का एक और प्रहसन है। इस पर हंसे या रुआंसा हों।