हो सकता है आपने क्राँतिकारी वीर सुरेन्द्र साय का नाम भी न सुना हो
रमेश शर्मा ।
भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 की क्रांन्ति से सब परिचित हैं। लेकिन इससे पहले भी क्रांतियाँ हुईं हैं। यह अलग बात है कि उन क्रांतियों पर व्यापक चर्चा न हो सकी और इतिहास में उतना स्थान नहीं बना जितनी जाग्रति उन अभियानों में क्रान्तिकारियों ने की थी। फिर भी यहाँ वहाँ उनका उल्लेख है। शताब्दियाँ बीत जाने पर भी लोक जीवन की चर्चाओं में उनका उल्लेख है।
ऐसी ही एक क्रांति के नायक थे वीर सुरेन्द्र साय
(23 जनवरी 1809 – 23 मई 1884) जो उड़ीसा में जन्मे थे। जिन्होंने अपने जीवन के 36 वर्ष जेल में बिताये और जेल की प्रताड़ना से ही उनका बलिदान हुआ। उन्होंने मध्यप्रदेश की असीरगढ़ की जेल में जीवन की अंतिम श्वाँस ली।
वीर सुरेन्द्र साय का जन्म उड़ीसा प्रांत के संबलपुर जिले में हुआ। उनका गाँव संबलपुर से तीस किलोमीटर दूर खिण्डा था। 1827 में संबलपुर के राजा का निधन हो गया। राजा निसंतान थे। यह वह दौर था जब अंग्रेज एक एक करके देशी रियासतों को अपनी मुट्ठी में कर रहे थे। अंग्रेजों ने उनकी विधवा रानी मोहन कुमारी को गद्दी पर बिठा कर सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिये। रानी बहुत सहज थी। अंग्रेजों के रेजीडेन्ट ने इसका पूरा लाभ उठाया और हर जगह अपने लोगों को तैनात कर दिया और शोषण आरंभ हुआ। अंग्रेजी पुलिस राजस्व वसूली के नाम पर पूरी उपज पर कब्जा करने लगी। वनोपज पर भी और खनिज उपज पर भी अधिकार करने लगे। उन्हे इससे क़ोई मतलब न था कि किसानों के पास खाने को बचा है या नहीं। इससे हाहाकार शुरू हुआ और विरोध भी।
विरोध के लिये कुछ जमींदार और कुछ जागरुक नागरिक आगे आये। इन सबको एकत्र किया वीर सुरेन्द्र साय ने। सशस्त्र नौजवानों का एक दल बनाया जिसमें 250 से अधिक नौजवान शामिल हुए। इस संख्या के पाँच दल बनाये गये जो अलग-अलग स्थानों में सक्रिय किये गये। इन दलों को जहाँ कहीं भी बल पूर्वक वसूली की सूचना मिलती ये दल वहां धमक जाता और लोगों को अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्ति दिलाता। इनका आक्रमण इतना आकस्मिक और योजना से होता कि राजस्व वसूली के नाम पर लूट करने वाले अंग्रेजी अमले को लौटना पड़ता।
कुछ उदाहरण तो ऐसे भी हैं जब इस क्राँतिकारी दल ने अंग्रेजों के अनाज गोदाम को लूटकर समाज में वितरित किया। इससे अंग्रेज सरकार बौखलाई। पर उन्होंने अपना बसूली अभियान तो बंद न किया पर अमले के साथ सुरक्षा प्रबंध और तगड़े कर दिये। इसके साथ ही इस दल को पकड़ने के लिये जाल फैलाना आरंभ किये। कुछ विश्वासघाती तैयार किये। एक दिन जब दल के प्रमुख लोग भावी रणनीति पर विचार के लिये एकत्र हुये तो अंग्रेज सेना ने धावा बोल दिया। यह घटना 1837 की है। इस भिडन्त में क्रांतिकारी दल के बलभद्र सिंह का बलिदान हो गया। जबकि वीर सुरेन्द्र साय, बलराम सिंह, उदसम साय आदि क्रांतिकारी निकलने में सफल हो गये।
ये पांचों क्राँतिकारी अपने अपने दल के नायक थे और भविष्य की रणनीति बनाने एकत्र हुये थे। इस बैठक की सूचना किसी विश्वासघाती ने अंग्रेजों को दे दी थी और पुलिस ने घेर लिया। पुलिस ने जब हमला बोला तब दोपहर का भोजन चल रहा था। इससे क्राँतिकारियों को मोर्चा लेने में देर लगी फिर भी शाम तक मुकाबला चला। बलभद्र सिंह की शहादत के बाद इस मुठभेड से सुरक्षित निकलने की रणनीति बनी और शेष क्राँतिकारी निकलने में सफल हो गये।
1840 में सुरेन्द्रसाय किसी की सूचना पर बंदी बनाये गये उन्हें हजारीबाग जेल में रखा गया। जब 1857 की क्रांति आरंभ हुई तब उसका प्रभाव हजारीबाग में भी हुआ और 30 जुलाई 1857 को एक भीड़ ने जेल तोड़ कर सभी बंदियों को मुक्त कर दिया। सुरेन्द्र साय पुनः अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र अभियान में लग गये। लेकिन दो वर्ष बाद ही बंदी बना लिये गये। उन्हें इस बार उड़ीसा से बाहर भेज दिया गया। पहले छत्तीसगढ़ के रायपुर जेल में फिर महाराष्ट्र के नागपुर जेल में और अंत में मध्यप्रदेश के असीरगढ़ जेल भेजा गया, जहाँ प्रताड़ना से वे 23 मई 1884 को बलिदान हुए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)