शिवचरण चौहान।
कोल, भील और किरात भारत के अरण्य संस्कृति के रक्षक और संवाहक हैं। वेद पुराणों में इनका उल्लेख मिलता है। ये जातियां/जन जातियां मिस्र से लेकर भारत और श्रीलंका तक पाई जाती हैं। कुछ इतिहासकारों ने किरात को मंगोलिया से आया बताया है किंतु हमारे पुराणों में किरात भगवान शिव के उपासक बताए गए हैं।
पुराणों में उल्लेख
महाभारत महापुराण में भगवान शिव स्वयं किरात का रूप धारण कर अर्जुन से युद्ध करने आते हैं। इसलिए किरात भारत के ही हैं इस पर संशय नहीं किया जाना चाहिए। शुक्ल यजुर्वेद में भी भिल्ल, कोल, किरात का उल्लेख आया है।
भारत के हिमालय क्षेत्र, नेपाल, सिक्किम, पश्चिम बंगाल क्षेत्र में किरात अथवा किरांती जनजातियां पाई जाती हैं। पुराणों में इन्हे अनार्य कहा गया है।
विष्णु पुराण, हरिवंश पुराण और स्कंद पुराण में निषाद, कोल, किरात, भीलों का उल्लेख मिलता है।
पुराणों में कथा आती है की महाराज मनु के पुत्र अंग और अंग के पुत्र वेन ने जब राज धर्म छोड़कर पाप कर्म करने शुरू कर दिए तो ऋषियों, मुनियों ने उन्हें रोका था। वेन के ना मानने पर अंगिरा ऋषि ने उसका बाया हाथ मथानी जैसा बना दिया था। बाद में वेन के शरीर का मंथन किया गया तो उससे धीवर निषाद की उत्पत्ति हुई। इसके अलावा उसके शरीर से कुल्ल, भिल्ल और मुसहांतर ( मुसहर) का जन्म हुआ।
निषाद नदी किनारे बसे तो कोल, भील जंगलों में
निषादों ने नदियों के किनारे अपनी बस्तियां बसाई और नदियों के जल से अपना रोजगार शुरू किया। मत्स्य आखेट उनका मुख्य व्यवसाय था। कोल और भीलों ने अरावली की पहाड़ियां, विंध्यांचल पर्वत के जंगलों तथा मैदानी घने जंगलों में अपनी बस्तियां बसाई। निषाद भगवान विष्णु के उपासक थे तो कोल भील किरात, भगवान शिव के भक्त थे।
जंगलों में ही कोल और भीलों ने अपनी छोटी-छोटी बस्तियां बसाई अपने मुखिया बनाएं और बाद में भील राजा भी बने। राजस्थान में रावत, भोमिया और जागीरदार इनकी जातियां हैं। जेम्स टॉड ने कोल भीलों को वन पुरुष लिखा है।
भीलों का राजवंश
भीलों का राजवंश बिहिल माना जाता है। बिलु का मतलब धनुष पुरुष कहा गया है। तीर धनुष चलाने में जिसका कोई जोड़ न हो वही भील, कोल, किरात है।
मध्यप्रदेश में मालवा, दक्षिणी राजस्थान, गुजरात, ओडिशा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और झारखंड के जंगल इनके निवास स्थान थे। यहां पर भीलों का साम्राज्य था।
किरात हिमालय के पहाड़ों के जंगलों में रहते थे और नेपाल सिक्किम पश्चिम बंगाल ,दार्जिलिंग वर्मा म्यांमार आदि देशों, क्षेत्रों में आज भी पाए जाते हैं। इन जन जनजातियों को पुलिंद भी कहा जाता था और ईसा पूर्व 269 से 231 तक पुलिंद नगर इन की राजधानी थी। पुलिंद नगर जबलपुर के आसपास था।
श्री राम जब दंडक वन में गए तो वहां कोल भील और वानर जातियां बहुतायत में पाई जाती थीं। श्री राम ने इन्हीं को संगठित कर लंका के राजा रावण पर विजय पाई थी।
जब राम को 14 बरस का बनवास कैकई मांगती हैं तो सीता जी भी साथ चलने के लिए कहती हैं। तुलसीदास ने लिखा है कि रामचंद्र लक्ष्मण से कह रहे हैं–
बन हित कोल किरात किसोरी। रची बिरंचि विषय सुख भोगी।।
पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेस न कानन काऊ।।
किय तापस तिय वासन जोगू। जिन तप हेतू तजा सब भोगू।।
हे भाई लक्ष्मण वन के लिए तो कोल, किरात की किशोरियां ही ब्रह्मा जी ने बनाई हैं क्योंकि वह बहुत कठोर हृदय वाली होती हैं जैसे- पत्थर का कीड़ा, जिसे जंगल में कोई दुख नहीं होता।
सिय बन बसहिं तात केहि भांती। चित्र लिखे कपि देख डेराती।।
जब राम को मनाने भरत जी चित्रकूट जाते हैं तो निषाद, कोल, भील भी साथ जाते हैं और राम सबको समझा कर वापस करते हैं
तुलसीदास लिखते हैं-
विदा कीन्ह सन मानि निषादू। चले हृदय बड़ विरह विषादू।।
कोल, किरात, भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी।।
मुख्य व्यवसाय आखेट
इससे यह उल्लेख मिलता है कि जंगलों में कोल, भील, किरात और वानर जातियां सदियों से रहती थीं जिन्होंने अपने को जंगलों में रहने के काबिल बना लिया था। कोल, भील, किरातों का मुख्य व्यवसाय आखेट यानी जंगली जानवरों का शिकार करना और उन्हीं का मांस खाना था। कंद मूल फल भी भोजन में शामिल था। जंगल के हीं पेड़ों से बांस से घर द्वार बना कर रहते थे और बाद में उन्हें जंगलों में खेती करने लगे।
बुंदेलखंड क्षेत्र में भी जंगलों में कोल भील रहते थे और तब बुंदेलखंड का नाम जैजाक भुक्ती था।
शत्रु पर रहम नहीं
निषादों ने जहां अपना निवास क्षेत्र गंगा यमुना और अनेक सभी नदियों तालाबों को किनारे बनाया वही कोल भील किरात जंगलों में रहने लगे थे। इसका उद्देश्य शत्रुओं के हमले से सुरक्षित रहना भी था। इसी कारण इनके तीर कमान बहुत मजबूत और तीर विष बुझे होते थे। अपने शत्रु पर रहम नहीं करते थे।
कहते हैं कि कोल भील, द्रविड़ थे किन्तु कई विद्वान भारत में ईसा से 1400 वर्ष पूर्व भीलों का अस्तित्व भारत में मानते हैं।
भीलों की राजधानी शिवी थी जो मेवाड़ के आसपास बताई जाती है। शिवी के भील राजा ने सिकन्दर की फौजों को भारत में नहीं घुसने दिया था। राणा पूंजा भील ने महाराणा प्रताप की बहुत मदद की थी और अकबर की सेनाओं के पैर मेवाड़ में नहीं जमने दिए थे। आज भी उदयपुर , मेवाड़, बांसवाड़ा,कोटा आदि अनेक जिलों में भील जन जातियां पाई जाती हैं। लंबे समय से भारतीय सेना में भील रेजिमेंट बनाने की मांग उठती रही है।
गुजरात में भीलों का राज
गुजरात में ईसा से 1400 वर्ष पहले डांग जिले तथा अहमदाबाद , पावागढ़, जामनगर क्षेत्रों में भील राजाओं के राज करने के उल्लेख मिलते हैं। इंदौर में भील पलटन स्थल का नाम बदल कर अब पुलिस प्रशिक्षण केंद्र रखा गया है।
भिलाई शहर का नाम भी भील के नाम पर ही है। भील एक विस्तृत शब्द है। कोल, किरात, निषाद, शबर ,मुंडा, नाग जातियां भील जन-जाति में ही आती हैं। सिंधु घाटी सभ्यता में भी भीलों के बाहुबली होने के प्रमाण मिले हैं।इनकी सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता से भी पुरानी है।
स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान
1857 में अंग्रेजी सरकार के विरोध में जो विद्रोह हुआ उसमें भीलों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी। भील क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था। अनेक भील युवकों को पकड़कर फांसी पर लटका दिया गया और अनेक को गोली मार दी गई किंतु भील डरे नहीं। झुके नहीं।
वाराणसी के नवगीतकार श्रीकृष्ण तिवारी का एक नवगीत है- भीलो ने बांट लिए वन/ राजा को खबर तक नहीं। रानी हो गई बद चलन/ राजा को खबर तक नहीं।। यह एक समय बहुत लोकप्रिय हुआ था।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने वनवासियों के विकास लिए बहुत पहले कार्यक्रम चलाए थे और वनवासी विद्यालय खोले थे। कोल, भील, किरातों का इतिहास बहुत प्राचीन है। आज जो कुछ जंगल और वन हमें दिखते हैं वे इन्हीं के कारण बचे हैं।