(4 मार्च पर विशेष)
रमेश शर्मा।
परिवार के संस्कारों ने उन्हे बचपन से राष्ट्रीय, साँस्कृतिक और सामाजिक चेतना से ओतप्रोत कर दिया । उन्हें बचपन में माँ से रामायण की और पिता से संस्कृत शिक्षा मिली । उन्हें रामायण की चौपाइयाँ और संस्कृत के अनेक श्लोक कंठस्थ थे। उन दिनों के सभी शासकीय विद्यालयों में चर्च का नियंत्रण हुआ करता था । उनकी प्राथमिक शिक्षा कैम्ब्रिज मिशन स्कूल में हुई और महाविद्यालयीन शिक्षा सेन्ट स्टीफन कालेज में । वे पढ़ने में बहुत कुशाग्र थे, सदैव प्रथम ही आते थे। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी । एक बार सुनकर पूरा पाठ कंठस्थ हो जाता था । उनकी गणना ऐसे विरले व्यक्तियों में होती थी जो अंग्रेजी और संस्कृत दोनों भाषाएँ धारा प्रवाह बोल लेते थे । इस विशेषता ने उन्हे पूरे महाविद्यालय में लोकप्रिय बना दिया था ।
महाविद्यालयीन शिक्षा में कालेज में शीर्ष पर रहने से उन्हें 200 पाउण्ड की छात्रवृत्ति मिली । इस राशि से वे आगे पढ़ने के लिये लंदन गये 1905 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया । लालाजी ने लंदन में भारतीयों के साथ अंग्रेजों का हीनता से भरा व्यवहार देखा, जिससे वे बहुत विचलित हुये । यद्यपि इसका आभास उन्हें दिल्ली के सेन्ट स्टीफन कालेज में भी हो गया था , पर जो दृश्य लंदन में देखा उसे देखकर बहुत विचलित हुये और उन्होंने अपने छात्र जीवन में जाग्रति और वैचारिक संगठन का अभियान आरंभ कर दिया ।
भारतीय छात्रों में संगठन और जाग्रति के लिये उन्होंने संगोष्ठियों और बैठकों का कार्य आरंभ किया । वे ऐसे कार्यक्रम आयोजित करते थे जिनमें भारतीय चिंतन की प्रतिष्ठा गरिमा और ओज साथ हो और संगठनात्मक भाव भी जाग्रत हो । लाला जी लंदन में क्राँतिकारी आँदोलन चला रहे मास्टर अमीरचंद के संपर्क में आये । उनका संपर्क क्रातिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से भी हुआ । श्यामकृष्ण जी ने लंदन में इंडिया हाउस की स्थापना की थी । लालाजी उसके सदस्य बन गये । क्रातिकारियों के संपर्क और अध्ययन से लालाजी को यह भी आभास हुआ कि पूरी दुनियाँ में अंग्रेजों का दबदबा भारतीय सैनिकों के कारण है । जहां कभी भी सेना भेजना होती वहां सबसे अधिक सैनिकों की संख्या भारतीय मूल के सैनिकों की होती लेकिन अंग्रेज उनसे सम्मान जनक व्यवहार नहीं करते थे ।
उनकी कुशाग्रता और सक्रियता अंग्रेजों से छुपी न रह सकी, उन्हें 1906 में आईसीएस सेवा का प्रस्ताव मिला जिसे ठुकराकर वे लंदन में भारतीयों के संगठन और स्वाभिमान जागरण के अभियान में ही लगे रहे । उन दिनों चर्च और मिशनरियों ने युवाओं को जोड़ने के लिये एक संस्था बना रखी थी उसका नाम “यंग मैन क्रिश्चियन एसोशियेशन” था । इसे संक्षिप्त में “वाय एम सी ए” कहा जाता था । इसकी शाखायें भारत में भी थीं । लाला हरदयाल जी ने भारतीय युवकों में चेतना जगाने के लिये क्रान्तिकारियों की एक संस्था “यंगमैन इंडिया एसोसिएशन” का गठन किया । उनकी सक्रियता देख उन पर स्थानीय प्रशासन का दबाव बना । वे 1908 में भारत लौट आये । यहाँ आकर भी वे युवकों के संग़ठन में ही लग गये ।
उनका अभियान था कि भारतीय युवक ब्रिटिश शासन और सेना की मजबूती में कोई सहायता न करें । इसके लिये उन्होंने देश व्यापी यात्रा की । लोकमान्य तिलक से मिले । उन्होंने लाहौर जाकर एक अंग्रेजी में समाचार पत्र आरंभ किया । उनका समाचार पत्र राष्ट्रीय चेतना से भरा हुआ था । अंग्रेजों ने समाचार पत्र के एक समाचार के बहाने उनपर एक मुकदमा दर्ज किया । इसकी खबर उन्हे लग गयी और वे अमेरिका चले गये । अमेरिका जाकर गदर पार्टी की स्थापना की । उन्होंने कनाडा और अमेरिका में घूम-घूम कर वहां निवासी भारतीयों को स्वयं के गौरव और भारत की स्वतंत्रता के लिये जागरूक किया । तभी काकोरी कांड के षडयंत्र कारियों में उनका भी नाम आया ।
अंग्रेजों ने उन्हे भारत लाने के प्रयास किये । पहले तो अमेरिकी सरकार ने अनुमति नहीं दी । लेकिन बाद में 1938 अनुमति दे दी गई । उन्हें 1939 भारत लाया जा रहा था कि रास्ते में फिलाडेल्फिया में रहस्यमय परिस्थिति में उनकी मौत हो गई । आशंका है कि उन्हें मार्ग में विष दिया गया । जब उनकी मृत्यु हुई, तब वे भोजन कर रहे थे । उनकी मृत्यु का रहस्य आज भी बना हुआ है । वे पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति कैसे भोजन करते करते शरीर त्याग सकता है । वह 4 मार्च 1939 का दिन था जब लाला जी इस नश्वर संसार को त्याग कर परम् ज्योति में विलीन हो गये । पर इतिहास के पन्नों में राष्ट्र भक्ति का संदेश दे गये । कोटिशः नमन ऐसे महान क्रान्तिकारी को ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) (एएमएपी)