कास्ट की पॉलिटिक्स पर क्लास की पॉलिटिक्स के हावी होने का जनादेश।
प्रदीप सिंह।बिहार विधानसभा चुनाव का नतीजा आ गया है। राज्य में एनडीए को 202 सीटें मिली हैं। मैंने पहले ही कहा था कि एनडीए को 180 से 200 के बीच में सीटें मिलेंगी और यह चुनाव मुझे 2010 के विधानसभा चुनाव की तरह नजर आ रहा है। बीजेपी राज्य में सबसे बड़ी पार्टी और जेडीयू दूसरे नंबर की पार्टी बनी है। चिराग पासवान की पार्टी एलजेपी रामविलास 19 सीटें लेकर आरजेडी से थोड़ा ही पीछे है। आरजेडी 25 और कांग्रेस 6 सीटों पर सिमट गई हैं। प्रशांत किशोर के बारे में मैं शुरू से कह रहा था कि बिहार के विधानसभा चुनाव में वह कोई फैक्टर नहीं थे। वे केवल एनडीए की गाड़ी को पटरी से उतारने के लिए मैदान में उतारे गए थे और खुद ही मैदान से भाग खड़े हुए यह अलग बात है। उनकी पार्टी को कोई सीट नहीं मिली। राघोपुर सीट से तेजस्वी यादव खुद गिरते पड़ते किसी तरह जीते। तो हुआ क्या है? बिहार का यह जनादेश बहुत कुछ कहता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मिलकर बिहार की एक बड़ी आबादी को जाति की जकड़न से निकालकर एक वर्ग में बदल दिया है। तो यह कास्ट की पॉलिटिक्स पर क्लास की पॉलिटिक्स के हावी होने का जनादेश है। हालांकि मैं यह बिल्कुल नहीं कह रहा हूं कि बिहार की राजनीति से जाति चली गई या समाज से जाति चली गई या लोगों ने जाति के आधार पर सोचना बंद कर दिया, लेकिन उसकी जो जकड़न थी उसको मोदी और नीतीश कुमार की जोड़ी ने तोड़ा है।

उन्होंने तीन वर्ग बनाए हैं। दो एक्सक्लूसिव हैं। एक ओवरलैपिंग है। पहला जो सबसे निर्णायक साबित हुआ है वह महिलाओं का वर्ग है। इसमें जाति का कहीं कोई बंधन नहीं है। इसमें हर जाति की महिलाएं हैं और कोई प्रतिद्वंदिता नहीं है। दूसरा वर्ग है युवाओं का, जो आकांक्षी है और जिसको अपना भविष्य दिखाई देता है एनडीए की सरकार और मोदी एवं नीतीश कुमार की नीतियों में। मोदी जिस तरह देश में विकास कर रहे हैं वे वैसा ही चाहते है और इसमें यहीं पर आकर जुड़ जाते हैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ। बिहार के लोग आज उत्तर प्रदेश को उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं। उनको लगता है कि हमारे प्रदेश में भी इसी तरह का विकास और कानून व्यवस्था की स्थिति होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश एक समय बीमारू राज्य हुआ करता था। योगी आदित्यनाथ 2017 में मुख्यमंत्री बने। उसके बाद के आठ सालों में यह प्रदेश देश के उन चंद प्रदेशों में शाामिल हो गया, जो सरप्लस बजट पेश करते हैं। सरप्लस बजट का सीधा मतलब है कि जितनी आमदनी है, खर्चा उससे कम है। एक समय ऐसा था जब यूपी में जितनी आमदनी थी खर्च उससे बहुत ज्यादा होता था और एक इकोनॉमिस्ट ने कहा था कि अगर उत्तर प्रदेश कोई कंपनी रही होती तो दिवालिया घोषित हो जाती। तो बिहार में जो कुछ हुआ है वह बहुत से लोगों को अप्रत्याशित लग रहा है लेकिन मुझे नहीं लग रहा क्योंकि यह होता हुआ दिखाई दे रहा था और इसकी शुरुआत 2010 से हो गई थी। अगर 2013 में नीतीश कुमार एनडीए छोड़कर गए नहीं होते तो यह आज जो आप देख रहे हैं यह बहुत पहले अचीव हो चुका होता। उसके अलावा यह जनादेश कह रहा है कि भ्रष्टाचार और वंशवाद की राजनीति से हम ऊब गए हैं। इस बात को आरजेडी, कांग्रेस पार्टी और उसके सहयोगी दल समझ नहीं पाए और कम से कम जहां तक कांग्रेस नेता राहुल गांधी की बात है, वह कभी समझ भी नहीं पाएंगे। तो दो वर्गों के अलावा तीसरा वर्ग लाभार्थियों का है। इसमें थोड़ा ओवरलैपिंग है। इसमें महिलाएं, युवा और उनके अलावा लोग भी आते हैं। सबको समझ में एक बात आई कि हमारी प्राथमिकता क्या है? कैसे हमारा जीवन स्तर सुधरे? सुरक्षा खासतौर से महिलाओं के लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता है। आज बिहार में बेटियां रात में भी निकलें तो घर वालों को चिंता नहीं होती है। उनको जंगल राज की वापसी नहीं चाहिए। लोगों को मालूम था कि अगर महागठबंधन सत्ता में आया तो क्या होगा? तो यह चुनाव सुशासन और जंगल राज के बीच था और लोगों ने किसे चुना यह आपके सामने है। बहुत से लोग यह उम्मीद जता रहे थे कि इस चुनाव में शायद जेडीयू नंबर एक पार्टी हो जाएगी लेकिन मेरा कहना है कि जब से जेडीयू और बीजेपी का गठबंधन हुआ है, बीजेपी का स्ट्राइक रेट जेडीयू से बेहतर रहा है और इस बार भी है, लेकिन इस गणित का कोई मतलब नहीं है क्योंकि स्टेट लीडरशिप का मुद्दा सेटल्ड है। बीजेपी तय कर चुकी है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहेंगे। मोदी और नीतीश कुमार ने जो सबसे बड़ा काम किया है, वह यह कि बिहार को एक एस्पिरेशनल स्टेट बना दिया है। जहां लोगों की चाहे वे जिस वर्ग के हो, सबकी आकांक्षाएं बढ़ती जा रही हैं और सरकार उनको पूरा करने के लिए हर संभव कदम उठा रही है, यह विश्वास दिलाने में एनडीए कामयाब रहा है। इस चुनाव में जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चिराग पासवान पर भरोसा जताया, उस भरोसे पर वे खरे भी उतरे हैं।

राहुल गांधी सुना है कि मस्कट में घूम रहे हैं। तो उनको इस चुनाव नतीजे से कोई मतलब नहीं है। आप एकदम मान कर चलिए कि जब वे वापस आएंगे तो फिर वोट चोर, एसआईआर या इस तरह के इररेलेवेंट मुद्दे उठाएंगे, जिनका जनता से कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस पार्टी ने तो अभी से चुनाव आयोग को दोष देना शुरू कर दिया है। तो कांग्रेस की क्या लाइन होगी आप यह समझ सकते हैं। लेकिन अगर कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल इस जनादेश का मतलब नहीं समझेंगे तो समझ लीजिए कि इस देश में विपक्षी दलों का भविष्य अंधकारमय होने जा रहा है। इन चुनावों में वीआईपी पार्टी के नेता मुकेश सहनी ने जबरदस्ती ब्लैकमेल करके अपने को डिप्टी सीएम उम्मीदवार घोषित करवाया। उनकी पार्टी को अंडा मिला है। उनका दिमाग सातवें आसमान पर था। मुंबई में फिल्मों के सेट बनाते थे। उससे पैसा कमा लिया तो उनको लगा कि पैसा कमा लिया तो मैं सबसे बड़ा नेता बन सकता हूं। अगर पैसे से ही नेता बनते तो अंबानी, अडानी, बिरला, टाटा, बजाज इन लोगों की पार्टियां होतीं और यही लोग सरकार चला रहे होते। मुकेश सहनी लोकसभा चुनाव लड़े, हार गए। उससे पहले 2020 में बीजेपी के साथ लड़े थे इसलिए चार सीटें जीत गए थे। उसके बाद फिर दिमाग खराब होने लगा तो उनमें से तीन विधायक टूट कर बीजेपी के साथ आ गए। तो इन चुनावों में मुकेश सहनी की राजनीति खत्म हो गई। प्रशांत किशोर की राजनीति शुरू होने से पहले खत्म हो गई। वे एक एजेंट की तरह आए थे कि किसी तरह से बीजेपी-जेडीयू को रोकना है। उन्होंने कसम खाई थी कि अगर जेडीयू को 25 सीटें मिल गई तो वह राजनीति छोड़ देंगे। तो अब उनके राजनीति में बने रहने का कोई औचित्य नहीं रह गया। देखिए राजनीति में दो तरह के लोग होते हैं। एक जो चुनाव लड़ना जानते हैं और दूसरे जो चुनाव लड़ाना जानते हैं। जो चुनाव लड़ाना जानते हैं जरूरी नहीं कि वे चुनाव लड़ें और जीत जाए और जो चुनाव लड़ते हैं, जीतते हैं, जरूरी नहीं कि वह चुनाव लड़ा सकें और जिता सकें। प्रशांत किशोर को यह दोनों नहीं आता। उनको आता क्या है? सिर्फ इतना कि राजनीतिक दल के लिए रणनीति बनाएं। मुद्दे बताएं कि कौन से मुद्दे चल सकते हैं। उसके बाद सारा काम राजनीतिक दल का होता है। वैसे ही जैसे क्रिकेट कोच का काम खिलाड़ियों को बताना होता है कि कैसे खेलो, लेकिन मैदान में खेलता खिलाड़ी ही है। तो प्रशांत किशोर कोच से प्लेइंग 11 में आए और पहली बॉल पड़ने से पहले ही मैदान छोड़कर भाग गए।

बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे का प्रभाव बिहार तक सीमित नहीं रहने वाला। इसका प्रभाव पूरे देश की राजनीति पर पड़ेगा। पूरे विपक्ष को उम्मीद थी कि बिहार में अगर बीजेपी हार जाएगी तो हम यह प्रचार कर पाएंगे कि अब बीजेपी का सितारा डूब रहा है। लेकिन हुआ इसका उल्टा। इस प्रचंड जीत का तत्काल प्रभाव पश्चिम बंगाल में एसआईआर पर पड़ेगा। ममता बनर्जी के तेवर अब ढीले हो जाएंगे। अब बंगाल में एसआईआर कराने में चुनाव आयोग को ज्यादा दिक्कत नहीं होगी और ममता बनर्जी को अच्छी तरह से मालूम है कि इसमें अड़चन पैदा की तो उनके लिए आत्मघाती साबित होगा। बिहार में कोशिश करके भी राहुल गांधी कुछ कर नहीं पाए। कोई मुद्दा नहीं बना पाए। मेरा मानना है कि बीजेपी देश की एकमात्र पार्टी है, जो गलतियों से बहुत जल्दी सबक सीखती है। लोकसभा चुनाव में जो सेटबैक लगा, उससे पार्टी ने तुरंत सबक सीखा कि जमीनी स्तर पर संगठन को चुस्त दुरुस्त करना जरूरी है। उसका परिणाम महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और जम्मू में दिखा और बिहार में तो बीजेपी ने पूरे देश की सभी पार्टियों को यह बताया कि गठबंधन कैसे चलाया जाता है। बिहार में बीजेपी ने गठबंधन को एक पार्टी के रूप में बदल दिया। भले ही सबके सिंबल अलग-अलग रहे हो, लेकिन पूरा एनडीए एक दल के रूप में एक साथ लड़ा। यही दृश्य था महाराष्ट्र में कि सहयोगी दल का उम्मीदवार कोई भी हो, कैसा भी हो, पार्टी कैसी हो, उसका नेता कैसा हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। सबको जिताना है, सबके लिए काम करना है। यह बीजेपी के कार्यकर्ताओं को स्पष्ट संदेश था। उसका परिणाम महाराष्ट्र में भी निकला। उसका परिणाम बिहार में भी निकला है। तो बिहार का यह जनादेश देश की राजनीति में आने वाले बड़े परिवर्तन का संकेत देकर जा रहा है कि जिस तरह से राजनीति चल रही थी, उस तरह से नहीं चलने वाली है। बिहार के पड़ोस में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की परेशानी इन नतीजों से कई गुना बढ़ गई है। मतदाता का तेजस्वी यादव और राहुल गांधी दोनों को संदेश है कि भ्रष्टाचार और वंशवाद की राजनीति हमें रास नहीं आ रही। हम इसको जड़ से उखाड़ने का प्रयास करेंगे। बिहार में उखाड़ दिया। अब देखिए बाकी राज्यों में क्या होता है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और ‘आपका अखबार’ के संपादक हैं)



