#santoshtiwariडॉ. संतोष कुमार तिवारी।

‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (प्रकाशक श्री कृष्णाश्रम, दावानल कुण्ड, वृन्दावन, मथुरा प्रथम खण्ड, प्रकाशन वर्ष संवत् 2015, पृष्ठ 36-37) पर श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी ने लिखा:

ऐसा कौन है जिसे संसार ने अपयश का पुरस्कार न दिया हो। जितने महापुरुष हुए हैं सभी ने  अस्त्रों के द्वारा, विष या अन्य प्रहारों के द्वारा प्राणों का परित्याग किया है। संसार उनके यथार्थ स्वरूप को भूल कर उन्हें शत्रु समझने लगते हैं और उन पर आक्रमण कर बैठते हैं। वे भी ऐसी ही लीला रच कर शरीर का अन्त कराना चाहते हैं। मरते-मरते वे अपनी मृत्यु से भी लोगों को शिक्षा दे जाते हैं।

भगवान बुद्ध, श्रीशंकराचार्य तथा अन्य आचार्यों पर भी संसारी लोगों ने आक्रमण किए तथा विष के प्रयोग किए। महात्मा पल्टू को जीवित ही जला दिया गया। इन बातों में कोई न कोई रहस्य होता है। हम अल्पज्ञ प्राणी उसे समझ नहीं सकते हैं।

उड़िया बाबा के जीवन का अन्तिम दिन चैत्र कृष्णचतुर्दशी, संवत् 2005 (सन् 1948) था।  तब वह लगभग 73 वर्ष के थे। उनकी तबीयत ठीक नहीं थी। वह अपने वृंदावन आश्रम में थे।

स्वामी अखण्डानन्दजी ने अपनी पुस्तक ‘पावन प्रसंग’ (चतुर्थ संस्करण मई 2012, प्रकाशक: सत्साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, वृन्दावन, पृष्ठ 28) पर लिखा कि:

प्रातः कालीन प्रवचन में ‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च ‘ – गीता श्लोक की व्याख्या की गई। मध्याह्नोत्तर सत्संग में ‘भागवती कथा’ पढ़ी जा रही थी और श्री महाराजजी (उड़िया बाबा) समाधि से बैठे श्रवण कर रहे थे। लगभग पच्चीस श्रोता सामने बैठे थे।

तभी अचानक पीछे की ओर से एक अर्धविक्षिप्त-सा ठाकुरदास नामक व्यक्ति आया और उसने बड़ी तेजी से एक गँड़ासे से श्रीमहाराजजी के सिर पर तीन बार वार कर दिया !

उड़िया बाबा को अन्नपूर्णा-सिद्धि थी

चार इंच गहरा घाव। पहली चोट लगने पर महाराजजी का हाथ (अपने)  सिर पर गया और उनकी एक उँगली कट गई। न चीख-पुकार, न छटपटाहट। लोग दौड़े डाक्टर की तलाश में। महाराजजी को तनिक होश आया तो पूछा- ‘क्या हो रहा है?”

मानो उनके शरीर पर नहीं, कहीं अन्यत्र आघात लगा हो । प्रणव (ओंकार/ परमेश्वर) का उच्चारण करके उन्होंने नेत्र बन्द कर लिए जो पुनः खुलने को नहीं थे। सन्तों ने शरीर को यमुनाजी में जलसमाधि दे दी। जैसा पवित्र जीवन वैसा ही पवित्र निर्वाण!

यह संसार कुत्ते की पूंछ की तरह है

‘श्री उड़िया बाबा के संस्मरण’ (प्रथम खण्ड, पृष्ठ 36) पर श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी ने लिखा:

महापुरुष आते हैं, अपने स्वभाव से इसे (अर्थात इस संसार को) सुखमय बनाने के लिए। परन्तु  फिर भी यह (संसार) ज्यों-का-त्यों हो जाता है। कुत्ते की पूँछ चाहे कितने भी दिन कस कर सीधी बांधो, खोलोगे तो फिर टेढ़ी-की-टेढ़ी। न जाने कितनी बार भगवान ने इस अवनि (धरती) पर अवतार लिया, फिर भी संसार से दु:ख का अत्यन्ताभाव (पूर्ण निवारण) नहीं हुआ। यह संसार दुखमय ही बना रहा। यही नहीं इसमें आ कर बड़े-बड़े अवतारों को भी दु:ख सहने पड़े।

आगे पृष्ठ 43 पर ब्रह्मचारीजी ने लिखा कि श्री महाराज (उड़िया बाबा) का जीवन परोपकार में ही बीता। वे निराश्रयों के आश्रय थे, दीनों के बन्धु थे और मुमुक्षुओं (संन्यासियों) के सर्वस्व।

‘पावन प्रसंग’ पुस्तक के पृष्ठ 23  पर स्वामी अखण्डानन्दजी ने लिखा: उड़िया बाबा का कहना था कि मन, वाणी और शरीर – तीनों पर ध्यान रखो। तीनों में से एक के भी चंचल होने पर अन्य दो भी चंचल हो जाते हैं। इस दुनिया के सम्पूर्ण प्रपंच को उदासीन दृष्टि से देखने से वासनाओं का क्षय होकर निर्विकल्प (निश्चल/ स्थिर) समाधि लग जाती है।

इसी लेख के पृष्ठ 21 पर स्वामी अखण्डानन्दजी ने लिखा कि उड़िया बाबा का कहना था कि वासनाओं के रहते चित्त में शान्ति नहीं आ सकती।

आपका अखबार वेबसाइट पर इस लेख के लेखक के उड़िया बाबा पर दो लेख पहले भी प्रकाशित हो चुके हैं, जिन्हें उनके नीचे दिए गए URL पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है:

उड़िया बाबा को अन्नपूर्णा-सिद्धि थी

https://apkaakhbar.in/oriya-baba-had-annaporna-siddhi/

उड़िया बाबा पूरे भारत में पैदल ही क्यों घूमे

https://apkaakhbar.in/why-oriya-baba-travelled-on-foot-throughout-india/

(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)