-वियोगी हरि।

हिरदै भीतर दव बलै, धुवाँ न परगट होय। जाके लागी सो लखै, की जिन लाई सोय॥ -कबीर

लगन की आग का धुवाँ कौन देख सकता है। उसे या तो वह देखता है, जिसके अन्दर वह जल रही है, या फिर वह देखता है, जिसने वह आग सुलगाई है। भाई, प्रेम तो वही जो प्रकट न किया जाय। सीने के अन्दर ही एक आग-सी सुलगती रहे, उसका धुवाँ बाहर न निकले। प्रीति प्रकाश में न लायी जाय। यह दूसरी बात है, कि कोई दिलवाला जौहरी उस प्रेम-रत्न के जौहर को किसी तरह जान जाय। वही तो सच्ची लगन है जो गलकर, घुलकर, हृदय के भीतर पैठ जाय; प्यारे का नाम मुहँ से न निकलने पाय, रोम-रोम से उसका स्मरण किया जाय। कबीरदास की एक साखी है–

प्रीति जो लागी घुल गई, पैठि गयी मनमाहिं। रोम-रोम पिउ-पिउ करै, मुखकी सरधा नाहि॥

प्रेम-रस के गोपन में ही पवित्रता है। जो प्रेम प्रकट हो चुका, बाजार में जिसका विज्ञापन कर दिया गया, उसमें पवित्रता कहाँ रही? वह तो फिर मोल-तोल की चीज हो गयी। कोविद-वर कारलाइल कहता है- Love unexpressed is sacred.

अर्थात्, अव्यक्त प्रेम ही पवित्र होता है। जिसके जिगरमें कोई कसक है, वह दुनियामें गली-गली चिल्लाता नहीं फिरता। जहाँ-तहाँ पुकारते तो वे ही फिरा करते हैं, जिनके दिल में प्रेम की वह रस-भरी हूक नहीं उठा करती। ऐसे बने हुए जाके लागी सो लखै, की जिन लाई सोय॥ -कबीर प्रेमियोंको प्रेमदेवका दर्शन कैसे हो सकता है?

विज्ञापनबाजी से क्या मिलेगा

महात्मा दादूदयाल कहते हैं– अन्दर पीर न उभरै, बाहर कर पुकार। ‘दादू’ सो क्योंकरि लहै, साहिब का दीदार॥

किसी को यह सुनाने से क्या लाभ, कि मैं तुम्हें चाहता हूं, तुम पर मेरा प्रेम है? सच्चे प्रेमियों को ऐसी विज्ञापनबाजी से क्या मिलेगा? तुम्हारा यदि किसी पर प्रेम है, तो उसे अपनी हृदय-वाटिका में ही अंकुरित, पल्लवित, प्रफुल्लित और परिफलित होने दो। जितना ही तुम अपने प्रिय को छिपाओगे, उतना ही वह प्रगल्भ और पवित्र होता जायगा। बाहर का दरवाज़ा बन्द करके तुम तो भीतर का द्वार खोल दो। तुम्हारा प्यारा तुम्हारे प्रेम को जानता हो तो अच्छा, और उससे बेखबर हो तो भी अच्छा। तुम्हारे बाहर के शोर-गुल को वह कभी पसन्द न करेगा। तुम तो दिल का दरवाजा खोलकर बेख़बर हो बैठ जाओ। तुम्हारा प्यारा राम ज़रूर तुम्हें मिलेगा–

सुमिरन सुरत लगाइकै, मुखतें कछू न बोल। बाहरके पट देइकै, अन्तरके पट खोल॥ -कबीर

प्रीतिका ढिंढोरा पीटने से कोई लाभ?

जो तेरे घट प्रेम है, तौ कहि कहि न सुनाव। अन्तरजामी जानिहैं, अन्तरगतका भाव॥ -मलूकदास

तुम तो प्रेमको इस भाँति छिपा लो, जैसे माता अपने गर्भस्थ बालक को बड़े यत्न से छिपाये रहती है, ज़रा भी उसे ठेस लगी कि वह क्षीण हुआ–

जैसे माता गर्भको राखै जतन बनाइ। ठेस लगै तौ छीन हो, ऐसे प्रम दुराइ॥ -गरीबदास

प्रेम का वास्तविक रूप तुम प्रकाशित भी तो नहीं कर सकते। हाँ, उसे किस प्रकार प्रकाश में लाओगे? प्रेम तो गूंगा होता है। इश्क को बेजुबान ही पाओगे। ऊँचे प्रेमियों की तो मस्तानी आँखें बोलती हैं, जबान नहीं। कहा भी है– Love’s tongue is in the eyes. अर्थात्, प्रेम की जिह्वा नेत्रों में होती है। क्या रघूत्तम राम का विदेह-नन्दिनी पर कुछ कम प्रेम था? क्या वे मारुति के द्वारा जनकतनया को यह प्रेमाकुल सन्देश न भेज सकते थे, कि ‘प्राणप्रिये! तुम्हारे असह्य वियोग में मेरे प्राण-पक्षी अब ठहरेंगे नहीं हृदयेश्वरी! तुम्हारे विरहने मुझे आज प्राण-हीन-सा कर दिया है।’ क्या वे आज-कल के विरह-विह्वल नवल नायक की भाँति दस-पाँच लम्बे चौड़े प्रेम-पत्र अपनी प्रेयसी को न भेज सकते थे? सब कुछ कर सकते थे, पर उनका प्रेम दिखाऊ तो था नहीं। उन्हें क्या पड़ी थी जो प्रेम का रोना रोते फिरते! उनकी प्रीति तो एक सत्य, अनन्त और अव्यक्त प्रीति थी, हृदय में धधकती हुई प्रीति की एक ज्वाला थी। इससे उनका संदेसा तो इतने में ही समाप्त हो गया कि–

तत्व प्रेमकर मम अरु तोरा। जानत, प्रिया, एक मन मोरा॥

सो मन रहत सदा तोहि पाहीं। जानि प्रीति-रस इतनेहि माहीं॥ -तुलसी

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इस ‘इतने’ में ही उतना सब भरा हुआ है, जितने का कि किसी प्रीति-रस के चखनेहारे को अपने अन्तस्तल में अनुभव हो सकता है। सो, बस– जानि प्रोति-रस इतनेहि माहीं।

प्रीति की गीति कौन गाता है, प्रेम का बाजा कहाँ बजता है और कौन सुनता है, इन सब भेदों को या तो अपना चाह-भरा चित्त जानता है या फिर अपना वह प्रियतम। इस रहस्य को और कौन जानेगा?

सब रग ताँत, रवाब तन, बिरह बजावै नित्त। और न कोई सुनि सके, कै साई कै चित्त॥ -कबीर

जायसीने भी खूब कहा है– हाड़ भये सब किंगरी, नसें भई सब ताँति। रोम-रोम ते धुनि उठे, कहौं बिथा केहि भाँति॥

प्रेम-गोपन पर किसी संस्कृत कविकी एक सूक्ति है–

प्रेमा द्वयो रसिकयोरपि दीप एव/ हृव्योम भासयति निश्चलमेव भाति।

द्वारादयं वदनतस्तु बहिर्गतश्चेत्/ निर्वाति दीपमथवा लघुतामुपैति॥

ज्यों ही कहा गया नष्ट हो गया

दो प्रेमियों का प्रेम तभी तक निश्चल समझो, जब तक वह उनके हृदय के भीतर है। ज्यों ही वह मुखद्वार से बाहर हुआ, अर्थात् यह कहा गया कि ‘मैं तुम्हें प्यार करता हूं’ त्यों ही वह या तो नष्ट हो गया या क्षीण ही हो गया। दीपक गृह के भीतर ही निष्कम्प और निश्चल रहता है। द्वार के बाहर आने पर या तो वह क्षीण-ज्योति हो जाता है या बुझ ही जाता है। वास्तव में, पवित्र प्रेम एक दीपक के समान है। इसलिये चिरागे-इश्क को भाई, जिगर के अन्दर ही जलने दो। उस अंधेरे घर में ही तो आज उँजेले की ज़रूरत है।

उस प्रियतम को पलकों के भीतर क्यों नहीं छुपा लेते? एकबार धीरे से यह कहकर उसे, भला, बुलाओ तो– आओ प्यारे मोहना! पलक झाँपि तोहि लेउँ। ना मैं देखों और कों, ना तोहि देखन देउँ॥

आँखों की तो बनाओ एक सुन्दर कोठरी और पुतलियों का बिछा दो वहाँ पलंग। द्वार पर पलकों की चिक भी डाल देना। इतने पर भी क्या वह हठीले हजरत न रीझंगे? क्यों न रीझंगे–

नैनोंकी करि कोठरी, पुतली-पलँग बिछाय। पलकोंकी चिक मारिके, छिनमें लिया रिझाय॥ -कबीर

जब वह प्यारा दिलवर इस तरह तुम्हारे दर्दभरे दिल के अन्दर अपना घर बना लेगा, तब तुम्हें न तो उसे कहीं खोजना ही होगा और न चिल्ला चिल्लाकर अपने प्रेम का ढिंढोरा ही पीटना होगा। तब उस हृदय-विहारी के प्रति तुम्हारा प्रेम नीरव होगा। वह तुम्हारी मतवाली आँखों की प्यारी-प्यारी पुतलियों में जब छुप-छुपे अपना डेरा जमा लेगा, तब उसका प्यारा दीदार तुम्हें ज़रे-जरे में मिलेगा। घट-घट में उसकी झलक दिखायी देगी। प्रेमोन्मत्त कवीन्द्र रवीन्द्र, सुनो, क्या गा रहे हैं–

My beloved is ever in my heart/ That is why I see him everywhere.

He is in the pupils of my eyes/ That is why I see him everywhere.

अर्थात्–

जीवन-धन मम प्रान-पियारो सदा बसतु हिय मेरे, जहाँ बिलोके, ताके ताकों कहा दूरि कह नेरे। आँखिनकी पुतरिनमें सोई सदा रहै छवि घेरे, जहाँ बिलोकें, ताकैं ताकों कहा दूरि कह नेरे॥ -कृष्ण बिहारी मिश्र

सब कुछ गुप्त ही रहने दो

अपने चित्त को चुराने वाले का ध्यान तुम भी एक चोरकी ही तरह दिल के भीतर किया करो। चोर की चोर के ही साथ बना करती है। जैसे के साथ तैसा ही बनना पड़ता है। कविवर बिहारी का एक दोहा है–

करौ कुबत जगु, कुटिलता तजौं न, दीनदयाल। दुखी होहुगे सरल हिय बसत, त्रिभंगी लाल॥

संसार निन्दा करता है तो किया कर, पर मैं अपनी कुटिलता तो न छोडूंगा। अपने हृदय को सरल न बनाऊँगा, क्योंकि हे त्रिभंगी लाल! तुम सरल (सीधे) हृदय में बसते हुए कष्ट पाओगे। टेढ़ी वस्तु सीधी वस्तु के भीतर कैसे रह सकती है? सीधे मियान में कहीं टेढ़ी तलवार रह सकती है? मैं सीधा हो गया तो तीन टेढवाले तुम मुझमें कैसे बसोगे? इससे मैं अब कुटिल ही अच्छा! हाँ, तो अपनी प्रेम-साधना का या अपने प्यारे के ध्यान का कभी किसी को पता भी न चलने दो, यहाँ की बात जाहिर कर दो, यहाँ के पट खोल दो। पर वहाँ का सब कुछ गुप्त ही रहने दो, वहाँ के पट बन्द ही किये रहो। यह दूसरी बात है, कि तुम्हारी ये लाचार आँखें किसी के आगे वहाँ का कभी कोई भेद खोलकर रख दें।

प्रेम को प्रकट कर देनेसे क्षुद्र अहंकार और भी अधिक फूलने-फलने लगता है। ‘मैं प्रेमी हूँ’- बस, इतना ही तो अहंकार चाहता है। ‘मैं तुम्हें चाहता हूँ’ -बस, यही खुदी तो प्रेम का मीठा मजा नहीं लूटने देती। ब्रह्मात्मैक्य के पूर्ण अनुभवी को ‘सोऽहं, सोऽहं’ की रट लगाने से कोई लाभ? महाकवि ग़ालिब ने क्या अच्छा कहा है–

कतरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया, लेकिन/ हमको तकलीदे तुनक जानिये मंसूर नहीं।

मैं भी बूंद नहीं हूँ, समुद्र ही हूँ- जीव नहीं, ब्रह्म ही हूँ- पर मुझे मंसूर के ऐसा हलकापन पसन्द नहीं। मैं ‘अनलहक’ कह-कहकर अपना और ईश्वरका अभेदत्व प्रकट नहीं करना चाहता। जो हूँ सो हूँ, कहने से क्या लाभ। सच बात तो यह है कि सच्चा प्रेम प्रकट किया ही नहीं जा सकता। जिसने उस प्यारे को देख लिया वह कुछ कहता नहीं, और जो उसके बारे में कहता फिरता है, समझ लो, उसे उसका दर्शन अभी मिला ही नहीं। कबीर की एक साखी है– जो देखै सो कहै नहिं, कहै सो देखै नाहि। सुनै सो समझावै नहीं, रसना ग श्रुति काहिं॥

इसलिये प्रेम तो, प्यारे, गोपनीय ही है।

(गीताप्रेस से प्रकाशित श्री वियोगी हरि लिखित ‘प्रेमयोग’ नामक ग्रन्थ से)


हिन्दू अकेला धर्म, जिसने उत्सव में प्रभु को देखने की चेष्टा की