स्मरण: मुनव्वर राना (26 नवम्बर 1952 – 14 जनवरी 2024)

डॉ. ओम निश्चल।

‘तो अब इस गांव से रिश्ता हमारा खत्म होता है,
फिर आंखें खोल ली जाएं कि सपना खत्म होता है।
बहुत दिन रह लिए दुनिया के सर्कस में तुम ऐ राना,
चलो अब उठ लिया जाए तमाशा खत्म होता है।’

लंबे अरसे से बीमार चल रहे जाने-माने शायर मुनव्वर राणा साहब इस दुनिया मे नहीं रहे। इन दिनों वे डायलिसिस पर थे और कुछ अन्य परेशानियां भी थीं जो उन्हें हमसे छीन कर ले गईं। उनसे आखिरी मुलाकात 10 दिसंबर 2023 को हुई थी। लखनऊ पुस्तक मेले के सिलसिले में लखनऊ जाना हुआ तो फुर्सत के कुछ पल निकाल कर उनसे मिलने हम ढींगरा अपार्टमेंट पहुंचे थे। उस दिन शायद वह डायलिसिस का दिन नहीं था तो थोड़ी राहत थी। उनके साथ बैठे। बातें कीं। उनकी शायरी की किताब `गजल में आप बीती` की प्रतियां भेंट की। कुछ कॉपीज पर उनके सिग्नेचर लिए उनके पाठकों के लिए और बीच-बीच में उनके किस्से, उनके संस्मरण और अशआर भी सुनते रहे। ऐसा लग रहा था कि पता नहीं फिर मुलाकात हो न हो, इसलिए हम बड़े चाव से उनकी बातें सुन रहे थे।

इस गुफ्तगू में कभी नासिर काजमी, कभी वाली आसी उनके परिवार की बातें, भारत भूषण पंत, इंदु प्रभात श्रीवास्तव आदि लोगों के बारे में वह रह रह कर बताते जाते थे। उर्दू शायरी क्या है। उसकी क्या विशेषता है और जहां-जहां से उन्हे चीजें याद आ रही थीं, वे उन्हें खोल कर रख देना चाहते थे।

उन्होंने हमारे मित्र डॉ आनंदवर्धन द्विवेदी, केशव मोहन पांडे और मेरे लिए और अपने लिए भी बेहतरीन चाय बनवाई और बीच-बीच में चुस्कियां लेते रहे और गुफ्तगू करते रहे। अब ऐसे लम्हे उनके साथ संभव नहीं कि हम फिर लखनऊ जाएं, उनके साथ बैठें , गुफ्तगू करें और चाय पीकर लौटें।

इसी दौरान एक शेर उन्होंने सुनाया जिसे सुनकर आंखें नम हो आयीं:

‘एक बार फिर से मिट्टी की सूरत करो मुझे/ इज्जत के साथ दुनिया से रुखसत करो मुझे। तुमने तो खुद कहानी को रंगीन कर दिया/ पानी ने कब कहा था कि शरबत करो मुझे!’

और सचमुच वे इस दुनिया से रुखसत हो चुके हैं अपनी यादें अपने संस्मरण अपने अंदाज ए बयां अपनी शायरी को यही अजर अमर छोड़कर।

इससे पूर्व जागरण संवादी के दौरान लखनऊ जाने पर भी उनसे मिला था। पर पता न था कि वे इतनी जल्दी आंखों से ओझल हो जाएंगे और हम अब उनसे कभी न मिल पाएंगे।

राणा साहब से एक लंबे अरसे से मिलना जुलना होता रहा है। जब पटना में तैनात था तो उनसे तब मुलाकात हुई थी जब उनका संग्रह `मुहाजिरनामा’ आने वाला था। उस पर आधारित एक लंबी बातचीत भी हमने दैनिक जागरण के लिए की थी। इससे पूर्व वाणी प्रकाशन से आए उनके कई संग्रहों पर इंडिया टुडे में एक साथ आलेख लिखा था तथा बाद में `मौसम के फूल` और `मुहाजिरनामा` पर भी क्रमशः इंडिया टुडे और शुक्रवार में रिव्यू लिखी थी। `मीर आ के लौट गया` उनकी बेहतरीन आत्मकथा की पुस्तक थी जिस पर हिंदुस्तान में लिखा और बाद में एक लंबी समीक्षा गंभीर समाचार में भी।

मेरा जब-जब लखनऊ जाना होता ,उनसे बिना मिले नहीं आता था । इस बार गत दो महीने में तीन बार जाना हुआ जिसमें से एक बार इसलिए नहीं मिल पाए कि वह डायलिसिस के लिए हॉस्पिटल के बिस्तर पर लेटे हुए थे। सोचा अब घर लौटेंगे तो कितना थके हुए होंगे। अगली बार मिलते हैं।

इस बार भी मिल के आए तो मन में यही अहसास था पता नहीं अब फिर मुलाकात हो न हो। `गजल में आपबीती` का नया संस्करण उन्होंने हाथो में उठाया, फोटो खिंचाई। बातें करते रहे। उम्दा चाय बनवा कर पिलवाई। हम फिर मिलने का वादा कर विदा हुए।

उनके घर से लौटते हुए यही लग रहा था कि गए एक दशक से उन्हें घुटने की बीमारी ने परेशान कर रखा था। फिर बीच में किडनी की समस्या भी आन पड़ी। अब हफ्ते में तीन-तीन दिन डायलिसिस, जिसमें शरीर लगातार निचुड रहा था। फिर भी वे बहुत जिंदादिल थे कि उन्होंने अंत तक हार नहीं मानी।  लेकिन जिस तरह वह कमजोर होते जा रहे थे उससे लगता था कि पता नहीं वह कैसे संभाल पाएंगे इस बीमारी को। हाल ही में पढ़ा राशिद अनवर `राशिद` का ताजातरीन शेर मेरे जेहन में घूम रहा था: ‘तो यह हुआ कि हवाओं की जद में आ ही गया/ संभलता कैसे कि कमजोर हो गया था दरख़्त।’ आज एक बड़ा दरख़्त नहीं रहा।

(लेखक सुपरिचित साहित्यकार एवं कवि हैं)