ओशो।
जिंदगी बहुत कठिन हो जाए तो हम बेईमानी को रोक नहीं सकते। और जिंदगी बहुत कठिन हो गई है। आदमी जिंदा रहना चाहता है। जब उसके जिंदा रहने के लिए ईमानदारी आसान नहीं रह जाती, तो वह बेईमानी करने पर मजबूर हो जाता है। असल में किसी देश या कौम को अगर ईमानदार, भला और सज्जन होना हो, तो संपन्न होना पहली शर्त है।
अगर पचास आदमियों के खाने लायक भोजन हो और पांच हजार आदमी मौजूद हों तो, आप यह पक्का समझ लीजिए कि यह बहुत मुश्किल है कि यहां चोरी और उपद्रव शुरू न हो जाएं। जहां पचास लोगों के लिए भोजन उपलब्ध हो और पांच हजार लोग भोजन पाने के लिए तैयार हों, वहां बहुत प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। लोग बेईमानी, चालबाजी, हर तरह से भोजन को पाने की कोशिश में लग जाएंगे। अगर इन पांच हजार लोगों को ईमानदार बनाना हो तो कम से कम पांच हजार लोगों के लायक भोजन चाहिए। अन्यथा यह ईमानदारी बहुत मुश्किल है, यह अपेक्षा नहीं की जा सकती।
अगर दिल्ली में पानी की कमी हो जाए तो लोग पानी को रात में चोरी कर ले जाने लगेंगे। अभी कोई पानी को चोरी कर नहीं ले जा रहा है। कल तक कोई पानी को नहीं चुरा रहा था, आज पानी की कमी हो गई है और लोग पानी को चुराने लगे हैं। इसका क्या मतलब है? लोग चोर हैं या पानी की कमी है?
आदमी बेईमानी करने पर मजबूर
आदमी जिंदा रहना चाहता है। जब उसके जिंदा रहने के लिए ईमानदारी आसान नहीं रह जाती, तो वह बेईमानी करने पर मजबूर हो जाता है। यह जितनी बेईमानी हमें चारों ओर दिखाई पड़ रही है, इस बेईमानी का बुनियादी कारण आदमी की खराबी कम, हमारी गरीबी की अधिकता ज्यादा है।
अगर आज यूरोप और अमेरिका के मुल्कों में सड़क पर अखबार रख दिया जाता है और पेटी रख दी जाती है। लोग पैसा डालते हैं और अखबार ले जाते हैं। तो इसका मतलब यह नहीं है कि वे बहुत ईमानदार हो गए हैं। इसका कुल मतलब इतना है कि एक आने की चीज चुराने की किसी को भी कोई जरूरत नहीं रह गई है। वे कोई हमसे ज्यादा ईमानदार हो गए हैं, इस भ्रम में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। वे भी हमारे जैसे लोग हैं। लेकिन एक आने का अखबार कौन चुराएगा? एक आने का अखबार चुराने योग्य हैसियत किसी की भी नहीं रह गई है। तो आदमी एक आने को डाल जाता है, अपना अखबार ले जाता है।
अगर दिल्ली में हम पेटी रख दें बाजार में सुबह पांच बजे और अखबार रख दें, तो पहला ही आदमी अखबार भी ले जाएगा और पेटी भी ले जाएगा। दूसरे आदमी को पैसे डालने की मुसीबत नहीं आएगी। इसका कारण यह नहीं है कि दिल्ली के लोग चोर हैं। इसका कारण सिर्फ इतना है कि एक आना भी इतनी मुश्किल चीज है कि उसके लिए आदमी चोर हो जाता है।
असल में जिंदगी अगर बहुत कठिन हो जाए तो हम बेईमानी को रोक नहीं सकते। और जिंदगी बहुत कठिन हो गई है। और इस जिंदगी के कठिन होने में कौन जिम्मेवार है?
इतनी आसानी से यह बात नहीं कही जा सकती।
ईमानदारी वगैरह सब लग्जरीज़ हैं
मुल्क के पास शक्ति कम रह गई है। भोजन की, कपड़े की, रोजगार की सुविधाएं कम रह गई हैं और लोग बढ़ते जा रहे हैं। अभी तो आसान है, अभी तो इतनी चोरी और बेईमानी नहीं हो गई है। अगर दस-बीस साल आबादी उदारभाव से बढ़ती गई, तब आपको चोरी और बेईमानी की शिकायत करने का मौका भी नहीं रहेगा, क्योंकि चोरी और बेईमानी ही रह जाएगी। अगर एक-एक पैसे के लिए आदमी की हत्या न होने लगे बीस साल में इस मुल्क में, तो आप समझना कि आश्चर्य की बात है। वह होने लगेगी। क्योंकि जब इतने लोग बढ़ जाएंगे और जिंदगी मुश्किल हो जाएगी, तो फिर जिंदगी को जीने की हर आदमी दम तोड़ कर कोशिश करता है। और जहां जिंदगी दांव पर लगी हो, वहां फिर वह ईमानदारी वगैरह की फिक्र नहीं करता। ईमानदारी वगैरह सब लग्जरीज़ हैं, सुविधा संपन्न लोगों की बातें हैं। असुविधा से भरे हुए लोगों की बातें नहीं हैं।
और ज्यादा बेईमानी क्यों नहीं है
असल में किसी देश या कौम को अगर ईमानदार, भला और सज्जन होना हो, तो संपन्न होना पहली शर्त है। अगर संपन्नता को हम पूरी न कर पाएं, तो यह हो सकता है कि लाख, दो लाख आदमी में एकाध आदमी ईमानदार सिद्ध हो जाए। लेकिन एकाध आदमी से कोई जिंदगी नहीं चलती, वह आदमी अपवाद है। यह हो सकता है पूरे मुल्क में दस-पच्चीस लोग शीर्षासन करने में कुशल हो जाएं। यह ठीक है, हो सकता है। लेकिन सारे लोग सिर के बल खड़े नहीं हो सकते। सारे लोग तो पैर के बल ही चलते रहेंगे। जिंदगी के सामान्य नियम यह कहते हैं कि हमारी हालतें इतनी बुरी हैं कि हमें इस पर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि इतनी बेईमानी क्यों है? हमें इस पर हैरानी होनी चाहिए कि और ज्यादा बेईमानी क्यों नहीं है। चीजें इतनी बुरी स्थिति में खड़ी हो गई हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए संपत्ति पैदा करने के प्रयास में लगना जरूरी है।