सत्यदेव त्रिपाठी ।

ये लोग जो हमें पटरी, फुटपाथ पर अक्सर मिल जाते हैं चाय बेचते या कुछ और छोटा मोटा काम धंधा करते- जो हमारी किसी गिनती में नहीं आते, उनमें से कई के जीवन में झांककर देखें तो कितना कुछ सीखने को मिल सकता है।


अपनी सांस्कृतिक विरासत से सम्पन्न मध्य प्रदेश प्रांत के पश्चिमोत्तर भाग में हवाई तो क्या, रेलवे मार्ग से भी कटा-छंटा सुदूर प्रांतर ‘सीधी’ अपनी लोक-कला व संस्कृति के लिए विख्यात है। और सीधी शहर के मुख्य मार्ग पर स्थित ‘मानस भवन’ वहां की सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र है। जिन तीन दिनों वह सड़क और मुहल्ला ‘सीधी लोकरंगोत्सव’ की रंग-बिरंगी सजावट और गाजे-बाजे के साथ लोक कलाकारों की विविधरंगी प्रस्तुतियों और शामों को नाटकों के मंचन तथा देश के तमाम चिंतकों-साहित्यकारों के गरमागरम विचारों एवं अपने अंचल के राजनेताओं-प्रशासकों की आवाजाही आदि की गहमा-गहमी से गुलजार था, शाम को चाय की तलाश में मेरी नजर पड़ी ठीक उसी की बगल में एक हाथ गाड़ी के पास खड़ी औरत पर, जो चाय के साथ कुछ खाद्य-पदार्थ भी बेच रही थी।

पता चला उसका नाम प्रेमवती है। पति का नाम तो है बोलई, पर आधे-पौने घण्टे के दौरान वे एक शब्द भी बोले नहीं- बस, आसपास साफ-सफाई व बर्तन का काम करते रहे। प्रेमवती को ‘भूँजबा’ जाति का होने पर बड़ा गर्व है। मैंने भूँजबा से भूँजना शब्द पकड़ लिया और ‘कहांर’ जाति समझ लिया, क्योंकि अपने यहां दाना भूँजने वालों को कहांर कहते हैं, पर प्रेमवती ने इसका मुखर विरोध किया- कहांर ना हई हमन, भूंजबे हई – ‘कलछुली तिवराइन’ कहा जात है हमन के’। तब मतलब समझ में आया कि हमारे यहां के कहांरों के पानी भरने और कांवर ढोने का काम छोड़कर दाना भूनने के साथ इनका मुख्य काम भोजन बनाने का है, जो ब्राह्मण भी करते रहे हैं… अत: ‘तिवराइन’। सो, वही काम यहां सड़क पर करने का जोड़ भी समझ में आ गया।

इहां तो हमेसै कुछ ना कुछ चलतै रहत है

चाय पीते हुए पूछ दिया- ‘तुम्हें पता है, ये यहां क्या चल रहा है’? उसका निरपेक्ष-सा जवाब मिला- ‘इहां तो हमेसै कुछ ना कुछ चलतै रहत है…’। उसकी इस बेरुखी और बेफिक्र अदा में छिपी एक ऐसी कशिश थी और चाय-नाश्ते की गाड़ी के पीछे बसे कुनबे में कुछ ऐसा कुतूहल व खिंचाव-सा महसूस हुआ कि दूसरी सुबह अतिथिगृह से वॉक करते हुए मेरे पांव आपोआप उस टपरे पर पहुंच गए।
सुबह की ठण्ड में आग जल रही थी, आसपास के ही एक लड़के के साथ वही औरत बैठी हाथ भी सेंक रही थी और चाय भी बना रही थी। एक अनाथ-सा हड्डी का ढांचा चाय मांग रहा था। चाय पीने की बात करके मैं भी हाथ सेंकने के बहाने बैठ गया। इस वक़्त स्त्री के चेहरे पर शाम की ऊब के बदले बड़ी ताजगी और खुशी थी। सो, बात ही बात में बात शुरू हो गयी।

गाड़ी पर लदा होटेल

पता चला उसका नाम प्रेमवती है। पति का नाम तो है बोलई, पर आधे-पौने घण्टे के दौरान वे एक शब्द भी बोले नहीं- बस, आसपास साफ-सफाई व बर्तन का काम करते रहे। प्रेमवती को ‘भूँजबा’ जाति का होने पर बड़ा गर्व है। मैंने भूँजबा से भूँजना शब्द पकड़ लिया और ‘कहांर’ जाति समझ लिया, क्योंकि अपने यहां दाना भूँजने वालों को कहांर कहते हैं, पर प्रेमवती ने इसका मुखर विरोध किया- कहांर ना हई हमन, भूंजबे हई – ‘कलछुली तिवराइन’ कहा जात है हमन के’। तब मतलब समझ में आया कि हमारे यहां के कहांरों के पानी भरने और कांवर ढोने का काम छोड़कर दाना भूनने के साथ इनका मुख्य काम भोजन बनाने का है, जो ब्राह्मण भी करते रहे हैं… अत: ‘तिवराइन’। सो, वही काम यहां सड़क पर करने का जोड़ भी समझ में आ गया। सुबह 6.30 बजे से शाम को साढ़े सात तक खुला रहता है यह गाड़ी पर लदा होटेल। 20 रुपये में 10 पूरी और भाजी-भात देते हैं अचार-सलाद के साथ- ‘दाल बनावे के जंझट हम ना करीत’। मुझे नाश्ते पर आमंत्रित भी किया और बात की लालच में मैंने जाके खाया भी और आते हुए चाय पीने के मिस फिर उससे मिले बिना आ न सका।

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बीसों साल से इसी फुटपाथ पे धन्धा और रहना

अपने मूल गांव का नाम तो प्रेमवती को मालूम है- सतवारा, पर वह कहां और किस जिले में है, का पता नहीं। बस, इतना मालूम है कि बीस रुपये बस का भाड़ा लगता है। पति चार भाई हैं और सास अभी जीवित हैं। सबका मिलाकर कुल 3-4 बीघे खेत हैं, जिससे इतना बड़ा परिवार चलता नहीं। इसलिए यहां आना पड़ा और थोड़ा भटकने के बाद अब बीसों साल से इसी फुटपाथ पे धन्धा और रहना लिये हुए पड़े हैं। गांव आते-जाते हैं और वहां कुछ पैसे भी देते हैं। यहां नगरपालिका वाले हफ्ता लेकर रहने तो देते हैं, पर बसने नहीं देते। रह-रहकर सब उजाड देते हैं, उठा ले जाते हैं। तब 200 रुपये जुर्माना भरके लाते हैं और फिर शुरू करते हैं। धन्धा औसतन एक हजार रोज का हो जाता है, लेकिन आमदनी इतनी नहीं होती कि घर बना सकें। फिर भी कुछ दूरी पर किसी तरह दो कमरे बनवा रहे हैं- ‘देखा, कब ले बनि पावत है’!

‘का करीं साहेब, हमरी सुनै वाला केहू नाहीं’

लेकिन सबसे अधिक दर्दनाक है बोलई-प्रेमवती के बच्चों की दास्तान, जो इस परिवार की दुर्दशा का दूसरा बड़ा कारण है। एक बेटा था, जो मर गया और दो बेटियों में एक को ससुराल वालों ने गला दबाके मार डाला और दूसरी के पति ने चमारिन रख ली, तो वो छोड़कर चली आयी। अब वह भी यहीं रहती है और इसी काम में लग गयी है। दोनों पर केस किया। लेकिन बेटी को मार डालने वाला दामाद बहुत पैसे वाला है। जेल में बन्द हुआ था, पर खिला-पिला कर जल्दी ही छूट गया। सुना गया कि पांच लाख रुपया खर्च किया उसने। केस अभी भी बन्द नहीं हुआ है, लेकिन कुछ होने की कोई आस नहीं रह गयी है। उसने दूसरी शादी भी कर ली है। ठाट से रह रहा है- ‘का करीं साहेब, हमरी सुनै वाला केहू नाहीं’। दूसरी वाली में क्या करना है, कुछ पता ही न था। किसी पण्डित नेता ने पैसा-वैसा लिया कि चमारिन को हटाकर बेटी को वापस रखवाएंगे या उससे दण्ड-जुर्माना भरवाएंगे, पर ‘ऊ तो उधरो से भी पैसा खाय लिहिन, हम सबका टरकावै लागिन। तब का करें, अब इही तरे गुजारा कइ रहल हई’।

हर सुविधा से महरूम पांच प्राणियों का परिवार

मुझे नाश्ता उसी लड़की ने ही दिया, पर न कुछ बोली, न अपना नाम ही बताने दिया। खुद सड़क पर रहने और सड़क पर ही काम करने वाली प्रेमवती ने अपनी बहन की भी एक बेटी को रख लिया है। पढ़ा रही है। और उसके साथ एक और बच्ची दिखी, जो सम्वभवत: इसी बेटी की है। इस तरह पांच प्राणियों का यह प्रेमवती-परिवार दुनिया की हर सुविधा से महरूम है। दैहिक-दैविक-भौतिक तीनो तापों से त्रस्त है, पर इतना सरल, कुण्ठामुक्त कि दो मिनट की बात कर देने भर से मुझे अपना सबकुछ बता गयी- न कोई भय, न शर्म-संकोच। और मैं… लिखने का अपना स्वार्थ बता तक न सका। उसे इसकी भी न पड़ी कि मैं यह सब क्यों पूछ रहा। और मैंने पूछा न होता, तो उसकी हंसमुखता में सब ढंका-छुपा ही रहता।
मन मसोसकर आते हुए मुझे बेतरह वह याद आता रहा, जिसे लिखा साहिर ने और जयदेवजी के संगीत तथा मुहम्मद रफी की आवाज में जो अमर हो गया, पर उसे सहज ही साकार कर दिया है जीवन में उतारकर इस अकिंचन प्रेमवती ने- ‘गम औ खुशी में फर्क न महसूस हो जहां, मैं खुद को उस मुकाम पे लाता चला गया…’।


जिंदगी हाशिए पर : सगड़ी चलाके चलता दस प्राणियों का जीवन