सत्यदेव त्रिपाठी। 

उस दिन घर में बैठा था कि दो आवाजें एक साथ आयीं – कबाड खरीदने की गुहार और मोटरगाड़ी का हॉर्न। जितनी सुबह थी, बनारस जैसे अलमस्त शहर में किसी आने-जाने वाले –वो भी गाडी से- की उम्मीद कम ही थी। सो, मैं मुआयना करने के हिसाब से बाहर निकला, तो देखा कि मोटरगाड़ी पर दो नौजवान चकबका रहे हैं – शायद अपनी गुहार पर किसी के घर से निकलने के लिए ही। और मुझे निकला देखा, तो मैंने भी उत्सुकतावश हाथ से इशारा कर दिया और गाडी मुडकर मेरे द्वार (गेट) पर। 


 

क्या खरीद रहे हो? – मैने पूछा, तो जवाब मिला – कबाड। मुझे आश्चर्यवश दिलचस्पी हुई – घर-घर घूमकर कबाड माँगना और मोटरगाड़ी से! ‘देसी मुर्गा बिलइती बोल’ जैसी कई कहावतें मन में उठीं और याद आये अपने चाचाजी, जो खेत देखने जाते थे सायकल से और सब लोग उन पर फब्तियां कसते थे। अब तो स्कूटर-मोटर सायकल से जाने का रवाज ही हो गया।

उसने याद दिलाया

पर अब तो बुला लिया था, तो इस सबको दबाकर बात आगे बढायी – क्या-क्या लेते हो, कहाँ से आते हो.? और तब  ‘यहीं सुन्दरपुर के पास पटिया में रहता हूँ, हफ्ते में दो बार इधर आता हूँ,’ कहते हुए उसने याद दिलाया – अंकल, अभी तो महीने भर पहले आपने ढेर सारी रद्दी बेची थी – मोटी-मोटी पत्रिकाएं थीं… आपने मेरा नम्बर भी लिया था’। और नम्बर बोला, तो ‘रद्दीवाला अनिल’नाम स्क्रीन पर आ गया। अब मेरे मुँह से निकला – लेकिन उस वक्त तुम्हारे पास ये गाडी न थी, इसलिए मेरे ध्यान में नहीं आया। जवाब में उसने स्पष्ट किया कि अभी कुछ दिनों पहले ही लिया है – 10,000 रुपये में किसी की इस्तेमाल की हुई।

‘तो आओ, इसी खुशी में चाय पिलाता हूँ और तुम्हारी कहानी सुनता हूँ कहते हुए उसे बरामदे में ले आया – अब तक इस स्तम्भ के लिए सामग्री का ख्याल मन में आ चुका था।

पिता से ही पाया यह धन्धा

पूरा नाम है – अनिल कुमार अग्रहरी – अग्रहरी याने बनिया। मूल मुक़ाम प्रतापगढ जिले में, पर 13-14 सालों से बनारस में ही रहता है और यही धन्धा करता है। यह धन्धा पिताजी से बिरासत में मिला, किंतु यह अनिल का खान्दानी पेशा न था। पर पिता से पिता तक सब कपडे का रोज़गार करते थे, लेकिन कभी ज़बर्दस्त घाटा हुआ और पिता का धन्धा एकदम टूट गया। वे प्रतापगढ छोडकर बनारस चले आये और किसी सिलसिले से कबाड का यही धन्धा करने लगे। कर्ज़ उतर गया, तो अब अपने घर चले गये, पर अनिल ने यह धन्धा पिता से ही पाया। यूं वह 2006-07 के आसपास देढ साल मुम्बई भी रह आया है। चेम्बूर के इलाके में सब्जी का धन्धा करता था। सुल्तानपुर-प्रतापगढ के चार-पाँच सौ लोग आज भी करते हैं। लेकिन म्युनिसिपैलिटी वाले रोज़ पकड लेते थे। बहुत जुर्माना भरना पडता था, जिससे ऊबकर अनिल चला आया। वहाँ से आकर इस धन्धे में जो लगा, तो अब इतना रम गया है कि भविष्य का सपना भी देखता है, तो कबाड की अपनी दुकान का हीइसके अलावा दूसरा कुछ भाता ही नहीं। इसी जुडाव के चलते ही इतना कमा सका कि मोटरगाड़ी खरीद ली, रोज़ही पर एक सहायक रख लिया – बाबू राजा, जो साथ में है। पूरब में गंगा के किनारे ‘सामने घाट’ से लेकर पश्चिम में अथरा तक लगभग 15 किमी. का क्षेत्रफल है उसके धन्धे का, जो सामान सहित सायकल से मुश्क़िल व थकाऊ होता था। अब गाडी से आसान व आरामदेह हो गया है। सच ही है कि लगन-लगाव से किया जाये, तो धन्धा कोई भी बुरा नही – धन-दा तो होगा ही।

हिसाब बताया अनिल ने खरीदी का – लोहा 120 रुपये किलो, अल्म्युनियम 100 रुपये, पीतल 260 और ताँबा 350 रुपये किलो मिलता है। सब पे 10 से लेकर 25 रुपये किलो तक फायदा मिल जाता है। लेकिन ये धातुएं बहुत कम मिलती हैं। ज्यादा तो कबाड ही मिलता है – बिजली के सामान, बैटरी और कागज़-किताबें वग़ैरह, जिन पर कोई ख़ास लाभ नहीं मिलता। उक्त लागत के साथ गाडी का पेट्रोल व मरम्मत तथा सहायक राजा बाबू की मज़दूरी आदि को मिलाकर धन्धे की कुल लागत के साथ रहने-खाने का खर्च भी जोड लिया जाये, तो कुल 2000 रुपये प्रति दिन का खर्च है। इसके बाद 5 से 6 सौ तक रोज़ का बच जाता है, जिसमें से काफी पैसा घर भेजना पडता है, जहाँ दो छोटे बच्चे और बीवी हैं। दो भाई भी हैं, जो अपना-अपना कमाते हैं। तीन बहनें शादी होकर अपने घर हैं। पिता अब कुछ नहीं करते, घर रहते हैं। तीनो बेटे मिलकर उनका निर्वाह करते हैं। यहाँ अनिल दोनो जून का खाना-नाश्ता होटेल में ही करता है, घर में बनाने का झंझट नहीं पालता। सिर्फ नहाने-सोने का 2400 रुपये महीने किराया देता है। जब से गाडी आयी है, एकाध बार पकडा गया है और 100-200 देके निकल आया है। लेकिन यह सब उसे सहर्ष क़ुबूल है, कोई शिक़वा-गिला नहीं जिन्दगी से। पुलिस या गुण्डे-बदमाशों का कोई दबाव या डर नहीं है उसके पेशे या घर में। कुल मिलाकर अपने इस जीवन से वह काफी संतुष्ट है – ‘जब आये संतोष धन, सब धन धूरि समान’ के रूप में रहीम का अनुयायी।

बच्चे कोई अच्छी नौकरी या धन्धा करें

ऐसे दर्ज़ा 6 पास है अनिल। लेकिन उसे कुछ भी पढने-लिखने में कोई रुचि नहीं। बात कर लेने भर का सामान्य फोन रखता है – फोटो खींचने में रस नहीं और व्हाटसअप आदि का ठीक से पता तक नहीं। अख़बार पढने या सरकार-चुनाव आदि में भी दिलचस्पी नहीं। ख़ास पता मोदी के बारे में भी नहीं है – बस, नाम भर जानता है। लेकिन अगली बार मोदी फिर प्रधानमंत्री बनें, की इच्छा रखता है – शायद किसी और को जानता ही नहीं, इसीलिए। शौक के नाम पर भोजपुरी फिल्में देखता है, पर देखते भर ही याद रहती हैं, फिर भूल जाता है। अपने जीवन का ढर्रा तो उसने सीमित कर लिया है। स्वयं के लिए कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं, पर अपने बच्चों को अच्छा पढाना चाहता है अनिल और कोशिश करेगा कि बच्चे कोई अच्छी नौकरी या धन्धा करें। …हम कामना करेंगे कि उसकी इतनी-सी इच्छा पूरी हो!


हाँ मम्मी, हाँ ऑण्टी, हाँ दीदी….