सत्यदेव त्रिपाठी।

गरीबी है, संघर्ष है, कष्ट हैं… लेकिन वह अतिसामान्य महिला जीवन को विनम्रता और दृढ़ता से जीती है। कल क्या होगा की चिंता से बेखबर।


 

गुजरात की राजधानी गांधीनगर व उस प्रांत के मशहूर शहर वडोदरा (बड़ौदा) के ठीक मध्य में स्थित आणन्द (अमूल डेरी वाला) के पास है सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्मस्थल करमसद, जहां उनकी स्मृति में बेहद सुनियोजित ढंग से और सभी जरूरी सुविधाओं से सम्पन्न एक सुरम्य शहर बसाया गया है ‘वल्लभ विद्यानगर’ …और इसी के हृदयस्थल में राजेन्द्र मार्ग पर स्थित है मेरे दो दशक पुराने मित्र, देश की पहली पंक्ति के चित्रकारों में शुमार, एक अच्छे नाट्यकर्मी एवं सिने कलाकार श्री कनुभाई पटेल का कार्यालय- लज्जा कम्युनिकेशन। पिछली दस मार्च को उनसे मिलने जाते हुए उनके आफिस के सामने की तरफ सड़क पर एक ठेला दिखा, जिस पर बोर्ड लगा था- ‘सरस्वती समोसा सेंटर’ और उसी ठेले पर रखे स्टोव पर समोसे तलती दिखी एक दुबली-पतली निरीह-सी काया, जिसे मैंने सरस्वती ही समझा। लेकिन ऊपर जाकर कनु से जिक्र करने पर पता लगा कि उस कृशकाय का नाम सरस्वती नहीं, तारा है एवं गुजराती चलन के अनुसार हर स्त्री के नाम के आगे बेन (बहन) लगाने की शैली में वे यहां ‘ताराबेन’ के रूप में जानी जाती हैं। आज से 20 साल पहले ताराबेन के पिता भिखा भाई ने जब यह धन्धा शुरू किया, तो कनु की चित्रकारिता के भी शुरुआती दिन थे और उसी ने उनके बोर्ड को रूप दिया (डिजाइन किया) था। फिर तो ताराबेन से मिलना व पूरा ब्योरा लेना एकदम आसान ही हो गया।

मां जसोदाबेन यह धन्धा चलाया करती थी

ताराबेन ने बताया कि पिता की मृत्यु के बाद तो उनकी मां जसोदाबेन यह धन्धा चलाया करती थीं और उनके जाने के बाद पिछले पांच सालों से अब वे चला रही हैं, क्योंकि शादी के बाद पति की बेरोजगारी और पीने की लत से घर बड़ी सांसत में रहता था। दो साल पहले इनके पति भी नहीं रहे। उनके दो बेटे हैं। बड़ा वाला दसवीं पास करके 5000 रुपये माह की कोई नौकरी कर रहा है और छोटा वाला दसवीं में पढ़ रहा है तथा खाली समय में धन्धे में मदद करता है। मां की इच्छा है कि छोटा बेटा खूब पढ़े, पर बेटे का मन पढ़ने में नहीं लगता। वह इसी धन्धे में लगना चाहता है- बस मां के दबाव वश दसवीं का इम्तहान दे रहा है।

अपनी मेहनत तो ताराबेन गिनती ही नहीं

नाम में बगहा भले ‘समोसा सेंटर’ ही कहा गया हो, पर ताराबेन इसके अलावा बटाटा पोहा और चाय भी बनाती-बेचती हैं। हां, नाम में ‘सरस्वती’ शब्द की सार्थकता इस बात में अवश्य है कि इसके ग्राहक मुख्यत: स्कूल-कॉलेज के छात्र हैं। इसीलिए रविवार को तो सेंटर बन्द रहता ही है, शनिवार को भी अच्छा धन्धा नहीं होता… और गर्मी व दीवाली की छुट्टियों के दिनों भी प्राय: बन्द-सा ही चलता है। बाकी दिनों सुबह 8 बजे से शाम के 7 बजे तक ताराबेन का समोसा सेंटर नियमित चलता है। समोसा और पोहा दोनों के दाम दस रुपये प्लेट ही हैं और कुल मिलाकर मोटे तौर पर सौ-डेढ़ सौ प्लेट की बिक्री के हिसाब से औसतन 1500 की कुल आमदनी में छह-सात सौ तो सामान आदि के खर्च हो जाते हैं। रात-दिन की अपनी मेहनत तो ताराबेन गिनती ही नहीं, इतनी सीधी हैं। उनका सीधापन देखकर मुझे तो कयास होता है कि कुछ शरारती बच्चे अवश्य प्लेट्स में धोखा कर देते होंगे और ताराबेन जानकर न बोलती होंगी या अनजान रह जाती होंगी। इस तरह कुल मिलाकर 30 हजार से कम की बचत में पूरा घर चलाने और कई सारे सामाजिक दायित्व निभाने में कतर-ब्योंत करनी पड़ती है।

सड़क तो बनवा रहे हैं न…

ऐसे में अपने घर की बात तो सपना ही है ताराबेन के लिए। शुरू से अभी तक तो धन्धे की जगह से चलके दस मिनट की थोड़ी ही दूरी पर संयोग से बहुत आलीशान इलाके में रहने का इंतजाम हो गया है। मैं वहां भी गया और वहां के बाग-बागीचों वाले परिवेश से इतना मुतासिर हुआ कि रहने की तमन्ना ही जग उठी। यह बहुत सभ्रांत ‘दामोदर मण्डल’ की जगह है, जिसमें ऐसे ही 5-6 परिवार रहते हैं, जो मण्डल की रखवाली या माली आदि जैसा कुछ न कुछ काम करते रहे होंगे, जो अब नहीं रहा। अब यह सब पंचायत के अधीन हो गया है, जिसकी तरफ से घर खाली करने का फरमान भी सबको मिल चुका है- बस, दो-चार महीने की बात है।
बात के इसी मुकाम पर मोदी (जिनका घर यहां से बहुत दूर नहीं) और उनकी सरकार के भरोसे वाली अपनी सदा की बात पूछने पर खुलके मुस्काराई ताराबेन और कहा कि सबके कहने पर वोट तो उन्हें ही देती हैं, पर वे इसमें क्या कर सकते हैं! सड़क तो बनवा रहे हैं न!

जिन्दगी से निरपेक्ष नहीं, निश्चिंत

यह घर छूट जाने के बाद ताराबेन का जीवनयापन और कठिन हो जाएगा। घर के भाड़े का खर्च तो बढ़ेगा ही, न जाने कितनी दूर मिलेगा, जिससे आने-जाने की असुविधा व मेहनत भी बढ़ेगी। लेकिन तब की कल्पना से घबराई या आहत नहीं हैं ताराबेन, वरन मानसिक रूप से अपने को तैयार कर लिया है- ‘जो पन होवेगा, जैसा पन… करके ही लेना पड़ेगा- छुटको तो छेच नही (छुटकारा तो है ही नहीं)’। बच्चों की कमाई से सुखी होने के भविष्य की भी कोई आशा नहीं पाले हैं ताराबेन, न कोई गणित ही लगातीं उस हालात के।
ऐसी ताराबेन जिन्दगी से निरपेक्ष नहीं, निश्चिंत हैं। शरीर से इतनी कमजोर, स्वभाव से इतनी विनम्र ताराबेन मानसिक रूप से इतनी दृढ़ हैं, जो आश्चर्य, पर संतोष और खुशी का सबब लगा- ‘न दैन्यं, न पलायनम्’ के रूप में अविस्मरणीय!


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