सत्यदेव त्रिपाठी।
बनारस रहने चले जाने के बाद जब पहली बार मुम्बई आया, तभी से हर बात पे सुमिरनी की तरह एक नाम सुनता रहा – राहुल… मालिया में से कोई सामान उतरवाना है, तो ‘सुबह राहुल आयेगा, उतार देगा’… गोदरेज की बडी आलमारी इस से उस कोने खिसकानी है, ‘राहुल सुबह खिसका देगा’… कमरा धुलना है, ‘संडे को कर देगा राहुल’…मेरी बची किताबों को छाँटने के लिए उतारना है, छाँट कर उन्हें पैक करना है, ‘संडे को राहुल कर देगा…. याने हर काम का एक निदान – राहुल।
गोया राहुल आदमी न होकर कोई देव-दानव हो, जो सब कुछ कर सकता है…और वह कर सकता नहीं, करता है – मैं देखता हूँ। संडे को 9-10 बजे आता है। शाम को 5-6 बजे तक जो बताओ, करके आ जायेगा – आण्टी, हो गया, अब क्या करूं… मुझे अल्वेयर कामू के सिसिफस की याद आ जाती है…मेरा ढेर सारा सामान टैक्सी में लाद के रात को पहुँचाने चला स्टेशन और बारिश व रास्ता जाम से निपटते हुए जब पहुँचे, तो गाडी छूटने को दो मिनट बाकी थे…सारा सामान उठाकर जिस वेग से दौडा राहुल कि अपने को तीसमार खाँ समझने वाला मैं पीछे भी न चल सका। पर सिसिफस तो मिथ था, यह राहुल तो हाड-माँस का आदमी है। और मेरी कल्पना में न जाने कैसे, सिसिफस मोटा तग़डा भीमकाय रूप में आता है – लॉफिंग बुद्धा की तरह, पर आजकल अमित शाह से मेल खाता हुआ। लेकिन राहुल तो 23 साल का लम्बा छरहरा युवक है। सुतवाँ बदन, हल्की-भीनी मूँछें, रंग साँवला, अंग-अंग में काम की लगी लगन और मौन उसका प्रिय सहचर धन… बिना बुलाये बोलता नहीं, बल्कि बुलाने पर भी आते ही काम बता दो, तो सर हिला के बिना बोले चल देगा। प्राय: पूरी बाँह का शर्ट और फुल पैण्ट घुटने तक मोडे हुए…और हमारी नज़रों से बचकर काम करने की कोशिश।
चाची के साथ आया मुम्बई
आज से 9 सालों पहले अपनी जिस चाची निर्मला के साथ आया मुम्बई, उसी के यहाँ नेहरू नगर की घनी झोपडपट्टी में आज भी रहता है और उसी के ज़रिए मेरे यहाँ भी आया… क्योंकि निर्मला तो बीसों साल से हमारे यहाँ यह-वह-सब काम करती और महीनों गायब होकर भी आती-जाती रहती है। उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ जिले में बहुत मशहूर पट्टी तहसील के अंतर्गत पतराँ गाँव का है राहुल खरवार। खरवार याने कहाँर, जिसे हमारे आज़मगढ में ‘गौड’ कहते हैं और जो हमारे बचपन में हम ब्राह्मण-ठाकुरों के यहाँ रोज़ सुबह-शाम पानी भरने और शादी-व्याहों में दूल्हे-दुल्हन की डोली ढोने से लेकर मुख्य ‘परजा’ के रूप में सारे काम करने तथा हमारी रिश्तेदारियों में ‘नेवता’ और तीज-खिचडी में बहन-बेटियों बेटियों के यहाँ बहँगी से सामान पहुँचाने के कई महत्त्वपूर्ण काम के अलावा शामों को भरसाँय या भाड (कई अइलों (खानों) की भट्ठी) झूँककर पूरे गाँव का दाना भी भूँजते थे। लेकिन अब सब खत्म हो गया– साप्ताहिक भरसाँय के अलावा। लेकिन राहुल को अपने पिता के काँवर चलाने की हल्की-हल्की याद के अलावा और किसी ऐसे जातिगत पारम्परिक काम का पता नहीं- शायद वहाँ होता ही न रहा हो। उसके पिता ढाई-तीन बीघे (डेढ एकड) की खेती करके घर चलाते… तो अभाव जगज़ाहिर। अत: किसी तरह गाँव के पास के स्कूल से माध्यमिक (मैट्रिक) पास करके पैसे कमाने मुम्बई आ गया। यहाँ कमाते हुए प्राइवेट फॉर्म भरके उच्च माध्यमिक (इण्टरमीडियएट) भी किया – दोनो में औसतन 50% अंक मिले।
इच्छा थी पुलिस में नौकरी करना
ऐसे राहुल खरवार की इच्छा थी पुलिस में नौकरी करना, जिसके लिए वह हर तरह से योग्य रहा। पढाई के अलावा आवश्यक शारीरिक तन्दुरुस्ती के लिए वजन की तैयारी व दौड आदि के अभ्यास भी कर रखे थे। लेकिन अपने आज़ाद भारत देश की व्यवस्था का खुला रहस्य (ओपेण्ड ऐण्ड जनरल सेक्रेट) है- लाखों की रिश्वत, जो नेहरूजी से लेकर इन्दिराजी के प्रधानमंत्रित्त्व से होते हुए मोदी-राज तक जस की तस है और भविष्य में बदलने वाली नहीं। और इसके लायक न राहुल बन सका, न राहुलों की आगामी पीढियां बन सकतीं। उसकी दूसरी इच्छा थी क्रिकेट में जीवन बनाना। बताया कि अच्छा खेल लेता था– अब भी मौका निकाल कर मुहल्ले के नौजवानों के साथ जुहू जाता है और सारी व्यस्तता के बीच में मैचों पर नज़र रखकर रखकर संतोष करता है, क्योंकि इसका हाल तो पुलिस वाले से हजारगुना गूढ है और इसका सबको पता है। फिर भी पते के लिए हाल की फिल्म ‘फरारी की सवारी’ को याद कर लें या देखे ही लें।
कैसा होगा भविष्य
इन सबका शिकार और सबसे हारकर राहुल ने यहाँ तो अपनी चाची के ही लस्तगे से तैयार स्त्री-कपडों (रेडीमेड लेडीज़ ड्रेसेज़) की दुकान पर भुलेश्वर बाज़ार में दस घण्टे रोज़ काम करने की नौकरी कर ली। 6000 से शुरू करके सात-आठ सालों में 10,000 तक पहुँचा था कि सेठ ने कान्दीवली में फैक्ट्री खोली, तो कपडा बेचने से कपडा बनाने में लगा दिया। वेतन 12000 हुआ, पर काम का श्रम दुगुना बढ गया। रविवार छुट्टी के दिन हमारे यहाँ फुटकर काम करके 500 कमाता है और रोज़ गाडी धोने व सुबह शाम पेट्स (कुत्तों) को घुमाने का 1500 महीने मिलाकर 2500 और कमा लेता है। रहने-खाने का 2500 रुपये चाची को देने और अन्य खर्च के बाद 6 से 7 हजार गाँव भेज पाता है, जहाँ माँ व बीवी तथा 4 व 2 साल की बच्चियां हैं। बहन की शादी का दो लाख कर्ज़ था – अभी 80,000 बचा है। आगे बच्चों का खर्च बढने वाला है। ऐसे में मुम्बई की भयंकर महँगाई में घर की सोच नहीं सकता और गाँव में भी घर बनाये बिना चलने वाला नही है। इसी सब में कैसा होगा भविष्य, में कोल्हू के बैल की तरह पिरने के अलावा कुछ दिखता नहीं… ।
पिशाची राजनीति
ऐसे राहुल, जो भरपूर जांगर, वफादारी और ईमानदारी तथा पुलिस-क्रिकेट जैसे अच्छे काम के लायक होकर मुख्य धारा में सुख से रहने के सर्वथा हक़दार हैं, व्यवस्था के दलाली साँचे और शिखर पर चलती पिशाची राजनीति में पिसकर हाशिए पर छटपटा रहे हैं…!!