प्रदीप सिंह।

कहते हैं जो लोग के इतिहास को भूल जाते हैं वो इतिहास बनने के लिए अभिशप्त होते हैं। क्या भारत और दुनिया भर में सिक्ख समुदाय के साथ ऐसा हो रहा है? हालांकि ऐसा निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता लेकिन उसके संकेत जरूर मिल रहे हैं। एक बात तो साफ़ है कि सिक्ख समुदाय में बेअदबी को किसी भी प्रकार से बर्दाश्त नहीं करते हैं। आप अपने धर्म की रक्षा करने के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तैयार रहते हैं यह अच्छी बात है। लेकिन हर चीज कानून, संवैधान और नैतिकता की एक सीमा के अंदर होना जरूरी है। एक दूसरी कहावत है- सहज पके सो मीठा होय। जो स्वाभाविक रूप से होता है वही बेहतर होता है। बेअदबी एक ऐसा मामला है जिस पर नाराजगी, ऐसा करने वाले के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग जायज है। लेकिन हत्या पर उतर आना, बेअदबी का आरोप लगाकर किसी को नृशंस तरीके से हाथ पैर काटकर तड़पा तड़पा कर मार डालना- ऐसा नहीं लगता कि यह सिक्ख धर्म के गुरुओं की सीख हो सकती है।


वीर कौन?

वीर वह होता है जो आत्मरक्षा में हथियार उठाए। उससे भी अधिक उस वीर का सम्मान होता है जो किसी कमजोर के रक्षा के लिए हथियार या हाथ उठाए। कमजोर को मारने वाला बहादुर नहीं कहा जा सकता और मुझे ऐसा नहीं लगता कि सिक्ख गुरुओं ने यह सीख दी है। किसी कमजोर, निहत्थे, अशक्त या बेकसूर (जब तक किसी पर दोष साबित ना हो जाए कब तक तब तक कानून की नजर में वह निर्दोष ही होता है) की हत्या करना जायज नहीं हो सकता है।

सीमित विकल्प

Nihang Sikh: निहंग सिखों ने मुगल-अफगानों का डटकर किया था सामना, अब इन 5 वजहों से विवादों में 'गुरु की फौज' - Who are Nihangs history meaning Controversies singhu border murder NTC -

निहंगों ने सिंघु बॉर्डर पर जो किया हम यहां उस पर बात नहीं कर रहे हैं। अफगानिस्तान पर बात कर रहे हैं। आज वहां सिखों की यह स्थिति हो गई है कि उनके सामने दो-तीन ही विकल्प बचे हैं। वे इस्लाम स्वीकार कर लें- या देश छोड़कर चले जाएं- या फिर मारे जाने के लिए तैयार रहें यानी अपनी जान दे दें। इन तीन के अलावा कोई चौथा विकल्प वहां सिक्खों के लिए नहीं बचा है। यह सिलसिला कोई आज शुरू नहीं हुआ है, काफी पहले से चल रहा है। खास तौर से 1990 में जब पहली बार अफगानिस्तान में तालिबान आया था तब से यह सिलसिला और तेज हो गया है। गुरुद्वारों पर हमला होना, बेअदबी होना- इन घटनाओं पर भारत का सिक्ख समुदाय कुछ नहीं बोलता है। अफगानिस्तान में दशमेश पिता गुरुद्वारा एक बड़ा गुरुद्वारा है। कुछ दिन पहले इस्लामिक कट्टरपंथियों ने वहां हमला किया, बेअदबी की, तोड़फोड़ की। इसके अलावा 2020 में एक और गुरुद्वारे पर हमला हुआ उसमें 28 लोगों को मार दिया गया। पर केवल यह दो घटनाएं ही नहीं है- यह सिलसिला वहां लंबे समय से चला आ रहा है।

इस्लाम को मानो वरना भाग जाओ

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हाल में भारत सरकार ने अफगानिस्तान से बहुत से सिक्खों को बाहर निकाला है। लेकिन वहां जो थोड़े से सिक्ख बच गए हैं उनके सामने क्या रास्ता है? जब 1990 में तालिबान अफगानिस्तान में आया था तो ट्राइबल वॉर लॉर्ड्स ने सिक्खों के घरों पर कब्जा कर लिया था. कोई कुछ नहीं कर पाया। अफगानिस्तान में सरकार चाहे तालिबान के हाथों में रही हो या ना रही हो- वह सिक्खों और दूसरे अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में लगातार नाकाम रही है। अभी अफगानिस्तान में ऐसी स्थिति है कि जो वहां की मुख्यधारा यानी सुन्नी इस्लाम को नहीं मानता है उसके सामने बहुत ज्यादा विकल्प नहीं है। मौजूदा सत्ता विविधता में यकीन नहीं करती। यह सत्ता या सरकार यह नहीं मानती कि जो लोग उनके धर्म, संप्रदाय या पूजा पद्धति को नहीं मानते हैं उनके साथ कोई नरमी होना चाहिए, उनको भी अपने धर्म और पूजा पद्धति के अनुसार जीने का हक है।

कल का औरंगजेब- आज का तालिबान

The Truth About Aurangzeb - Open The Magazine

अफगानिस्तान में इस समय कमोबेश वैसी ही स्थिति है जैसी भारत में औरंगजेब के शासन के समय थी। औरंगजेब के शासन के चार स्तंभ थे। पहला- इस्लामिक तौर तरीकों को बढ़ावा देना, दूसरा- हिंदुओं के खिलाफ नियम बनाना, तीसरा- धर्म परिवर्तन और चौथा- मंदिरों को तोड़ना। इन चार स्तंभों के सहारे औरंगजेब ने अपना साम्राज्य चलाने की कोशिश की। अफगानिस्तान में मंदिर बहुत नहीं बचे हैं। जो गुरुद्वारे हैं वे भी खतरे में हैं। बहुत से ध्वस्त कर दिए गए, उनमें तोड़फोड़ की गई या बम से उड़ा दिए गए। जो बचे हैं उन पर भी खतरा है हालांकि अफगानिस्तान में अब अत्यंत न्यून संख्या में सिक्ख बचे हैं लेकिन तालिबान रहा तो अगले दस सालों में वे भी बचने वाले नहीं हैं। ना हिंदू बचने वाले हैं। वह कोई भी हो- जो सुन्नी इस्लाम को मानने वाला नहीं है वह अफगानिस्तान में बचने वाला नहीं है। जो औरंगजेब ने किया था वहीं अफगानिस्तान में तालिबान कर रहा है- बल्कि और ज्यादा हिंसक और नृशंस तरीके से कर रहा है। हालांकि दोनों की तुलना करने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि दोनों इतने बुरे हैं कि उनमें कोई अच्छाई खोजना या किसी को कम बुरा बताना ठीक नहीं होगा।

ये रास्ते हैं विनाश के

अफगानिस्तान के बहाने हम जो स्थिति बताने की कोशिश कर रहे हैं उससे आप सिक्ख समुदाय की स्थिति की कल्पना कीजिए कि ये क्या थे और क्या होते जा रहे हैं। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश- इन तीनों देशों में हिंदू और सिक्खों के साथ जो हुआ वह पूरी दुनिया के सामने है। इसके अलावा पंजाब में खालिस्तान का समर्थन करने वाले या खालिस्तान की मांग करने वाले तत्वों के खिलाफ कोई कुछ नहीं बोल रहा है। अगर पंजाब का आम सिक्ख समुदाय उसके खिलाफ नहीं खड़ा होगा तो उसके लिए यह हाराकीरी यानी एक प्रकार से आत्महत्या करने जैसा होगा। यह रास्ता आपको और विनाश की ओर ले जाएगा। विकास की ओर लेकर नहीं जाएगा।

पंजाब में सिक्खों पर मंडराते खतरे

सिखों का भारत से बाहर जबरन धर्म परिवर्तन हो रहा है, तो भारत के भीतर लालच और प्रलोभन से। और वे अपनी आंख बंद किए बैठे हैं। पंजाब में सिखों का बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन हो रहा है और उन्हें क्रिप्टो क्रिश्चियन बनाया जा रहा है कोई ताज्जुब नहीं कि अगले दस-पंद्रह सालों में सत्तर-अस्सी प्रतिशत दलित सिक्ख क्रिश्चियन बन जाएं। अभी तक कितने क्रिश्चियन बन चुके हैं इसकी संख्या किसी को पता नहीं है। इसका कारण यह है कि वे क्रिप्टो क्रिश्चियन हैं जो अपनी पहचान जाहिर नहीं करते। मुझे लगता है कि यह सिक्ख समुदाय पर बहुत बड़ा खतरा है जिससे वह पूरी तरह से गाफिल है। इसमें सबसे खराब भूमिका सिक्ख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी यानी एसजीपीसी की है, जिस पर सिक्ख समुदाय की रक्षा करने की जिम्मेदारी है। वह थोड़ी बहुत तब सक्रिय हुई है जब धर्म परिवर्तन को लेकर काफी हल्ला मचा है। लेकिन इस समस्या को रोकने के लिए वह कुछ कर नहीं पाई है। मैं पहले भी बता चुका हूं कि वह दिन बहुत दूर नहीं है जब पंजाब में केवल जट सिक्ख रह जाएंगे और सिक्ख अल्पसंख्यक बन जाएंगे।

आने वाले खतरे का संकेत

जो अफगानिस्तान में अब हो रहा है और जो 1990 में तालिबान के पहली बार आने के बाद हुआ था- उससे सिक्खों ने कोई सबक नहीं लिया। अभी जम्मू कश्मीर में दो सिक्ख लड़कियों के साथ जो घटना हुई वह आने वाले खतरे का संकेत है। जो पाकिस्तान में हुआ है वह जम्मू-कश्मीर में भी शुरू हो सकता है। ऐसा लगता है कि सिक्ख समुदाय या तो देख कर भी चुप है और समस्या से मुंह फेरे हुए है- या फिर उसकी आवाज उठाने की हिम्मत खत्म हो गई है। वह अब सिर्फ अशक्त, निहत्थे और निर्बल लोगों पर हमले कर सकता है। निहंगों ने सिंघु बॉर्डर पर जो कुछ किया है सिक्ख समुदाय को उसका विरोध करना चाहिए। वहां बहुत निर्मम तरीके से एक ऐसे आदमी की हत्या हुई है जो अति सामान्य गरीब आदमी था। दिहाड़ी मजदूर था। सच तो यह है कि इस तरह की घटनाओं पर चुप्पी भी एक तरह से उनका समर्थन ही होता है। यह चुप्पी आने वाले दिनों में उनके लिए बहुत घातक साबित होने वाली है। ऐसा लगता है कि सिक्ख समुदाय अपने गुरुओं की सीख भूल गया है। किनके लिए लड़ना चाहिए, किनके साथ खड़ा होना चाहिए और किनके खिलाफ खड़ा होना चाहिए- यह नीर-क्षीर करने का विवेक सिक्ख समुदाय से धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। आशंका इस बात की है कि यह सिक्ख समुदाय के लिए अस्तित्व का संकट बनता जा रहा है। ईश्वर से प्रार्थना है कि कभी ऐसा ना हो।