apka akhbar-ajayvidyutअजय विद्युत ।

बचपन से ही देश को ब्रितानिया हुकूमत से आजादी दिलाने का सपना देखने वाले अमर बलिदानी भगत सिंह के जन्मदिन पर यह सोचना जरूरी है कि जिस क्रांतिकारी ने जीतेजी राजनीतिक गठबंधनों की अवहेलना की, आज सभी उसे अपनाने पर आमादा हैं। खासकर कम्युनिस्ट, जो एक तरफ उन्हें ‘आतंकवादी’ मानते हैं तो दूसरी तरफ ‘क्रांतिकारी’ बताकर लाल सलाम भेजते नहीं थकते। भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को लायलपुर जिले के बंगा में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है।


कम्युनिस्टों को भगत सिंह की याद आई 1997 में

प्रो राजीव लोचन

जाने माने इतिहासकार और पंजाब विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर राजीव लोचन के अनुसार, ‘भारत के वामपंथी आम तौर पर भगत सिंह के बारे में चुप रहना पसंद करते रहे। आखिर पार्टी के सदस्य जो नहीं थे। स्वतंत्र होने के बाद देश अपनी समस्याओं में उलझा रहा और स्वतंत्रता सेनानियों को भूल गया। बस वे याद रहे जिनकी याद सरकार को रही।’ वह अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं, ‘कम्युनिस्टों को भगत सिंह की याद आई 1997 में। जब देश की आजादी की पचासवीं सालगिरह मनाई जा रही थी तब उन्हें लगा कि देश की आजादी में उनके योगदान को नकारा जा रहा है। इतिहासकार प्रोफेसर विपिन चंद्रा 1990 के शुरुआती दशक में भगत सिंह को क्रांतिकारी के रूप में लोगों के सामने ले आए।’

 

प्रो अपूर्वानंद

यह 2016 की बात है। प्रो. अपूर्वानंद लिखते हैं, ‘भगत सिंह को ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ कहने के लिए बिपिन चंद्रा की किताब ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ की बिक्री और आगे की छपाई पर दिल्ली विश्वविद्यालय ने रोक लगा दी है। यह फैसला राज्यसभा के उपसभापति की आपत्ति के बाद लिया गया। खबर थी कि भगत सिंह के परिवार के सदस्यों को भी इस शब्द पर ऐतराज था।’

पहले ‘आतंकवादी’… फिर ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’

आरके सिन्हा

आरके सिन्हा लिखते हैं, ‘इससे अधिक अफसोसजनक बात क्या हो सकती है कि वामपंथी इतिहासकारों बिपिन चन्द्रा और मृदुला मुखर्जी की लिखी ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ पुस्तक के 20वें अध्याय में भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सूर्य सेन और अन्य को ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ बताया गया है। हैरानी इसलिए और भी हो रही है कि यह पुस्तक दो दशकों से अधिक समय से दिल्ली यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम का हिस्सा रही है। और तो और इसमें चटगांव आंदोलन को भी ‘आतंकी कृत्य’ करार दिया गया है।’ सिन्हा एक और बात का खुलासा करते हैं, ‘आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपे इस पुस्तक के पहले संस्करण में हमारे महान शहीदों को सीधे-सीधे ‘आतंकवादी’ संबोधित किया गया है। वह तो बाद में विवाद बढ़ने पर लेखकों ने छलपूर्वक आतंकवादी के पहले क्रांतिकारी शब्द जोड़ दिया।’

प्राय: लेफ्ट के लोग बड़ी शान से लेनिन, स्टालिन, माओ और भगत सिंह का नाम एक साथ लेते दिख जाएंगे। इसमें बड़े पेंच हैं। पहले तीन के बारे में तो साफ है कि उनके नाम कितनी हत्याओं का अपराध दर्ज है। कामरेडों ने भगत सिंह को भी उनके साथ खड़ा कर भारत और भारत के क्रांतिकारियों के प्रति अपनी नीयत पर शक खुद पैदा कर दिया है।


कामरेड भगत सिंह की आत्मा भारतीय थी, रूसी नहीं

अविनाश त्रिपाठी ।

बताया जाता है उस बैठक में सात लोग उपस्थित थे जिसमें जार निकोलस द्वितीय की हत्या करने का निर्णय लिया गया। काफी समय तक चर्चा इस बात को लेकर हुई थी कि क्या अपदस्थ कर दिए गए राजा के परिवार को भी साथ में ही मार दिया जाए जिससे आगे किसी भी प्रकार की चुनौती ही समाप्त हो जाए। लेनिन की उपस्थिति में निर्णय लिया गया कि पूरे परिवार को साथ ही मारा जाएगा। इसके बाद जार निकोस को पत्नी, चार बेटियों, एक बीमार बेटे और कुछ सेवकों के साथ घर में ही गोली मारकर समाप्त कर दिया गया। उनके मृत शरीर का क्या हुआ आज तक ये एक रहस्य है।


 

एक तरफ भगत सिंह हैं जिन्होंने सदन में भी उस जगह बम फेंका जहां कोई बैठा ना हो। दूसरी तरफ जार की हत्या करने के बाद उसकी पत्नी और छोटी बच्चियों की निर्मम हत्या करने वाला लेनिनवाद।

एक तरफ सत्याग्रह के लिए जेल में 65 दिन उपवास करने वाले भगत सिंह हैं, दूसरी तरफ लेबर कैंप, गुलाग की जेलों में लाखों लोग सड़ा देने वाला कम्युनिज्म।

एक तरफ हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन (गणतांत्रिक) एसोसिएशन है, दूसरी तरफ एक दल की तानाशाही।

एक तरफ लाखों वर्ग किलोमीटर भूमि भूदान आंदोलन में स्वेच्छा से देने वाला भारत है, दूसरी तरफ रूस से लेकर चीन तक जमीन छीनने के लिए करोड़ों लोगों की हत्या करने वाली लाल क्रांति।

एक तरफ पांच हजार सालों से शाश्वत खड़ा भारत है, दूसरी तरफ सेंट पीटरबर्ग को लेनिनग्राद बनाता कम्युनिज्म।

लेनिन, स्टालिन, माओ और भगत सिंह का नाम एक साथ नहीं आ सकता। कामरेड, उनके जीवन का प्रत्येक कार्य दिखाता है आत्मा भारतीय थी रूसी नहीं…!

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