डॉ. राममनोहर लोहिया की 53वीं पुण्यतिथि पर विशेष
अभिषेक रंजन सिंह ।
डॉ. राममनोहर लोहिया (23-03-1910 से 12-10-1967) महज सत्तावन साल की आयु में वे अठारह बार जेल गए, लेकिन 9 अगस्त,1965 यानी गांधीजी के भारत छोड़ो आंदोलन की 23वीं वर्षगाँठ के दिन डॉ. लोहिया को जिस प्रकार गिरफ्तार किया गया, उसकी निंदा देश भर में हुई थी।
9 अगस्त, 1965 को पटना स्थित गांधी मैदान में डॉ. लोहिया ने एक विशाल जनसभा को संबोधित किया। इसमें उन्होंने बिहार की तत्कालीन कांग्रेस सरकार की जनविरोधी नीतियों की कटु आलोचना की थी। कृष्ण बल्लभ सहाय बिहार के मुख्यमंत्री थे। कहने को गांधीजी के अनुयायी थे। आज़ादी की लड़ाई में जेल जा चुके थे, लेकिन विरोध का स्वर बर्दाश्त नहीं हो सका। मुख्यमंत्री ने पटना के जिलाधिकारी जे.एन. साहू को कहा कि कुछ भी करके इस आदमी को जेल भेजो। डॉ. लोहिया लोकसभा के सदस्य थे और सर्किट हाउस में ठहरे थे। पुलिस वहां चोर की तरह रात के 12 बजे पहुंची, लेकिन अनैतिक कार्य करने में घिग्घी तो बंध ही जाती है। इसलिए झूठ ही कहा कि आगजनी एवं उपद्रव के आरोप में आपको गिरफ्तार किया जाता है। मुख्यमंत्री और ज़िलाधिकारी भी शायद तब तक जाग रहे होंगे! उनका मन बदल गया और कहा होगा आगजनी का आरोप हटा दो। केवल डिटेन करके बाँकीपुर जेल भेज दो।
सत्ता हासिल कर लेने से नहीं जाता कायरता का रोग
जिलाधिकारी द्वारा आदेश टाइप करवाया गया कि ‘डिफेन्स ऑफ इंडिया रूल्स, 1962’ के नियम-30 के तहत डॉ. राममनोहर लोहिया जहां कहीं भी पाए जाएं, उन्हें हिरासत में लेकर बाँकीपुर जेल भेज दिया जाए।
गांधीजी के असली वारिसों के आत्मबल से जालिमबुद्धि बहुत घबराते हैं। केवल सत्ता हासिल कर लेने से कायरता का रोग जाता नहीं है। मुख्यमंत्री फिर डर गए। सोचा होगा कि डॉ. लोहिया को पटना के बाँकीपुर जेल में रखेंगे तो यहां ही लाखों लोग आंदोलन पर उतर आएंगे। जिलाधिकारी से कहा कि ऐसा करो, बाँकीपुर जेल की जगह इनको हज़ारीबाग सेंट्रल जेल ले जाओ। हज़ारीबाग मुख्यमंत्री सहाय का अपना गृहजिला था, लेकिन तब तक तो बाँकीपुर जेल के जिक्र वाली नोटिस डॉ. लोहिया को दिखाई जा चुकी थी और लोहिया जी ने उसे पढ़ भी लिया था। जिलाधिकारी ने धृष्टतापूर्वक उस नोटिस को वापस मंगाया। ‘बाँकीपुर जेल’ को काटकर उसी पर ‘हज़ारीबाग सेंट्रल जेल’ लिखकर फिर से उसे जारी कर दिया।
शासन के खिलाफ लड़ने वाला जब स्वयं शासक बन जाता है, तो वह पूर्ववर्ती सरकार की उन्हीं दमनकारी नीतियों पर चलने लगता है जिसके खिलाफ उसने जंग छेड़ी थी। चाहे वह गुलाम भारत में अंग्रेजी सरकार हो या फिर आज़ाद भारत की सरकार। स्वतंत्रता संग्राम के अनथक योद्धा डॉ. राममनोहर लोहिया के साथ बिहार के मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने यही किया। आज़ादी के बाद कई मौकों पर कांग्रेस ने ऐसी गलतियां की। जिन स्वाधीनता सेनानियों ने देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया, उनकी इज़्ज़त भी कांग्रेसी सरकारों ने नहीं की वरना आजादी के अठारह वर्ष बाद वह भी भारत छोड़ो आंदोलन के स्मरण दिवस पर डॉ. लोहिया को गलत तरीके से गिरफ्तार करने की भूल बिहार सरकार नहीं करती।
पार्टी ही परिवार
इस देश का दुर्भाग्य ही तो है कि जिन आजन्म अविवाहित लोहिया जी ने सदा अपनी पार्टी को ही परिवार माना कालांतर में उनके राजनैतिक वंशधरों ने अपने-अपने परिवारों को ही अपनी-अपनी पार्टी बना लिया! लोहिया जी, आपने अपने उद्घोष के अनुसार पंडित नेहरू की नीतियों के हिमालय में तो सोच-विचार की दरार डाल दी पर आपको, अपनी वैचारिकी में यह देश वह स्थान नहीं दे पा रहा जिसके आप और आपका विचार सदा से हक़दार है ! पुण्यतिथि पर प्रणाम नीतिऋषि
डॉ कुमार विश्वास
कैसा हो लोकतंत्र का स्वरूप
लोकतंत्र में तो पार्टियां आती-जाती रहती हैं और जनता ही स्थायी प्रतिपक्ष होती है। भारत में लोकतंत्र का स्वरूप कैसा होना चाहिए, इसकी सदैव चिंता डॉ. लोहिया को रहती थी।
9 अगस्त, 1965 के अपने भाषण में डॉ. लोहिया ने उसी साल आए अकाल का भी जिक्र किया था। वहीं मुख्यमंत्री सहाय इंदिरा गांधी के स्वागत में हज़ारीबाग में ‘महावन’ भोज का आनंद उठा रहे थे। उन्होंने मुख्यमंत्री के दायित्व पर कई तरह के प्रश्न उठाए। डॉ. लोहिया ने कहा कि राज्य की भूखी जनता को अन्न की बजाय भाषण खिलाया जाता है। यह अकाल प्राकृतिक हो या कृत्रिम, लेकिन भूख नकली नहीं है? बिहार की जनता को अब भी भरोसा है कि उनके मुख्यमंत्री भूखों को भरपेट अनाज देंगे, लाठी-गोली नहीं!
इस जनसभा के बाद मुख्यमंत्री के. बी. सहाय को लगा कि अगर डॉ. लोहिया को गिरफ्तार नहीं किया गया तो उनकी सरकार और कांग्रेस के खिलाफ वे और अधिक जहर उगलेंगे। मुख्यमंत्री के भय की एक और बड़ी वजह थी देश भर में डॉ. लोहिया एवं उनकी पार्टी की स्वीकार्यता का बढ़ना। खासकर उत्तर भारत में कांग्रेस विरोधी विपक्षी एकता के बड़े नायक के रूप में डॉ. राममनोहर लोहिया का उभार हो चुका था जबकि लोहिया सत्ता के नशे को लोकतंत्र का बड़ा शत्रु मानते थे। इसलिए वे बार-बार सत्ता से टकराते थे और जनता के मानस को जगाने का प्रयास करते थे।
डॉ. लोहिया के क़रीबी रहे 93 वर्षीय एडवोकेट बैकुंठनाथ डे बताते हैं कि 10 अगस्त,1965 को दोपहर साढ़े तीन बजे डॉ. लोहिया को पटना से हज़ारीबाग सेंट्रल जेल लाया गया। जेल में दाखिल होते ही उन्होंने हिंदी में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश जी.बी. गजेंद्र गडकर और लोकसभा के अध्यक्ष हुकुम सिंह को रजिस्टर्ड डाक से एक चिट्ठी लिखी। पत्र मिलने पर सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता से इसका संज्ञान लिया और उनकी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर 23 अगस्त,1965 को सुनवाई की तिथि मुकर्रर की।
बाइज्जत बरी
समाजवादी विचारक प्रो. राजकुमार जैन बताते हैं, “20 अगस्त को डॉ. साहब को हज़ारीबाग जेल से दिल्ली लाया गया। जब वे विदा होने लगे तो राजनीतिक कैदियों से पहले साधारण कैदियों से मिले,उनका कुशलक्षेम पूछा। जेल के रसोइया योगी हरि को डॉ. लोहिया ने छाती से लगाया और कहने लगे- जा रहा हूँ, पता नहीं अब हमारी भेंट कभी होगी या नहीं। योगी हरि भी डॉ. लोहिया के आलिंगन में खड़ा अविरल रो रहा था।”
दिल्ली पहुंचने पर डॉ. लोहिया ने अपने मुकदमे की पैरवी खुद करने की मांग की, जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया। उन्होंने हिंदी में जिरह करना शुरू किया। जजों ने उनसे अंग्रेजी में दलील करने को कहा। इस पर डॉ. लोहिया ने कहा कि, अंग्रेजी भाषा पर निर्भरता के लिए कांग्रेस सरकार दोषी है, जो अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के बाद भी भारत को अंग्रेजी भाषा का गुलाम बनाए रखना चाहती है।
जस्टिस ए. के. सरकार, एम. हिदायतुल्ला, दयाल रघुबर, जे. आर. मुढोलकर और आर. एस. बछावत समेत पाँच जजों की बेंच बैठी। डॉ. लोहिया ने संविधान के मूल अधिकारों से संबंधित अनुच्छेद 21 और 22 का हवाला दिया और अपने तर्कपूर्ण बहस से सरकार और उसके अधिकारियों की पूर्वाग्रहयुक्त मंशा को साबित कर दिया। कोर्ट ने 7 सितंबर, 1965 को डॉ. राममनोहर लोहिया को बाइज्जत बरी करने का आदेश तो दिया ही, साथ ही साथ पटना के जिलाधिकारी जे.एन.साहू को कड़ी फटकार भी लगाई।
ऐतिहासिक हज़ारीबाग सेंट्रल जेल
भारत छोड़ो आंदोलन के समय जयप्रकाश नारायण, शालिग्राम सिंह और सूरज नारायण सिंह हज़ारीबाग सेंट्रल जेल से फ़रार हुए थे। यह जेल इस मायने में भी ऐतिहासिक है कि यहां सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान, पंडित रामनन्दन मिश्र, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और राहुल सांकृत्यायन जैसे कई महान सेनानी बंद रहे। यहां उनकी स्मृति में स्मारक भी हैं।
इस जेल में डॉ. राममनोहर लोहिया का भी एक स्मारक बनना चाहिए। इस बाबत हजारीबाग जेल के सुपरिटेंडेंट से मेरी मुलाक़ात हुई। उनके आत्मीय सहयोग से डॉ. लोहिया का ‘बंदी प्रमाण पत्र’ और ‘बंदी प्रवेश पंजी’ जल्द ही प्राप्त होने की उम्मीद है।
मौजूदा राजनीतिक विद्रूपताओं को देखते हुए डॉ. लोहिया जैसी जुझारू और नैतिक आवाज़ की कमी खलती है। वे गांधीजी के सच्चे वैचारिक उत्तराधिकारी थे। समाज जब-जब अपनी विभूतियों को भूलता है, तब-तब वह भटकाव का शिकार होता है। क्या इस डरावनी वैचारिक शून्यता में हम डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारों को फिर से समझने की कोशिश करेंगे?
(लेखक डॉ. राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक हैं)