किताब : सरयू से गंगा

अनिल सिंह । 
श्री कमलाकांत त्रिपाठी के उपन्यास ‘सरयू से गंगा’ का पेपर बैक संस्करण, जिसे किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली ने वर्ष 2019 में प्रकाशित किया, डॉ अरुण कुमार सिंह, पूर्व प्राचार्य, तिलकधारी महाविद्यालय, जौनपुर की अनुकंपा से मेरे हाथ लग गया। मेरे लिए अनजान लेखक, लगभग 600 पृष्ठों का भारी भरकम आकार, पढ़ने के लिए प्रेरित नहीं कर पा रहे थे। 

लगभग दो  महीने बाद पढ़ना जो शुरू किया तो एक सप्ताह में…..। यह उपन्यास आपको खींचता नहीं, बस मांग करता है कि आप उसकी तरफ खिचें। मैं तो खिंचता ही चला गया, यहां तक कि चिपक सा गया। यह अपनी बात बहुत धीमी गति से कहता है। शायद इतनी गहन बात  बहुत तेज गति से कहीं ही नहीं जा सकती।

इतिहास स्वयं एक पात्र

उपन्यास का कालखंड 18 वीं सदी का उत्तरार्ध है और पृष्ठभूमि आंचलिक। पर कथ्य  सार्वजनीन और सार्वकालिक। यह ऐसा कालखंड है जिसमें मुगल साम्राज्य का पतन और परिणामतः देश की सत्ता- संरचना में ईस्ट इंडिया कंपनी का उत्तरोत्तर हस्तक्षेप एक जटिल, बहुआयामी राजनीतिक- सांस्कृतिक संक्रमण को जन्म देता है। इतना सूक्ष्म और तथ्यपूर्ण विश्लेषण विलियम डेलरिंपल की ‘द एनार्की’ के समकक्ष खड़ा होने लगता है।
अकारण नहीं कि इसमें इतिहास स्वयं एक पात्र है और सामान्य एवं विशिष्ट, मूर्त एवं अमूर्त के ताने-बाने को जोड़ता बीच-बीच में स्वयं अपना पक्ष रखता है। कह पड़ता है- “जी हां ,नाटक हो चुकने के बाद, मेरा एक नया, मनचाहा ताना -बाना खड़ा किया जाता है।… मुझे बनाने वाले कोई और होते हैं लेकिन मेरी इस निर्मिति में, इसके ताने-बाने में आ जाते हैं कोई और। कुछ  यथार्थ, कुछ मिथक का घालमेल…। एक मनमानी पटकथा, उसकी नहीं जो दरअसल घटित हुआ, बल्कि उसकी जो कुछ खास लोगों, एक खास वर्ग को पसंद आए, उनको लगे कि हां ऐसा ही हुआ होगा, ऐसा ही होना चाहिए था।”
इसीलिए तो लेखक कहते हैं,” धन्य हो इतिहास पुरुष ! सब तुम्हारी बलिहारी! बिना तुमको समझे यथार्थ में कुछ भी समझना नामुमकिन। सभ्यता-संस्कृति की सारी महान उपलब्धियां एक ओर और सिद्धांत और व्यवहार का द्वैध ( जो इतिहास है) दूसरी ओर।”
यह उपन्यास, जीवन जैसा है उसे उसी रूप में लेते हुए वैचारिक यांत्रिकता के बासीपन से मुक्त होकर सही अर्थों में ‘सृजन’ कर पाता है। नायक लेखीपति, मामा, सावित्री पुरखिन अइया, मतई, नाई काका, शेख चाचा, जमील, रज्जाक और जहीर जैसे पात्र मनुष्य की जिस जैविक और भावनात्मक निष्ठा को अर्घ्य देकर अजेय बनाते हैं, वह अपने नैरंतर्य में कालातीत है।

विडंबनाओं का एक पिटारा

उपन्यास, हमारे समाज में सदियों से व्याप्त, धार्मिक अंधविश्वासों, कर्मकांडों,  लोकाचारों आदि पर परोक्ष रूप से प्रहार और व्यंग करता ही चलता है। अपने लिए महामृत्युंजय का जाप कराने से पंडित जी का इनकार, इसका एक प्रमुख प्रमाण है। दूसरा तब जब पशुपतिनाथ के दर्शन के समय लेखी मां से कहता है, “मैं तो मंदिर में घुसने से रहा मां।”
नायक लेखीपति सफलता की सीढ़ियां चढ़ता जाता है, क्योंकि उसमें एक जुनून, एक उबाल, एक जज्बा है, जिसने अनगढ़, अंधेरे भविष्य की अनिश्चितता को मसलकर दूर फेंक दिया है। उसका धर्म ही है — मानवता। वह किसी मजहबी राग-द्वेष को स्वीकार नहीं करता और न ही उसके तीनों मुसलमान दोस्त। ठेकेदार अनवर अली से जहीर कहता ही है, “मुझे नहीं लगता, नेकनीयती  और बदनीयती  का ताल्लुक किसी मजहब से है।” फिर भी लेखक यह स्पष्ट करने से नहीं चूकता की कुछ चीजें ऐसे ही हो जाती हैं। जाने क्यों और कैसे हो जाती हैं । निमित्त बन जाता है आदमी। विडंबनाओं का एक पिटारा है जिसे इतिहास कहते हैं।

संवाद की ऐसी आकुलता

उपन्यास का सबसे सशक्त स्थल है वह जब लेखीपति की दृष्टि पड़ती है- ‘पालकी के ओहार से बाहर निकली चूड़ियों के बिना सूनी सी लगती पतली, नरम जनाना कलाइयों’ पर। उसके भीतर कहीं कुछ टूट गया। जीवन का मकसद ही बदल गया। बरबस ही पाठक को गुलेरी की क्लासिक कहानी ‘उसने कहा था’ की याद आ जाती है। समाज के विधि-निषेध मनुष्य के शरीर को बांध सकते हैं, मन को कैसे बांधेगे ? मन शरीर का मातहत नहीं, उसका स्वामी है।
निश्चित ही यह प्रेम- कथा नहीं , प्रेम की कथा है। नए सिरे से परिभाषित करना पड़ता है कि यह भी प्रेम है या प्रेम यही है। यह जीवन-विहीन चेतना से जीवन का संवाद है। और संवाद की ऐसी आकुलता खोज ही लेती है संप्रेषण की राह। मेरी दृष्टि में तो इस उपन्यास में कालजयी  होने की सभी संभावनाएं विद्यमान है।

(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)