श्रद्धांजलि : भूपेंद्र सिंह (6 फरवरी 1940 – 18 जुलाई 2022)।
देवमणि पांडेय।
सिने संगीत को अपनी रूहानी आवाज़ से समृद्ध करने वाले गायक भूपेंद्र सिंह का 18 जुलाई 2022 को निधन हो गया। हमारी यादों में उनके वे गीत गूंज रहे हैं जो हमारी भावनाओं के, सुख दुख के साथी रहे हैं। करोगे याद तो हर बात याद आएगी… किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है… मेरी आवाज़ ही पहचान है… कभी किसी को मुकम्मल ज़हां नहीं मिलता… मेरे घर आना ज़िंदगी… होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा… आदि ऐसे कई गीत हैं जो हमारे एहसास का हिस्सा हैं। अपनी अलग आवाज़ के लिए भूपिंदर सिंह हमेशा याद किए जाएंगे।
पहले ही गाने से रातोरात मशहूर हो गए
संगीतकार मदन मोहन ने दिल्ली की एक घरेलू महफ़िल में एक नौजवान को गिटार बजाते और गाते देखा था। सन् 1964 में चेतन आनंद की फ़िल्म हक़ीक़त का एक गीत गाने के लिए उन्होंने इस नौजवान को मुंबई बुलाया। इसे एक आश्चर्यजनक घटना के रूप में देखा गया। मदन मोहन को इस नौजवान की प्रतिभा पर यक़ीन था। मो. रफ़ी के साथ इस नौजवान ने गीत गाया- होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा। रातों रात यह नौजवान बॉलीवुड में भूपेंद्र सिंह के नाम से मशहूर हो गया। भूपेंद्र वापस दिल्ली लौट गए। फ़िल्म हक़ीक़त का यह गीत लोकप्रिय हो गया। दोस्तों ने दबाव डाला कि उन्हें अपनी प्रतिभा के उचित इस्तेमाल के लिए मुंबई जाना चाहिए। आख़िर भूपेंद्र मुंबई वापस लौटे।
म्यूज़िकल हीरो के रूप में काम करने का प्रस्ताव
भूपेंद्र की शख़्सियत से चेतन आनंद इतने प्रभावित थे कि उन्होंने फ़िल्म ‘आख़िरी ख़त’ में भूपेंद्र को एक म्यूज़िकल हीरो के रूप में काम करने का प्रस्ताव दिया। भूपेंद्र को लगा कि वे सिर्फ़ संगीत के लिए बने हैं। अभिनय का प्रस्ताव उन्होंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। फ़िल्म ‘आख़िरी ख़त’ में संगीतकार ख़य्याम ने उनसे सोलो गीत गवाया- “रुत जवां जवां रात मेहरबां”। चेतन आनंद ने कैफ़ी आज़मी के लिखे इस गीत को भूपेंद्र पर फ़िल्माया। दुबले-पतले, लम्बे नौजवान गायक भूपेंद्र को गिटार बजाकर एक पार्टी में इस पार्टी सांग को गाते हुए देखना बड़ा मज़ेदार लगता है। इसके साथ ही भूपेंद्र ने मुंबई को और मुंबई ने उनको हमेशा के लिए अपना बना लिया।
सोज़, सुर और शोख़ी
भूपेंद्र को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ ही पाश्चात्य संगीत की गहरी समझ थी। दोनों के तालमेल से अपनी गायकी और संगीत रचना में उन्होंने अद्भुत असर पैदा किया। सोज़, सुर और शोख़ी में भीगी हुई उनकी आवाज़ फ़ौरन दिल की गहराइयों में उतर जाती है।
भूपेंद्र को वाद्य यंत्रों की भी अच्छी जानकारी थी। कैरियर की शुरुआत में उन्होंने गिटार और वायलिन से फ़िल्म संगीत को सजाया। उन्हें एक बेहद मुश्किल वाद्य ‘रबाब’ बजाने के लिए बुलाया जाता था। संगीतकार कुलदीप सिंह के अनुसार भूपेंद्र ने ‘रबाब’ को बहुत ऊंचे स्तर पर पहुंचा दिया। उनके बाद दूसरा कोई उस स्तर को नहीं छू पाया तो फ़िल्म संगीत में ‘रबाब’ का बजना ही बंद हो गया। एक गायक के रूप में कामयाब होने के बाद भूपेंद्र ने वाद्य यंत्रों से विदा ले ली। जिन गीतों में उनके गिटार की तरंग है उसे सुनकर आज भी दिल के तार झंकृत हो जाते हैं… ऐसे चंद गीत हैं- दम मारो दम (हरे रामा हरे कृष्णा), वादियां मेरा दामन (अभिलाषा), चुरा लिया है तुमने (यादों की बारात), चिंगारी कोई भड़के (अमर प्रेम), महबूबा ओ महबूबा (शोले), तुम जो मिल गए हो (हंसते ज़ख़्म)।
बहुआयामी गायक
श्रोताओं पर भूपेंद्र की आवाज़ का जादू आज भी बरकरार है और दशकों तक रहेगा। उनकी आवाज़ में वह ‘खरज़’ है जिससे श्रेष्ठ गायकी का आधार माना जाता है। ज़बरदस्त रियाज़ से भूपेंद्र ने अपनी आवाज़ को इस तरह ढाला था कि एक बार सुनने के बाद उनकी आवाज़ हमेशा के लिए याद रह जाती थी। यह कहा जाता है कि उनकी आवाज़ ही उनकी पहचान थी। भूपेंद्र एक ऐसे बहुआयामी गायक थे जिनसे किसी भी रंग के गीत गवाए जा सकते थे।
मैट्रिक के बाद पढ़ाई छोड़ दी
भूपेंद्र का जन्म अमृतसर में 6 फरवरी 1940 को हुआ। पिता प्रो. नत्था सिंह मशहूर गायक थे। वे पंजाबी क्लासिकल गाते थे। भूपेंद्र को संगीत की प्रारंभिक शिक्षा पिताजी से मिली। बचपन दिल्ली में बीता। शिक्षा भी यहीं हुई। यहां उन्होंने उस्ताद के एल तहीन से शास्त्रीय संगीत सीखा। भूपेंद्र बचपन से ही गिटार बजाते थे। अपने छात्र जीवन में वे दिल्ली और आसपास के इलाक़ों में गिटार वादक के रूप में बहुत लोकप्रिय थे। मंच पर गिटार बजाने के साथ ही वे शास्त्रीय गायन भी करते थे। बचपन से ही उनको संगीत रचना का भी शौक़ था। भूपेंद्र के दिलो दिमाग़ पर संगीत का ऐसा असर हुआ कि उन्होंने मैट्रिक के बाद पढ़ाई छोड़ दी। पूरी तरह संगीत के होकर रह गए। मगर उनके मन में व्यवसायिकता नहीं थी। वे मंचों पर निशुल्क कार्यक्रम देते थे।
प्रतिभा और आत्मविश्वास का ख़ज़ाना
भूपेंद्र के पास प्रतिभा और आत्मविश्वास का ख़ज़ाना था। इसलिए कभी उनके पांव में संघर्ष के छाले नहीं पड़े। उनके गिटार और वायलिन का फ़िल्म संगीत ने तहे दिल से स्वागत किया। एक मशहूर शख़्सियत बनने में उन्हें ज़्यादा समय नहीं लगा। उस समय की एकमात्र संगीत कंपनी एचएमवी ने 1967 से 1974 के दौरान उनके तीन ईपी रिकॉर्ड जारी किए। सन् 1975 में एचएमवी ने उनका पहला एलपी रिकॉर्ड जारी किया- विद लव फ्रॉम भूपेंद्र। इस रिकॉर्ड ने संगीत प्रेमियों के दिल के तार उनकी गायकी से जोड़ दिए। संगीत के क्षितिज पर भूपेंद्र नाम का एक सितारा रोशन हो गया।
आरडी बर्मन से गहरी दोस्ती
फ़िल्म जगत के संगीतकारों ने बड़ी जल्दी परख लिया कि भूपेंद्र सिंह के रूप में उन्हें एक हीरा मिल गया है। बॉलीवुड के सुरुचि संपन्न संगीतकारों ने इस प्रतिभा का उपयोग किया। परिचय, किनारा, मौसम, गृह प्रवेश, आख़िरी ख़त, घरौंदा, दूरियां, बाज़ार आदि फ़िल्मों के ज़रिए यह कशिश भरी आवाज़ माहौल पर जादू बन कर छा गई। युवा संगीतकार बप्पी लहरी ने फ़िल्म ‘एतबार’ में इस आवाज़ के इस्तेमाल से ज़बरदस्त लोकप्रियता हासिल की- “किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है”।
पंचम दा यानी आरडी बर्मन से भूपेंद्र की गहरी दोस्ती थी। पंचम दा के साथ उन्होंने इतना ज़्यादा काम किया कि दूसरों के साथ काम करने का समय बहुत कम मिला। भूपेंद्र का कहना है कि मदन मोहन ने गायक के रूप में उनको जन्म दिया। पंचम दा ने परवरिश की। नौशाद, ख़य्याम, जयदेव, राम लक्ष्मण और सपन जगमोहन ने उन्हें संवारा निखारा और बड़ा किया।
राहों पे नज़र रखना होठों पे दुआ रखना
भूपेंद्र ग़ज़ल को निहायत व्यक्तिगत चीज़ मानते हैं। इसलिए सार्वजनिक मंच पर ग़ज़ल गाने का इरादा नहीं था। सन् 1983 में मीताली को उन्होंने जीवन साथी बनाया। मीताली कई साल से ग़ज़ल गाती थीं। वे भूपेंद्र को मंच पर ले आईं। देखते ही देखते इस ख़ूबसूरत जोड़ी ने ग़ज़ल के कैनवास पर नया शोख़ रंग भर दिया। भूपेंद्र और मीताली की आवाज़ में शायर क़तील राजस्थानी की ग़ज़ल ने अपार लोकप्रियता हासिल की- ‘राहों पे नज़र रखना, होठों पे दुआ रखना/
आ जाए कोई शायद दरवाज़ा खुला रखना।’
मीताली की आवाज़ में क़तील राजस्थानी की एक और दर्दभरी ग़ज़ल बेहद पसंद की गई। मीताली की गायकी में कितनी कशिश है इसका अंदाज़ा इसे सुनने के बाद लगाया जा सकता है- ‘आ जाए किसी दिन तू ऐसा भी नहीं लगता, लेकिन वो तेरा वादा झूठा भी नहीं लगता/ मिलता है सुकूं दिल को बस यार के कूचे में, हर रोज़ मगर जाना अच्छा भी नहीं लगता।’
अलग धुनें, अलग रिदम
‘दरवाज़ा खुला रखना’ और ‘आ जाए किसी दिन तू’ दोनों ग़ज़लों का मीटर एक है। यानी दोनों ग़ज़लें एक ही धुन में गाई जा सकती हैं। मगर ग़ज़लों के मूड के हिसाब से भूपेंद्र ने दोनों की अलग-अलग धुनें बनाईं। दोनों में अलग-अलग रिदम का इस्तेमाल किया। अलग वाद्य यंत्रों का संयोजन किया। अपने इस ख़ूबसूरत कारनामे से भूपेंद्र ने साबित किया कि वे एक अच्छे गायक होने के साथ-साथ एक अच्छे कंपोज़र भी थे।
भूपेंद्र अपना अलग अंदाज़ लेकर आए थे। उन्होंने कभी किसी का अनुकरण नहीं किया। उन्होंने संजीदा ग़ज़लें गाईं मगर श्रोताओं की पसंद को देखते हुए ऐसी ग़ज़लें भी पेश कीं जिनमें शोख़ी़, शरारत और मुहब्बत थी। मंच पर मीताली के साथ उन्होंने ग़ज़ल की जो दास्तान बयां की उसने उन्हें देश विदेश में लोकप्रिय बना दिया। भूपेंद्र को हमेशा यह फ़िक्र रही कि जो इंसान पैसा ख़र्च करके उन्हें सुनने आता है उसे ख़ुश करना उनकी ज़िम्मेदारी है। पूरी दुनिया में संगीतरसिक प्यार-मुहब्बत और छेड़छाड़ वाली ग़ज़लें बहुत पसंद करते हैं।
भूपेंद्र-मीताली की प्रेम कथा
मीताली बांग्लादेश की हैं। उनके घर का माहौल बहुत संगीतमय था। सारे भाई बहन गाते थे। दूसरों के गायन को बहुत उदात्त भावना से सुनते थे। मीताली ने पहली बार 1976 में रेडियो पर भूपेंद्र को एक बंगाली गीत गाते हुए सुना। उन्होंने इतनी अलग क़िस्म की आवाज़ पहले कभी नहीं सुनी थी। वह आवाज़ उनके दिल में उतर गई। मीताली उस आवाज़ की फैन हो गईं। मीताली ने सोचा नहीं था कि वे कभी मुंबई जाएंगी और भूपेंद्र से मुलाक़ात होगी। मीताली को संगीत की स्कॉलरशिप मिली। संगीत में एम ए करने के लिए वे बड़ोदा गईं। वहां सहपाठियों में संगीत चर्चा होती तो गिने-चुने अच्छे गायकों में अक्सर भूपेंद्र का नाम सामने आ जाता।
हॉस्टल की वार्डन उर्मिला ढोलकिया के साथ सन् 1978 में मीताली मुंबई घूमने आईं। यहां दूरदर्शन में उन्होंने आरोही कार्यक्रम में भाग लिया। उसी दौरान उनका एक शो तेजपाल हाल में हुआ। वहां संगीतकार जयदेव और गायक भूपेंद्र सिंह मुख्य अतिथि थे। मीताली को यक़ीन नहीं हो रहा था कि भूपेंद्र के सामने वे मंच पर गा रहीं हैं। भूपेंद्र को इस सांवली सलोनी बंगाली बाला का गाना पसंद आया। अहमदाबाद में मीताली के कई कार्यक्रम हुए। कभी-कभी वहां भी भूपेंद्र अतिथि के रूप में मौजूद रहते। मीताली जब मुंबई आतीं तो वे भूपेंद्र से मुलाक़ात करतीं। धीरे धीरे ये मुलाक़ातें मुहब्बत में बदल गईं।
पति के रूप में इतने प्रतिष्ठित गायक को पाना मीताली अपना सौभाग्य मानती हैं। एक गृहिणी की ज़िम्मेदारी संभालने में उन्हें परेशानियां भी हुईं। भूपेंद्र ने हमेशा उनका साथ निभाया। उन्हें हौसला दिया कि तुम कुछ भी करो मगर दिमाग़ में गाना होना चाहिए। मीताली को लगता था कि वे कभी कंपोजीशन नहीं कर सकतीं। भूपेंद्र के प्रोत्साहन से उन्होंने कई गीतों का संगीत तैयार किया। ख़ुद उनकी संगीत रचना में उनका एक बंगाली अलबम जारी हुआ। मीताली ने बताया- भूपेंद्र बहुत अच्छे प्रेमी साबित हुए। दोनों में कभी-कभी नोंक झोंक भी हो जाती है क्योंकि यह ज़िंदगी का ज़रूरी हिस्सा है। भूपेंद्र सबके बारे में सोचते थे। सबकी परेशानी बाँटते थे। भूपेंद्र में कमाल का आत्मविश्वास था। कितना भी गला ख़राब हो मगर माइक के सामने खड़े होते ही उनका गला खुल जाता था।
शम्मा जलाए रखना
दर्द भरी ग़ज़लों में रिदम धीमा होता था। दूसरे रंग की ग़ज़लों में भूपेंद्र रिदम का अंदाज़ बदल देते थे। उन्हें पता था कि श्रोताओं के लिए ग़ज़ल मनोरंजन है। इसलिए भूपेंद्र ने शराब पर भी ग़ज़लें गाईं। मगर वे सुरुचि का हमेशा ध्यान रखते थे। अच्छी शायरी और अच्छी गायकी के प्रति पूरी तरह समर्पित थे। देश विदेश के मंचो पर भूपेंद्र मीताली की जोड़ी को बेहद लोकप्रियता हासिल हुई। श्रोता जो सोचते हैं, जो पसंद करते हैं, भूपेंद्र मीताली वही गाते थे। उनकी ग़ज़लों में श्रोताओं के दिलों की धड़कनें शामिल होती थीं। मंच पर वे श्रोताओं के साथ बहुत आत्मीयता से पेश आते थे। श्रोता भी उनको अपना दोस्त समझते थे। कार्यक्रम के बाद वे श्रोताओं से मिलते थे। उनसे बात करते थे। दो-तीन बार ऐसी घटनाएं भी हुईं कि भूपेंद्र मीताली को सुनने के बाद पति पत्नी ने तलाक़ का विचार त्याग दिया। शायर सईद राही की लिखी ग़ज़ल को पति पत्नी बेहद पसंद करते हैं-
‘शम्मा जलाए रखना जब तक कि मैं न आऊं/ ख़ुद को बचाए रखना जब तक कि मैं न आऊं
हम तुम मिलेंगे ऐसे जैसे जुदा नहीं थे/ सांसे बचाए रखना जब तक कि मैं न आऊं।’
ग़ज़ल ज़िंदगी की असलियत
ग़ज़ल का आकर्षण न कभी कम हुआ और न होगा। भूपेंद्र ने हमेशा अपनी पसंद की ही ग़ज़लों का चयन किया। इसलिए उनके हर अलबम में दो तीन नए शायर मिल जाएंगे। वह मानते थे कि फ़िल्मी गाना हक़ीक़त से दूर हो सकता है मगर ग़ज़ल ज़िंदगी की असलियत है। ग़ज़ल में पुख़्ता शायरी होती है। ग़ज़ल हमारी संस्कृति का हिस्सा है। इसलिए ज़िंदा है। ग़ज़ल आने वाली सदियों तक ज़िंदा रहेगी। शास्त्रीय संगीत की ही तरह ग़ज़ल भी शाश्वत है। उसका रिश्ता दिलों से है। वह जज़्बात भरे दिलों में हमेशा ज़िंदा रहेगी।
गुलज़ार और भूपेंद्र
गीतकार गुलज़ार के कई सिने गीत भूपेंद्र की आवाज़ में बेहद लोकप्रिय हुए। गुलज़ार के साथ उनकी बहुत अच्छी दोस्ती थी। भूपेंद्र ने गुलज़ार का एक सोलो अलबम भी रिकॉर्ड किया- ‘अक्सर’। इसमें उन्होंने मीताली के साथ उनकी ग़ज़लें और नज़्में गाईं। भूपेंद्र का कहना था- “जहां से दूसरे लोग सोचना बंद कर देते हैं वहां से गुलज़ार साहब सोचना शुरू करते हैं।” विदेशों में लोग उनसे अभी भी गुलज़ार के इस गीत की फ़रमाइश करते हैं- ‘एक अकेला इस शहर में रात में और दोपहर में/ आबोदाना ढूंढ़ता है आशियाना ढूंढता है।’
कल, आज और कल का संगीत
पहले स्टूडियो में गीत की लाइव रिकॉर्डिंग होती थी। सारे म्यूजीशियंस हॉल में एक साथ बैठते थे। कभी-कभी उनकी संख्या सौ तक हो जाती थी। भूपेंद्र का कहना था कि वे बहुत ध्यान से बजाते थे। उनकी क्वालिटी बहुत अच्छी होती थी। उनके सामने खड़े होकर गाने में गायक को बहुत आनंद आता था। उस रिकॉर्डिंग में फीलिंग बहुत ज़्यादा थी। अब एक छोटे से कमरे में रिकॉर्डिंग होती है। म्यूजीशियन अपना पीस बजा कर चला जाता है। उसे पता ही नहीं होता कि गाने के बोल क्या हैं। गायक कौन है। इसलिए पहले जैसी फीलिंग आज नहीं आ पाती।
भूपेंद्र के अनुसार टीवी चैनलों पर ऐसा संगीत नहीं है जो नई पीढ़ी में अच्छे संगीत के प्रति लगाव पैदा कर सके। ऐसा संगीत आज दुर्लभ है जो नई पीढ़ी को अपने पैरों पर खड़ा होने का आधार दे सके। मगर जब तक गायकों में अच्छा गाने की लगन है और श्रोताओं में अच्छा सुनने का शौक़ है तब तक संगीत हमेशा जिंदा रहेगा। भूपेंद्र मीताली के कार्यक्रम में 50 प्रतिशत किशोर और युवा होते थे। जब वे संजीदा ग़ज़लों की फ़रमाइश करते थे तो भूपेंद्र हैरान हो जाते थे। वे हल्की और गंभीर ग़ज़लों के बीच का फ़र्क समझते थे। अच्छी शायरी में नई पीढ़ी का चरित्र निर्माण करने की ताक़त है।
साधारण आदमी, साधारण इच्छाएं
ज़िंदगी में भूपेंद्र को कभी अफ़सोस नहीं हुआ। वे कहते थे- अफ़सोस उनको होता है जिनके पास प्रतिभा नहीं होती। ज़िंदगी ने उन्हें सब कुछ दिया। हमेशा उन्होंने गुरु नानक की बात मानी- ‘ना ख़ुशी में ख़ुशी ना ग़म में ग़म’। वे कहते थे- मैं साधारण आदमी हूँ। साधारण इच्छाएं हैं। इसलिए कभी निराश नहीं होता।
पांच साल पहले नेहरू सेंटर में आयोजित भूपेंद्र मीताली के कार्यक्रम में एक दोस्त के साथ मैं मौजूद था। टिकट शो था। सभागार लगभग हाउस फुल था। संगीत प्रेमी झूम झूम कर जिस तरह इस जोड़ी को दाद दे रहे थे उससे यह साबित हुआ कि इस सितारे की चमक अभी कम नहीं हुई है। भूपेंद्र और मीताली के प्रति श्रोताओं की दीवानगी अभी बरकरार है।
चंद लोकप्रिय गीत
होके मजबूर मुझे (हक़ीक़त), बीती ना बिताई रैना (परिचय), दिल ढूंढता है फिर वही (मौसम), किसी नज़र को तेरा (एतबार), करोगे याद तो हर बात (बाज़ार), एक अकेला इस शहर में (घरौंदा), ज़िंदगी मेरे घर आना (दूरियां), नाम गुम जाएगा (किनारा), मीठे बोल बोले (किनारा), हुज़ूर इस क़दर भी (मासूम), आज बिछड़े हैं (थोड़ी सी बेवफ़ाई), कभी किसी को मुकम्मल (आहिस्ता आहिस्ता)।
(लेखक मुम्बई में शायर, सिने-गीतकार हैं)
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