ओशो।
कस्तूर भाई ने पूछा है कि महावीर प्राकृत भाषा में क्यों बोले, संस्कृत में क्यों नहीं? यह प्रश्न सच में गहरा है। संस्कृत कभी भी लोक-भाषा नहीं थी, सदा से पंडित की, दार्शनिक की, विचारक की भाषा है। प्राकृत लोक-भाषा थी- साधारणजन की, अशिक्षित की, अपढ़ की, ग्रामीण की। शब्द भी बड़े अदभुत हैं।

प्राकृत का मतलब है: नेचुरल, स्वाभाविक। संस्कृत का मतलब है: रिफाइंड, परिष्कृत। प्राकृत से ही जो परिष्कृत रूप हुए थे, वे संस्कृत बने। प्राकृत मौलिक, मूल भाषा है। संस्कृत उसका परिष्कार है। इसलिए संस्कृत शब्द शुरू हुआ उस भाषा के लिए, जो संस्कारित हो चुकी। साधारणजन के असंस्कारों से जिसे छुड़ा लिया गया। संस्कृत धीरे-धीरे इतनी परिष्कृत होती चली गई कि वह अत्यंत थोड़े से लोगों की भाषा रह गई।

लेकिन पंडित-पुरोहित के यह हित में है कि जीवन का जो भी मूल्यवान है, वह सब ऐसी भाषा में हो, जिसे साधारणजन न समझता हो। साधारणजन जिस भाषा को समझता हो, उस भाषा में अगर धर्म का सब कुछ होगा तो पंडित-पुरोहित और गुरु बहुत गहरे अर्थों में अनावश्यक हो जाएंगे। उनकी आवश्यकता मूलतः शास्त्र का अर्थ करने में है- शास्त्र क्या कहता है इसका अर्थ! साधारणजन की भाषा में ही अगर सारी बातें होंगी तो पंडित का क्या प्रयोजन? वह किस बात का अर्थ करे?

पुराने जमाने में विवाद को हम कहते थे- शास्त्रार्थ! शास्त्रार्थ का मतलब है: शास्त्र का अर्थ! दो पंडित लड़ते हैं-विवाद यह नहीं है कि सत्य क्या है, विवाद यह है कि शास्त्र का अर्थ क्या है! पुराना सारा विवाद सत्य के लिए नहीं है, शास्त्र के अर्थ के लिए है! व्याख्या क्या है शास्त्र की! और इतनी दुरूह, इतनी परिष्कृत शब्दावली विकसित की गई थी कि साधारणजन की तो हैसियत के बाहर है कि वह क, ख, ग भी समझ ले! और जिस बात को साधारणजन कम से कम समझ पाए, उस बात को जो समझता हो, वह अनिवार्यरूपेण जनता का नेता और गुरु हो सकता है।

दो परंपराएं

What is the difference between Buddhism and Jainism?

इसलिए इस देश में दो परंपराएं चल रही थीं। एक परंपरा थी जो संस्कृत में ही लिखती और सोचती थी। वह बहुत थोड़े से लोगों की, एक प्रतिशत लोगों का भी उसमें हाथ न था; बाकी सब दर्शक थे। ज्ञान का जो गंभीर आंदोलन चलता था, वह बहुत अल्प, थोड़े से इंटेलेक्चुअल्स, थोड़े से अभिजातवर्गीय लोगों का था। जनता को तो जो जूठा उससे मिल जाता था, वही उसके हाथ पड़ता था। जनता अनिवार्यरूप से अज्ञान में रहने को बाध्य थी।

महावीर और बुद्ध दोनों ने जन-भाषाओं का उपयोग किया। जो लोग बोलते थे, उसी भाषा में वे बोले। और शायद यह भी एक कारण है कि हिंदू-ग्रंथों में महावीर के नाम का कोई उल्लेख नहीं हो सका। उल्लेख न होने का कारण है- क्योंकि संस्कृत में न उन्होंने कोई शास्त्रार्थ किए, संस्कृत में न उन्होंने कोई दर्शन विकसित किया, संस्कृत में न उनके ऊपर उनके समय में कोई शास्त्र निर्मित हुआ! तो संस्कृत को जानने वाले जो लोग थे- जैसे आज भी यह हो सकता है, आज भी हिंदुस्तान में अंग्रेजी दो प्रतिशत लोगों की अभिजात भाषा है- यह हो सकता है कि मैं हिंदी में बोलता ही चला जाऊं तो दो प्रतिशत लोगों को यह पता ही न चले कि मैं भी कुछ बोल रहा हूं। वे अंग्रेजी में पढ़ने और सुनने के आदी हैं। और तब यह भी हो सकता है कि एक बिलकुल साधारणजन अंग्रेजी में बोलता हो, तो वह दो प्रतिशत लोगों के लिए विचारणीय बन जाए।

आश्चर्य की बात

महावीर चूंकि अत्यंत जन-भाषा में बोले, इसलिए पंडितों का जो वर्ग था, स्कालर्स की जो दुनिया थी, उसने उनको बाहर ही समझा। वे ग्राम्य ही थे, उनको उसने भीतर नहीं लिया। इसलिए किसी ग्रंथ में भी- हिंदू-ग्रंथ में- महावीर का कोई उल्लेख नहीं है। यह बड़े आश्चर्य की बात है। महावीर जैसी प्रतिभा का व्यक्ति पैदा हो और देश की सबसे बड़ी परंपरा, मूल-धारा की परंपरा में, उसके शास्त्रों में, उस समय के लिपिबद्ध ग्रंथों में, उसका कोई नाम उल्लेख भी न हो! विरोध में भी नहीं! अगर कोई हिंदू-ग्रंथों को पढ़े तो शक होगा कि महावीर जैसा व्यक्ति कभी हुआ भी या नहीं हुआ? अकल्पनीय मालूम पड़ता है कि ऐसे व्यक्ति का नाम उल्लेख-विस्तार तो बात दूसरी है- नाम उल्लेख भी नहीं है!

और मैं उसके बुनियादी कारणों में एक कारण मानता हूं कि महावीर उस भाषा में बोल रहे हैं, जो जनता की है। पंडितों से शायद उनका बहुत कम संपर्क बन पाया। हो सकता है हजारों पंडित अपरिचित ही रहे हों कि यह आदमी क्या बोलता है! क्योंकि पंडितों का एक अपना बुर्जुआपन, एक अभिजात भाव है, वे साधारणजन नहीं हैं! न वे साधारणजन की भाषा में बोलते, न सोचते। वे असाधारणजन हैं! वे किसी चूजन-फ्यू, चुने हुए लोग हैं, उन चुने हुए लोगों की दुनिया का सब कुछ न्यारा है! साधारणजन से उसका कुछ लेना-देना नहीं! साधारणजन तो भवन के बाहर हैं, मंदिर के बाहर हैं! कभी-कभी दया करके, कृपा करके साधारणजन को भी वे कुछ बता देते हैं, लेकिन गहरी और गंभीर चर्चा तो वहां मंदिर के भीतर चल रही है, जहां अपढ़ को, साधारण को प्रवेश निषिद्ध है।

महावीर और बुद्ध की बड़ी से बड़ी क्रांतियों में एक क्रांति यह भी है कि उन्होंने धर्म को ठेठ बाजार में लाकर खड़ा कर दिया। ठेठ गांव के बीच में! वह किसी भवन के भीतर बंद चुने हुए लोगों की बात न रही! सबकी, जो सुन सकता है, जो समझ सकता है, उसकी बात हो गई। और इसीलिए उन्होंने संस्कृत का उपयोग नहीं किया।

जनता की सीधी-सादी भाषा अदभुत

और भी कारण हैं। असल में प्रत्येक भाषा, जो किसी परंपरा से संबद्ध हो जाती है, उसके अपने एसोसिएशन हो जाते हैं। उसका प्रत्येक शब्द एक निहित अर्थ ले लेता है। और उसका किसी भी शब्द का प्रयोग खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि उस शब्द का प्रयोग करते ही उस शब्द के साथ जुड़ी हुई परंपरा का सारा भाव पीछे खड़ा हो जाता है। इस अर्थ में जनता की जो सीधी-सादी भाषा है, वह अदभुत है। वह काम करने की, व्यवहार करने की, जीवन की भाषा है। उसमें बहुत अनगढ़ शब्द हैं, जिनको नए अर्थ दिए जा सकते हैं।

और महावीर को जरूरी था कि वे जैसा सोच रहे थे, वैसे अर्थ के लिए नई शब्दावली हो। कठिन था उनको कि संस्कृत से वे शब्दावली को उपयोग में ला सकें, क्योंकि संस्कृत सैकड़ों वर्षों से, हजारों वर्षों से परंपराबद्ध विचार की एक विशेष दिशा में काम कर रही थी। उसके प्रत्येक शब्द का अर्थ हो गया था। उसमें ईश्वर का एक अर्थ था। वह अर्थ निश्चित हो गया था। ईश्वर शब्द का प्रयोग करना खतरे से खाली न था, क्योंकि वह अर्थ उसके पीछे खड़ा हो जाता था। तो उचित यह था कि ठीक अनगढ़ जनता की भाषा को सीधा उठा लिया जाए। उसे नए अर्थ, नए तराश, नए कोने उसको दिए जा सकते हैं।
तो वह सीधी जनता की भाषा उठा ली और उस जनता की भाषा में अदभुत चमत्कारपूर्ण व्यवस्था दी। यह और भी कारणों से उपयोगी है। यह यह भी बताता है कि महावीर का मन जिसको शास्त्रीय कहते हैं, एकेडेमिक कहते हैं, वह नहीं था। कुछ लोग होते हैं, जिनका मन शास्त्रीय होता है। जो सोचते हैं तो शास्त्र में! समझते हैं तो शास्त्र में! जीते हैं तो शास्त्र में। शास्त्र के बाहर उन्हंक कोई जीवन होता ही नहीं! अगर उनकी बातचीत सुनने जाएंगे तो ऐसा पता चलेगा कि जिंदगी यानी शास्त्र! शास्त्र के बाहर कहीं कुछ है ही नहीं! और शास्त्र बड़ी संकीर्ण चीज है। जिंदगी बड़ी विराट चीज है। उनके प्रश्न भी उठते हैं तो जिंदगी से नहीं आते, वे किताब से आते हैं! वे अगर कुछ पूछेंगे भी तो वे इसलिए पूछते हैं कि उन्होंने जो कुछ किताबें पढ़ी हैं! उनकी सीधी जिंदगी से कोई प्रश्न नहीं उठते!

हैरानी की बात

बड़े हैरानी की बात है यह कि कभी ग्रामीण से ग्रामीण व्यक्ति भी जीवन से संबंधित प्रश्नों की बात उठा देता है, जबकि पंडित से वैसी आशा करनी असंभव है। पंडित प्रश्न भी उधार ही पूछता है! यानी प्रश्न भी उसका अपना नहीं होता, उत्तर तो बहुत दूर की बात है! वह प्रश्न भी उसने किताब में पढ़ा होता है! और जब वह प्रश्न पूछता है, तब उसके पास उत्तर तैयार होता है। यानी वह आपसे कोई बड़े प्रश्न से उत्तर की आकांक्षा नहीं कर रहा है, वह शायद आपका परीक्षण ही कर रहा है कि आपको भी यह उत्तर पता है या नहीं पता है!

उत्तर भी उसके पास है, प्रश्न भी उसके पास है! प्रश्न से भी पहले वह उत्तर को पकड़ कर बैठा हुआ है! और अब वह जो प्रश्न उठा रहा है, वह आथेंटिक नहीं है, प्रामाणिक नहीं है, उसके प्राणों से नहीं आता है! तो शास्त्रीय लोग भी हैं, जिनकी सारी जिंदगी किताबों के बंद पन्नों के भीतर गुजरती है!

महावीर खुली जिंदगी के पक्षपाती हैं- खुले आकाश के नीचे नग्न खड़े हैं। खुली जिंदगी, कच्ची जिंदगी, जो रा लाइफ जैसी है, वे उसको छूना और स्पर्श करना चाहते हैं। और सीधा, आमने-सामने एनकाउंटर करना चाहते हैं जिंदगी का। इसलिए शास्त्र को बिलकुल हटा देते हैं। शास्त्रीयता को हटा देते हैं। शास्त्रीय व्यवस्था को हटा देते हैं।

और हमेशा ऐसी जरूरत पड़ जाती है कि कुछ लोग वापस जिंदगी का हमें स्मरण दिलाएं। नहीं तो किताबें बड़ी खतरनाक भी हैं। किताब, किताब, किताब, धीरे-धीरे हम यह भूल ही जाते हैं कि जिंदगी कुछ और है, किताब कुछ और है। एक तो घोड़ा वह है, जो बाहर सड़क पर चल रहा है। एक घोड़ा वह है, जो शब्दकोश में लिखा हुआ है। घोड़े का अर्थ शब्दकोश में दिया हुआ है। घोड़ा सड़क पर चल रहा है। जिंदगी भर जो किताबों में उलझे रहते हैं, वे किताब के घोड़े को ही असली घोड़ा समझने लगें तो बहुत आश्चर्य नहीं है।

हां, इतना जरूर है कि किताब के घोड़े पर चढ़ने की भूल कोई कभी नहीं करता। लेकिन किताब के परमात्मा पर प्रार्थना करने की भूल निरंतर हो जाती है! किताब का परमात्मा इतना ही सही मालूम होने लगता है, जितना कि असली परमात्मा होगा! लेकिन किताब का परमात्मा एक बात ही और है।

शास्त्र और महावीर

शब्द आग आग नहीं है। और किसी मकान पर आग लिख देने से मकान नहीं जल जाता है। आग बात ही और है। आग तो कुछ बात ऐसी है कि आग शब्द भी जल जाएगा उसमें। वह भी नहीं बच सकेगा।

लेकिन भूल होने का डर है कि शब्द आग को कहीं हम आग न समझ लें। और शब्द परमात्मा को कहीं हम परमात्मा न समझ लें। और जो शब्दों की दुनिया में जीते हैं, उनसे यह भूल होती ही है। उन्हें याद ही नहीं रह जाता कि कब जिंदगी से वे खिसक गए हैं और एक शब्दों की दुनिया में भटक गए हैं! उसका अपना जगत है।

महावीर उस शब्द-जाल से भी बाहर आ जाना चाहते हैं। इसलिए शब्द-जाल था संस्कृत का। आम जनता की बातचीत तो सीधी-सादी है। उसमें जाल नहीं है। न व्याख्या है, न परिभाषा है। जिंदगी को इंगित करने वाले शब्द हैं। उन्होंने वे ही शब्द पकड़ लिए, और सीधी जनता से बात की। वे जनता के आदमी हैं इस अर्थों में। वे पंडित नहीं हैं। और उन्होंने यह भी न चाहा कि उनके शास्त्र निर्मित हों।

किसी ने पूछा भी है एक सवाल, कि महावीर के बहुत पूर्व काल से लिखने की कला विकसित हो गई थी और जैसा जैन तो कहते हैं कि खुद प्रथम तीर्थंकर ने लोगों को लिखने की कला सिखाई! तो प्रथम तीर्थंकर को हुए तो कितना काल व्यतीत हो चुका था, लोग खुद लिखना जानते थे, पढ़ना जानते थे, किताब बन सकती थी! फिर महावीर के जीते जी, महावीर ने जो कहा, उसका शास्त्र क्यों निर्मित नहीं हुआ?

हमें ऐसा लगता है कि लिखने की कला न हो, तो ही शास्त्र निर्मित होने में बाधा पड़ती है। लिखने की कला हो तो शास्त्र निर्मित होना ही चाहिए। मेरी अपनी दृष्टि यह है कि महावीर की चूंकि बुद्धि शास्त्रीय नहीं है, उन्होंने नहीं चाहा होगा कि उनका शास्त्र निर्मित हो। और जब तक उनका बल चला होगा, तब तक उन्होंने उसे रोकने की कोशिश की होगी।

महावीर खो जाएंगे, शास्त्र बचेगा

उसके भी कारण हैं। क्योंकि जैसे ही शास्त्र निर्मित होता है, वैसे ही व्यक्ति की चेतना जीवन से, अस्तित्व से, एक्झिस्टेंस से अलग होकर शब्दों की दुनिया में प्रवेश कर जाती है। और एक ऐसे काल्पनिक लोक में भटकने लगती है, जो लगता बहुत सच है, लेकिन होता बिलकुल भी नहीं है। तो महावीर ने सुनिश्चित रूप से शास्त्र को रोकने की कोशिश की होगी। इसलिए मर जाने के दो चार सौ वर्षों तक, जब तक कि लोगों को उनका स्मरण रहा होगा स्पष्ट कि शास्त्र नहीं लिखने हैं, तब तक शास्त्र नहीं लिखा जा सका होगा। लेकिन हमारा मोह भारी है, हम प्रत्येक चीज को स्मृति में रख लेना चाहते हैं। तो कहीं ऐसा न हो कि महावीर का कहा हुआ विस्मरण हो जाए, कहीं ऐसा न हो कि महावीर विस्मरण हो जाएं। तो हमारे पास उपाय क्या है- हम लिपिबद्ध कर लें, शास्त्रबद्ध कर लें, फिर नहीं खोएगा! महावीर खो जाएंगे, शास्त्र बचेगा!
लेकिन कभी हमें सोचना चाहिए कि जब महावीर जैसा जीवंत व्यक्ति भी खो जाता है तो शास्त्र में तुम बचा कर क्या महावीर को बचा सकोगे? महावीर जैसे व्यक्ति तो यही उचित समझेंगे कि जब व्यक्ति ही विदा हो जाता है, और जहां सभी चीजें परिवर्तनीय हैं, और सभी आती हैं और चली जाती हैं, वहां कुछ भी थिर न हो। वहां शब्द और शास्त्र भी थिर न हो, वह भी खो जाए। क्योंकि जीवन का नियम जब यह है- जन्मना और मर जाना, होना और मिट जाना- और महावीर को भी जब वह जीवन का नियम नहीं छोड़ता है, तो महावीर की वाणी पर भी यह क्यों लागू न हो? हम क्यों यह आशा बांधें कि हम शब्दों को बचा लेंगे? क्या बचेगा हमारे हाथ में!

अंगारा कभी नहीं बचता। अंगारा तो बुझ ही जाता है। राख बच सकती है। अंगारे को आप सदा नहीं रख सकते। राख को सदा रख सकते हैं। राख बड़ी सुविधापूर्ण है, कन्वीनिएंट है। अंगारे को तो थोड़ी देर ही रखा जा सकता है, क्योंकि जीवंत है। अंगारा तो बुझेगा, अंगारे को आप सतत नहीं रख सकते। असल में अंगारा जिस क्षण जलना शुरू हुआ है, उसी क्षण बुझना भी शुरू हो गया है। एक पर्त जल गई है, वह राख हो गई; दूसरी पर्त जल रही है, वह राख हो रही है; तीसरी पर्त जलेगी, वह राख होगी। पर्त-पर्त थोड़ी देर में अंगार जो है, वह राख हो जाएगा। अंगारा तो नहीं बचेगा, अंगारा तो जाएगा; क्योंकि अंगारा जीवित है। जो भी जीवित है, वह जाएगा।

राख अंगार थी और… अंगार नहीं थी!

राख बचाई जा सकती है करोड़ों वर्षों तक। क्योंकि राख मृत है। उस पर जीवन के नियम काम नहीं करते। वह मरा हुआ हिस्सा है, जिससे जीवन जा चुका। नियम तो हो चुका पूरा, राख पड़ी रह गई है। अब राख को हम बांध कर रख सकते हैं! और खतरा यह है कि कहीं राख को हम अंगार न समझने लगें। कभी राख अंगार थी, लेकिन राख बनी ही तब, जब अंगार न हो गया। …अब इसमें बहुत मजा है सोचने जैसा! सोचने की दो बातें हैं- राख अंगार थी और राख अंगार नहीं थी। राख अंगार थी इसका मतलब यह कि अंगार से ही राख आई है। अंगार के जीने से ही राख का आना हुआ है। लेकिन एक अर्थ में राख कभी भी अंगार नहीं थी, क्योंकि जहां-जहां राख हो गई थी, वहां-वहां अंगार तिरोहित हो गया था। राख जो थी, वह जीवित अंगार की छूटी हुई छाया है। जीवित अंगार की जो छाया छूट गई, जो रेखा छूट गई। अंगार तो गया, राख हाथ में रह गई। राख को संजो कर रखा जा सकता है। महावीर ने चाहा होगा कि राख को भी मत सजाना, संवारना; क्योंकि असली सवाल अंगार था, वह तो बचेगा नहीं, उसे तो तुम संभाल नहीं सकोगे- राख संभाल कर रख लोगे! और फिर कल यह धोखा होगा तुम्हारे मन को कि यही है अंगार! और तब इतनी बड़ी भ्रांति पैदा होगी, जितनी महावीर की सब वाणी खो जाए, तो भी पैदा होने को नहीं है।

हिम्मतवर आदमी रहे होंगे। अपनी स्मृति के लिए कोई व्यवस्था न करना, बड़े साहस की बात है। मृत्यु के विरोध में हम सभी ये उपाय करते हैं कि किसी तरह-हम तो मरेंगे, लेकिन किसी तरह स्मृति की एक रेखा हमारे पीछे शेष रह जाए! वह बची ही रहे। फिर वह शब्द हो, कि पत्थर पर लगा हुआ नाम हो, कि शास्त्र हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता! हमारा मन, मरने वाला मन, न मरने की आकांक्षा करता है! मरेगा सब, यह हमें पता है, तो न मरने के लिए हम कुछ व्यवस्था कर जाते हैं! महावीर ने जीते जी न मरने की कोई व्यवस्था नहीं की। क्योंकि महावीर की दृष्टि यह है, जो मरने वाला है, वह मरेगा ही; जो नहीं मरने वाला है, वह नहीं ही मरता है। और जो मरने वाले को बचाने की कोशिश करते हैं, वे बड़ी भ्रांति में पड़ जाते हैं, वे अक्सर राख को अंगार समझ लेते हैं!

जो सत्य है, सुंदर है- वह लिखा नहीं गया

शास्त्र में जो धर्म है- वह राख है! जीवन में जो धर्म है- वह अंगार है! …तो जीते जी उन्होंने शास्त्र निर्मित नहीं होने दिया। तीन-चार सौ वर्ष तक, जब तक कि लोगों को खयाल रहा होगा उस आदमी का, उसके निषेध का, उसके इनकार का, तब तक उन्होंने टेंपटेशन को, प्रलोभन को रोका होगा। लेकिन जब वह स्मृति शिथिल पड़ गई होगी, भूल गई होगी, धीरे-धीरे विस्मरण के गर्त में चली गई होगी, तब उनके सामने सबसे बड़ा सवाल यही रह गया होगा कि हम कैसे सुरक्षित कर लें, जो भी उन्होंने कहा है! यह ध्यान रखने की बात है कि आज तक जगत में जो भी महत्वपूर्ण है, जो भी सत्य है, जो भी सुंदर है- वह लिखा नहीं गया है, वह कहा ही गया है! जो भी महत्वपूर्ण है आज तक पूरी पृथ्वी पर-वह लिखा नहीं गया है, वह कहा ही गया है!

कहने में एक बड़ी जीवंत बात है। लिखने में सब मुर्दा हो जाता है। क्योंकि जब हम कहते हैं तो कोई सामने होता है, जिससे कहते हैं। अकेले में तो कह नहीं सकते। कोई जीवंत सामने होता है। लिखने में कोई सामने नहीं होता, अंधकार होता है।

सत्य की खबर!

कहते हैं हम किसी से, लिखते हैं हम न किसी के लिए! किसी के लिए नहीं लिखते! कौन पढ़ेगा? कोई भी पढ़ेगा। तो लिखने के समक्ष कोई भी मौजूद नहीं है, सिर्फ लिखने वाला मौजूद है। बोलने के समक्ष सिर्फ बोलने वाला मौजूद नहीं है, बोलने वाले से भी ज्यादा सुनने वाला मौजूद है। और एक जीवंत संपर्क है।

इस जीवंत संपर्क के कारण न तो उन्होंने शास्त्रों की भाषा उपयोग की, न शास्त्रीयता उपयोग की, न अपने पीछे शास्त्र की रेखा बनने दी है। और लोकमानस की, सामान्यजन की… बहुत पुराना संघर्ष है यह, अभी भी पूरा नहीं हो पाया। ऐसी धारणा रही है कि धर्म जो है, वह थोड़े से चुने हुए लोगों की बात है! और सत्य जो है, वह बहुत थोड़े से लोगों की समझ की बात है, सबकी बात नहीं है!

मुझसे लोग आ-आकर कहते हैं कि आप ऐसी बातें लोगों से मत कहिए, ये बातें तो बहुत थोड़े से लोगों के लिए हैं! सामान्य आदमी को मत कहिए, सामान्य आदमी इनसे भटक जाएगा! …अब यह बड़े मजे की बात है कि सामान्य आदमी को सत्य भटकाता है; और असत्य जो है, वह मार्ग पर लाता है! और मेरी दृष्टि यह है कि वह बेचारा सामान्य ही इसीलिए है कि उसे सत्य की कोई खबर नहीं मिलती।