अनिल सिंह
कुछ और प्रश्न उठते हैं। वह क्या था जिसने ‘बैंग’ किया? ब्रह्मांड कैसे बना? प्रारंभ से पूर्व क्या था? जब हम पूर्व या ‘पहले’ की बात करते हैं तो ‘समय’ के संदर्भ में करते हैं। पूछ सकते हैं कि जब समय स्वयं शुरू हुआ उससे पहले क्या हुआ?
चेतना की समस्या का हल
‘एट होम इन द यूनिवर्स’ में जॉन व्हीलर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि- सृष्टि के निर्माण में द्रष्टा (आब्ज़र्वर) ही भागीदार है। दृष्टा अर्थात् ‘चेतना’ (कॉन्शसनेस)। चेतना मूल है। मन ( माइंड ) एक ऐसा इलेक्ट्रोमैग्नेटिक कंप्यूटर है, जिसकी प्रोग्रामिंग दिमाग (ब्रेन) द्वारा की जाती है। दिमाग के कंप्यूट करने की कला ही चेतना की समस्या का हल प्रस्तुत करती है; जीवन की उत्तरजीविता (सर्वाइवल) के तरीके बताती है। हमारी समस्त अनुभूतियां ‘इलेक्ट्रोकेमिकल सिग्नल’ बन जाती हैं और दिमाग में वास्तविक अनुभूति होती है, जहां इन सिग्नलों को डिकोड किया जाता है।’ ऑब्जर्वर’ और ‘आब्ज़र्वड’ र्दोनों मूलतः जुड़े हुए हैं। आज के कुछ बड़े वैज्ञानिकों की दृष्टि में चेतना (कॉन्शसनेस) ब्रह्माण्ड का मूल हिस्सा है, जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता। विश्व की महान आध्यात्मिक परंपराएं आज विज्ञान की वास्तविकताएं हैं। स्क्रोडिंजर वेदों की इस संकल्पना में विश्वास करते थे कि सभी चेतन प्राणी एक ही सार्वभौम सत्ता के विभिन्न पहलू हैं।
चेतना- स्मृति, ध्यान और भाषा से जुड़ी होती है और इन सब का लोकस ( ठिकाना) दिमाग में होता है। किंतु चेतना सर्वत्र है- जहां हम हैं वहां भी और जहां हम नहीं हैं- वहां भी। सार्वभौम चेतना की संभावना को यथार्थ में परिणत कर देने की हमारे दिमाग की योग्यता को ही ईश्वर के आंख-कान कह सकते हैं।
सृष्टि का सृजन
कुल के बावजूद विज्ञान के पास इसका जवाब नहीं है कि ‘समय’ के प्रारंभ होने के पूर्व क्या हुआ। क्या चेतना ने सृष्टि का सृजन किया? और यदि नहीं तो फिर किसने? स्रोत हमारे साथ ही नहीं हमारे भीतर है। क्या हमें ब्रह्माण्ड के वास्तुकार का पता मिला? व्हीलर की सैद्धांतिक परंपरा कहेगी नहीं कहेगी ‘हां’। क्वांटम भौतिक विज्ञानी कहेंगे ‘नहीं।’ हमने ‘अवसर’ स्थापित कर लिए हैं। हमने ‘साधनों’ को जान लिया है। किंतु हम ‘ध्येय’ को भुला बैठे हैं। आरंभ से पूर्व क्या आया? रूढ़िवादी विज्ञान अभी भी कहता है- ‘कुछ नहीं”। वह इस रहस्य का कोई हल नहीं देता।
यदि हम सृष्टि के सृजन का श्रेय ईश्वर को दें और फिर शेष का विज्ञान को तो अब ईश्वर की आवश्यकता ही क्या है? पश्चिम के ‘नथिंग’ और पूर्व के ‘नथिंगनेस’ का अंतर तब समझ में आता है जब यह खोज लिया गया कि ब्रह्मांड में जितनी पॉजिटिव एनर्जी है उतनी ही नेगेटिव एनर्जी है, इसलिए नेट एनर्जी शून्य है। ‘चार्ल्स सैफी’ अपनी पुस्तक ‘जीरो : द बायोग्राफी ऑफ ए डेंजरस आइडिया’ में बताते हैं कि ‘शून्य’- धर्मशास्त्रियों, दार्शनिकों और गणितज्ञों के लिए हजारों वर्षों से एक पहेली रहा है। इस रहस्यमय अंक का उदय भारत में हुआ। शून्य अनिवार्यतः अनंत से संबद्ध है। जब हम किसी भी संख्या को अनंत से भाग देते हैं शून्य प्राप्त होता है, जब कोई भी संख्या शून्य से भाग दी जाती है तो अनंत प्राप्त होता है। शून्य धनात्मक और ऋणात्मक अनंतों के मध्य का ‘वैनिशिंग प्वाइंट’ प्रतीत होता है। शून्य में ईश्वर के ‘पते’ की एक धुंधली सी झिलमिलाहट दिखाई पड़ती है।
धर्म के केंद्र से मिल रहा विज्ञान
मानव इतिहास में पहली बार धर्मों के ‘एक स्रोत’ को विज्ञान की उल्लेखनीय स्वीकृति प्राप्त हो रही है। यह आश्चर्यजनक है कि विज्ञान धर्म के केंद्र से मिल रहा है और जैसा कि आइंस्टीन ने कहा था- यह एक दूसरे को ‘स्टिमुलेट’ कर रहे हैं। आज विज्ञान को प्रत्येक अस्तित्व के पीछे की एक विशिष्ट शक्ति का अनुभव हो रहा है, जो स्पेस की नीव (फाउंडेशन ) से लेकर सर्वत्र दर्ज है। यह उस ‘एक स्रोत’ की शक्ति है। यह वह व्यवस्था है जिसने सभी व्यवस्थाओं को अपने में समेट रखा है, सभी ‘ फील्ड्स’ और ‘फार्म्स’ को एक कर दिया और साथ ही साथ ‘चेतना’ (कॉन्शसनेस) को भी।
इसी को तो हमारे ऋषियों ने “ब्रह्म “कहा।
चलिए मैंने तो अपने दिल और दिमाग में तालमेल बैठाने का एफर्ट कर लिया है औरों की वे जाने । ( समाप्त )
(लेखक प्रख्यात शिक्षाविद हैं और विभिन्न विषयों पर उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं)