प्रदीप सिंह।
पूर्वोत्तर के राज्यों के आपसी सीमा विवाद सुलझाने की शुरू हुई कवायद, असम ने मेघालय से सुलझाया आधा विवाद, बाकी राज्यों से भी जल्द खत्म होगा विवाद।
“हरि अनंत हरि कथा अनंता” यह भगवान के बारे में कहा गया है। मगर कांग्रेस की बात करें तो उसका भ्रष्टाचार,उसकी अकर्मण्यता, विवादों को बनाए रखने की उसकी क्षमता, कमीशन बनाने और कमीशन लेने की उसकी ताकत का कोई सानी नहीं है। उसकी कथा अनंत है। जितना कहिए, जितना बोलिए वह हमेशा कम लगता है।इस बारबात करूंगा पूर्वोत्तर की। पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्य असम से काट कर बनाए गए हैं।वर्ष 1963में असमके एक हिस्से को निकालकर नगालैंड बनाया गया।1972 में मिजोरम और मेघालय बनाया गया। उसके बाद 1987 में अरुणाचल प्रदेश बनाया गया। नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी जिसे नेफा कहा जाता था में असम के कुछ हिस्सों को मिलाकर यह राज्य बनाया गया। जब ये राज्य बने तो जाहिर है उनकी सीमा भी निर्धारित होनी चाहिए थी। उनकी सीमा निर्धारित तो हुई लेकिन सिर्फ नक्शे पर।
फूट डालो शासन करो
नक्शे पर लाइन खींचकर सीमा बना तो दी गई लेकिन जमीनी स्तर पर इस सीमा को लागू करने की कभी कोशिश ही नहीं हुई। कभी इस बात का प्रयास ही नहीं हुआ कि कैसे वह लाइन व्यवहारिक हो, दोनों पक्षों को स्वीकार्य हो।जब विवाद बढ़ने लगे, झगड़े होने लगे, हिंसक झड़पें होने लगी तब भी कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकार इस मामले में “फूट डालो और शासन करो” की नीति पर चलती रही कि दो राज्य आपस में लड़ेंगे तो समझौता करने का मौका मिलेगा, दोनों को काबू में रखने का मौका मिलेगा। इसकी वजह से आज तक इन विवादों का निपटारा नहीं हुआ। असम, मिजोरम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश के बीच जो आपसी सीमा विवाद है उसका कुल इलाका500 वर्ग किलोमीटर है। इससे आप अंदाजा लगा लीजिए कि कितना बड़ा इलाका है और कितन बड़ा विवाद है जो अब तक होता रहा है।सभी के अपने-अपने दावे हैं। कोई अपने दावे से पीछे हटने को तैयार नहीं है। सब अपनी हठ पर कायम हैं। अपने-अपने दावों को सही साबित करने के लिए सभी अलग-अलग तरीके अपनाते रहे हैं। दस्तावेज दिखा कर, जहां दस्तावेज नहीं मिल रहे हैं वहां स्थानीय स्तर पर निर्माण करवा कर, स्थानीय लोगों को अपने पक्ष में कर विवाद को नया-नया रूप दिया जाता रहा है।
बढ़ता रहा झगड़ा
असम और नगालैंड की एक दूसरे से 512 किलोमीटर की सीमा लगती है।सीमा को लेकर सबसे ज्यादा विवाद और हिंसक झड़पें इन्हीं दोनों राज्यों के बीच हुई हैं।वर्ष1968 में पहली बार सीमा को लेकर दोनों के बीच हिंसक झड़पें हुईं जिनमें डेढ़ सौ लोग मारे गए थे। एक ही देश में सीमा को लेकर दो राज्यों के बीच हुए विवाद में इतनी बड़ी संख्या में लोग मारे गए यह कोई छोटी बात नहीं है।इसके बाद भी यह सिलसिला रुका नहीं।1979 में फिर से 54 लोग और1985 में 41 लोगमारे गए।इनमें 28 लोग असम पुलिस के सिपाही थे। इसके अलावा 2014 में 17 लोग मारे गए।पिछले साल जुलाई में सीमा को लेकर असम और मिजोरम में झड़प हुई जिसमें असम पुलिस के 6 कर्मी मारे गए। उसके बाद माहौल और गर्म हो गया। असम और मेघालय के बीच 12 जगहों को लेकर विवाद है जो शायद सबसे कम है। असम और अरुणाचल प्रदेश के बीच 12 सौ जगहों को लेकर विवाद है। असम, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश का विवाद इतना बढ़ा कि वह सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। अभी सुप्रीम कोर्ट में यह मामला लंबित है।
विवाद सुलझाने की नहीं हुई कोशिश
2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से एक्ट ईस्ट पॉलिसी के तहत पूरे पूर्वोत्तर में जिस तरह का विकास हुआ है आप इसकी कल्पना नहीं कर सकते कि सिर्फ सात साल में विकास के इतने काम हो सकते हैं। विकास के रूपक बदल गए हैं। मैं अभी हाल ही में घूमने के लिए असम गया था। गुवाहाटी से काजीरंगा जाने के दौरान गुवाहाटी से नया गांव की जो सड़क थी उसके बारे में मेरे ड्राइवर ने कहा कि यह अटल जी की सड़क है। नया गांव में एक जगह पर उससे आगे जब बढ़े तो उसने बताया कि अब यह मोदी जी की सड़क शुरू हो गई है। अब आप इससे अंदाजा लगाइए कि स्थानीय लोगों के मन में विकास का, उसकी पहचान का रूपक कितना बदल गया है। सड़कों का जाल बिछाने में सबसे ज्यादा काम भारतीय जनता पार्टी की सरकारों में हुआ है। अटल बिहारी वाजपेयी के समय में शुरू हुआ था हाईवे बनाने और ग्रामीण सड़कों को बनाने का काम। आजादी के बाद 60 सालों तक जिस की उपेक्षा होती रही थी। सब गांव की बात करते रहे, उसके विकास की बात करते रहे लेकिन वहां इंफ्रास्ट्रक्चर बने इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।उसी तरह सीमा विवाद सुलझाने के लिए कमिटियां बनती रही, कमीशन बनते रहे, उनकी रिपोर्ट आती रही और वह ठंडे बस्ते में डाल दी जाती रही।पूर्वोत्तर के राज्यों का सीमा विवाद जवाहरलाल नेहरू के समय ही शुरू हुआ। उसके बाद इंदिरा गांधी आईं, राजीव गांधी आए, फिर 2004 से 2014 तक 10 साल तक प्रधानमंत्री भले ही मनमोहन सिंह रहे लेकिन सत्तादरअसल सोनिया गांधी के हाथ में थी, गांधी परिवार की इन तीन पीढ़ियां ने इस विवाद को सुलझाने में कोई रुचि नहीं ली। जबकि लोग मारे जाते रहे, झगड़े होते रहे, छोटे-छोटे झगड़े आए दिन होते रहते हैं।
अब क्या हो रहा बदलाव
केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बादजो भी सीमा विवाद हैं, जो भी समस्याएं हैं उसको हल करने की पहल शुरू हुई है। 2021 में हिमंत बिस्वसरमा असम के मुख्यमंत्री बने। जुलाई 2021 में जब सीमा को लेकर झड़प हुई तो हिमंत बिस्वसरमा ने इस पर काफी सोच विचार किया।उन्हें लगा कि इस समस्या का स्थायी हल निकाला जाना चाहिए। अगर दोनों पक्ष अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहे तो कोई समझौता नहीं हो सकता। उन्होंने मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराडो संगमा से बात की। उन्होंने संगमा से कहा कि जब तक हम इस विवाद को हल नहीं करेंगे तब तक झगड़े होते रहेंगे। नक्शे पर खींची गई लाइन की बजाय हमें यह देखना होगा कि जमीनी स्तर पर इसे कैसे लागू किया जाए। उन्होंने एक फार्मूला दिया लेन-देन (गिव एंड टेक) का। उन्होंने कहा कि दोनों अपनी जिद से हटें। कुछ हम छोड़ते हैं और कुछ आप छोड़िए जिससे समझौता हो सकता है। मेघालय के मुख्यमंत्री इसके लिए तैयार हो गए। तीन कमिटियां बनाई गई।दोनों राज्यों के बीच 12 स्थानों को लेकर विवाद है।पहले यह पहचान की गई कि छहजगह ऐसे विवाद हैं जिनको हल करने में बाकी छह जगह की जुलना में थोड़ी कम मेहनत करनी पड़ेगी।तो पहले उन पर बात कर लें। तीनों कमिटियों में दोनों राज्यों के वरिष्ठ मंत्री, वरिष्ठ अधिकारी और इसके अलावा स्थानीय लोग जो उन विवादित इलाकों में रहते हैं को शामिल किया गया। लंबी-लंबी बैठकचली, काफी समय तक चली,बैठक में गर्मा गर्मी हुई, बहस हुई। कई बार ऐसा लगा कि मीटिंग खत्म हो जाएगी आगे बात नहीं होगी लेकिन बातचीत चलती रही। आखिर में उन छह जगहों पर दोनों पक्षों की रजामंदी से समझौता हो गया। दोनों राज्यों के बीच कुल 36.79 वर्ग किलोमीटर का झगड़ा सुलझ गया। उन छहजगहों को लेकर जो फैसला हुआ उसके मुताबिक 18.28 वर्ग किलोमीटर जमीन मेघालय को मिलेगी और 18.51 वर्ग किलोमीटर जमीन असम को मिलेगी। इस नतीजे पर पहुंचने के लिए पांच सूत्रीय फार्मूला अपनाया गया।पहला ऐतिहासिक सबूत, दूसरासंबंधित इलाके की एथ्निसिटी (सामाजिक, सांस्कृतिक, जातीय, भाषाई, धार्मिक आधार पर भिन्नता), तीसरा प्रशासनिक सहूलियत (संबंधित जगह के लोगों को किस इलाके में रहने से ज्यादा सहूलियत होगी), चौथी शर्त रखी गई थी एकरूपता ताकि एक जैसा दिखाई दे।ऐसा न हो कि एक कोना इधर चला गया दूसरा कोना उधर चला गया और पांचवींशर्त थी विवादित इलाकों के लोगोंकी भावनाओं का सम्मान कि वह क्या चाहते हैं। एक तरह से इसे प्राथमिकता दी गई क्योंकि इस तरह का कोई भी समझौता तभी चल सकता है जब स्थानीय लोगों को वह समझौता मंजूर हो। इस तरह से इन पांचसिद्धांतों के आधार पर इन तीन कमिटियों ने जो फैसला किया उसे दोनों पक्षों ने स्वीकार कर लिया।
केंद्र की मंजूरी
इस समझौते को लेकर दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मिले। केंद्र ने इस समझौते को मंजूरी देते हुएदोनों राज्यों को इसे जमीनी स्तर पर लागू करने को कहा।इसके बाद हिमंत बिस्वसरमा ने अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम के मुख्यमंत्रियों से बात की।हिमंत बिस्वसरमा ने उनके सामने भी गिव एंड टेक का ही प्रस्ताव रखा। उन्होंने उनसे कहा कि अड़े रहेंगे तो कुछ निकलेगा नहीं। हम एक ही देश के अलग-अलग राज्य के रहने वाले लोग हैं। हमें नॉर्थ-ईस्ट को एक इकाई के रूप में देखना चाहिए। अगर रोज-रोज झगड़े होते रहेंगे तो सभी राज्यों के विकास पर असर पड़ेगा, लोगों के मन पर असर पड़ेगा, उनके मन में वैमनस्य पैदा होगा। झगड़े से फायदा किसी का नहीं होने वाला है।इसके लिए फिर वही फार्मूला तय किया गया कि पांच कसौटियां होंगी जिन पर कसा जाएगा की लेन-देन किस तरह का होगा।तीनों राज्य सुप्रीम कोर्ट जाएंगे और कोर्ट से कहेंगे कि वे कोर्ट से बाहर समझौते के लिए तैयार हैं।
जिम्मेदार कौन?
अब आप सोचिए कि सीमा को लेकर नॉर्थ-ईस्ट को हिंसा की आग में धकेला गया तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? बहुत से लोगों को इस बात से ऐतराज होता है कि हर बात के लिए नेहरू-गांधीपरिवार को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। मुझे बताइए कि मैंने ये जो तथ्य आपके सामने रखे उसके बाद किसे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए? नरेंद्र मोदी या अटल बिहारी वाजपेयी को या फिर गांधी-नेहरू परिवार को। वे अपनी जिम्मेदारी से कैसे बच सकते हैं? मैं इस बात से इंकार नहीं करता हूं कि जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के कार्यकाल में काम नहीं हुए हैं।उनके समय में बड़े और अच्छे काम हुए हैं। लेकिन सवाल यह है कि और क्या क्या हो सकता था?बात इस देश की क्षमता की है कि हम क्या कर सकते थे, यहां के लोगों की क्षमता की है कि क्या बन सकते थे, कहां तक पहुंच सकते थे।उनकी जब आलोचना होती है तो इसके लिए होती है।इस वजह से देश की और यहां के लोगों की क्षमता का पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं किया गया। एक हिमंत बिस्वसरमा एक फार्मूला लेकर आते हैं और विवाद का हल शुरू हो जाता है। आप इससे अंदाजा लगाइए कि यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है। बात नीयत की थी, बात राजनीतिक इच्छाशक्ति की थी। अगर कांग्रेस की सरकार केंद्र में होती औरहिमंत बिस्वसरमा भाजपा के मुख्यमंत्री के तौर पर केंद्र के पास इस प्रस्ताव को लेकर जाते तो हो सकता इसे रिजेक्ट कर दिया जाता या ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता।ये जो डबल इंजन की सरकार की बातें होती है वो यहां पर काम करता है। राज्य में और केंद्र में अगर भाजपा की सरकार नहीं होती तो यह मुद्दा भी हल नहीं होता।
राजनीतिक इच्छाशक्ति से विवाद का हल
हिमंत बिस्वसरमा के मुताबिक अगले ढाई-तीनसाल में पूर्वोत्तर राज्यों के सभी आपसीसीमा विवाद सुलझा लिए जाएंगे। उनके लिए कमिटियां बन रही हैं, बातचीत शुरू हो रही है, किस आधार पर फैसला करना है यह भी तय हो रहा है जिसमें केंद्र सरकार का पूरा सहयोग है। राजनीतिक इच्छाशक्ति है, हल निकालने की इच्छा है, मिलकर आगे चलने की इच्छा है इसलिए यह सब हो पा रहा है। यह फर्क है कांग्रेस और नरेंद्र मोदी के शासन में। जब भी आप तुलना करें तो इन बड़ी बातों पर आपकी नजर होनी चाहिए कि किस तरह का परिवर्तन हो रहा है। आप देखिए कि इस सरकार की आधी से ज्यादा शक्तियां तो पिछली सरकारों की गलतियों को सुधारने में लग रहा है, उनको ठीक करने में खर्च हो रहा है। अगर यह सब पहले हो गया होता तो आप सोचिए कि ये राज्य किस स्थिति में होते, उनके विकास पर कितना असर पड़ा होता है।मगर जब आप दोराज्यों को या दो लोगों को लड़ाने में अपनी काबिलियत समझते हैं तब समस्याओं के हल नहीं निकलते हैं। समस्याओं के हल तब निकलते हैं जब आप उसे निकालना चाहते हैं, जब आपमें राजनीतिक इच्छा शक्ति होती है जो कि अब हो रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले ढाई-तीन साल में पूर्वोत्तर के राज्यों के आपसी सीमा विवाद समाप्त हो जाएंगे जिसकी शुरुआत हो चुकी है।