डॉ. संतोष कुमार तिवारी ।
यह सवाल आपके मन में कभी न कभी अवश्य उठा होगा कि ये लेखक लिखते क्यों हैं।
समाज के अन्य वर्गों की तरह अधिकतर लेखक भी ढ़ोंगी होते हैं । उनकी कथनी और करनी में बड़ा फर्क होता है। कोई अपने अहंकार की तुष्टि के लिए लिख रहा होता है, तो कोई पैसे के लिए । लगभग हर स्थापित लेखक को पता होता है कि वह क्यों लिख रहा है, परन्तु वह यह बात बड़ी सफाई के साथ बताता नहीं है।
वर्ष 1946 में इंग्लैंड की एक मैगजीन ‘गैंगरेल’ में प्रख्यात उपन्यासकार जार्ज ऑरवेल (1903-1950) का एक लेख छपा था- ‘मैं क्यों लिखता हूं’।
लेखक के चार बड़े उद्देश्य
‘मैं क्यों लिखता हूं’ में जार्ज ऑरवेल कहता है कि लेखन के पीछे हर लेखक के चार बड़े उद्देश्य होते हैं। ये चारों बातें हर लेखक में किसी न किसी अनुपात में अवश्य पाई जाती हैं-
- शुद्ध अहंकार- इसमें लेखक की यह इच्छा होती है कि उसके बारे में दूसरे लोग बात करें और वह ज्यादा चतुर समझा जाए। मृत्यु के बाद भी उसको याद किया जाए, आदि।
- सौंदर्यवर्धक उत्साह- इसमें लेखक चाहता है कि उसने दुनिया की जो सुंदरता देखी है, वह दूसरों को बताए, ताकि दूसरे भी उसका अनुभव कर सकें।
- ऐतिहासिक कारण- इसमें लेखक चाहता है कि सच्चे तथ्य लोगों के सामने रखे जाएं, ताकि आने वाली पीढ़ियां उनका इस्तेमाल कर सकें।
- राजनैतिक उद्देश्य- इसमें लेखक की इच्छा होती है कि वह दुनिया के लोगों के विचार को बदल दे और उन्हें अपने बताए रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करे।
ऑरवेल ने कहा कि उसके लेखन के कारणों में प्रथम तीन उद्देश्य ज्यादा रहे हैं और चौथा उद्देश्य कम।
लेखक के दो और उद्देश्य
आरवेल द्वारा बताए चार उद्देश्यों के अलावा मैं समझता हूं कि लेखन के दो और कारण भी होते हैं। एक तो यह कि कुछ लोग सिर्फ पैसा कमाने के लिए लिखते हैं और दूसरा यह कि शिक्षण जगत से जुड़े लोग अक्सर अपने कैरियर में आगे बढ़ने के लिए भी लिखते हैं।
अमृत लाल नागरजी (1916-1990) के लिए कहानी, उपन्यास लिखना उनकी रोजी-रोटी थी। उसकी कमाई से उनका घर चलता था। मुंशी प्रेमचंद का भी यही हाल था। उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो (1912-1955) ने एक जगह कहा है कि मैं जीने के लिए लिखता हूं और पीने के लिए लिखता हूं।
नोबेल पुरस्कार विजेता उपन्यासकर अर्नेस्ट हेमिंग्वे (1899 –1961) ने एक इंटरव्यू में कहा था कि यदि लेखन आपकी सबसे बड़ी लत हो जाए और सबसे बड़ा सुख हो जाए, तो सिर्फ मृत्यु ही आपको लिखने से रोक सकती है।
जार्ज ऑरवेल ने लेखन के जो उद्देश्य बताए वह प्रधानत: उनका पश्चिमी दर्शन पर आधारित विश्लेषण था। हमारे भारत में अनेकानेक संत ऐसे हुए जो ऑरवेल के विश्लेषण में फिट नहीं बैठते।
गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, नरसिंह मेहता, आदि संतों ने जो कुछ लिखा वह स्वांत: सुखाय था और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण था। बंगाली में ‘श्रीरामकृष्ण वचनामृत’ लिखी गई, तो लेखक ने अपना नाम सिर्फ ‘एम’ लिखा, जब कि उनका पूरा नाम महेन्द्रनाथ गुप्त (1854-1932) था। गीता प्रबोधनी के लेखक स्वामी राम सुखदास (1904-2005) भी ऐसे ही उच्च कोटि के विरले वीतरागी संन्यासी थे। इन सब के लेखन का उद्देश्य लोकहित के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।
(लेखक झारखण्ड केंद्रीय विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)