व्योमेश जुगरान।
‘बौजि सतपुल़ी का सैंणा…जैसे कालजयी गीत को अपने ओजस्‍वी स्‍वर से अमर कर देने वाले लोक गायक सत्येन्द्र परंडिया ने ज्‍योंही उत्‍तराखंड के पारंपरिक होली गीत (कैल बांधी चीर हो रघुनंदन राजा….) की तान छेड़ी, माहौल में अनेक रंग खुद ब खुद घुल गए। …और इन रंगों के समवेत स्वरूप ने सांस्‍कृतिक उत्‍तराखंड के लघु रूप को जैसे साकार कर दिया।
उत्‍तराखंडी रंगमंच और कविमंच के जाने-माने हस्‍ताक्षर  डॉ. सतीश कालेश्‍वरी और गढ़वाली फिल्‍मों के ख्यातनाम अभिनेता राकेश गौड़ की पहल पर दिल्ली एनसीआर में तीन साल पहले पारंपरिक उत्‍तराखंडी होली की जो रसधार बही, वह अब स्‍थायीभाव की ओर बढ़ती एक सुजला-सुफला सरिता का रूप ले चुकी है। इस सरिता में सांस्‍कृतिक गोताखोरी का आनंद हर साल नए आयामों के साथ बढ़ता ही जा रहा है।
इस बार होली मिलन का यह आयोजन शनिवार यानी 4  मार्च को गढ़वाल भवन, पंचकुइया रोड, नई दिल्ली में हुआ। कार्यक्रम में लोकगायक सत्येन्‍द्र परंडिया सहित अनेक लोकगायकों के पारंपरिक होली गीतों की स्‍वर लहरी ने अनूठा समां बांधा। हारमोनियम और ढोलक की थाप के साथ गाये जा रहे होली गीतों पर दर्शक खूब झूमें।
किसी जमाने में बहुचर्चित रंगकर्मी मोहन उप्रेती और एनएसडी के निदेशक रहे बृजेन्द्र लाल शाह ने पर्वतीय कला केंद्र के माध्यम से दिल्ली में पर्वतीय होली की ‘बैठी’ और ‘खड़ी’ होली की परंपरा को देश के सांस्कृतिक फलक पर उतारने का काम किया। आज यह परंपरा अपने विविध रूपों में राजधानी के बहुरंगी मिश्रित मिजाज़ का अभिन्न हिस्सा है। यदि आज दिल्ली बहु संस्कृतियों का एक खूबसूरत गुलदस्ता है तो इसमें गुलाब, लिली, केना और सूरजमुखी की गंध बिखेरते उत्तराखंड और इसके सदाबहार त्योहारों की प्रमुख हिस्सेदारी है।
फागुन की शुरुआत से ही पर्वतीय प्रवासियों में होली हिलोर लेने लगती है। बसंत पंचमी से लेकर पूर्णमासी तक  एक निश्चित कार्यक्रम के तहत विभिन्न कालोनियों में पर्वतीय लोग ‘बैठी’ और ‘खड़ी’ होली का सिलसिला बांधने लगते हैं।
इधर पर्वतीय स्त्री-पुरुष ही नहीं, दिल्ली में और अन्य राज्यों के प्रवासी समुदाय भी कर्णप्रिय गायन पर आधारित पर्वतीय होली के आयोजनों में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। उनकी  प्रतिभा उन्हें रंगमंच तक भी खींच ले जा रही है।
इस बार गढ़वाल भवन, बुराड़ी और इंदिरापुरम में हुए होली आयोजनों की धूम सोशल मीडिया पर खूब मची है। हालांकि इन आयोजनों में छिटपुट व्यावसायिकता भी घुसपैठ करती जा रही है, बावजूद इसके राजधानी की विभिन्न कालोनियां में पहाड़ और फागुन का अनूठा रिश्ता दिल्ली की फ़िजा को महकाता जा रहा है।