विवेक अग्निहोत्री ।
जब हिंदीभाषी प्रदेशों में हिंदी फिल्में बनेंगी तभी देश की वास्तविक संस्कृति और उसकी महानता फिल्मों में उजागर हो सकेगी। मुंबई में बनी फिल्में हिंदी में जरूर होती हैं लेकिन न वे हिंदी का प्रतिनिधित्व करती हैं न हिंदीभाषी लोगों की सभ्यता व संस्कृति का। फिल्म निर्देशक व लेखक विवेक अग्निहोत्री उत्तर प्रदेश में अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता वाली फिल्म सिटी बनाने की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की घोषणा का समर्थन क्यों कर रहे हैं- इसे उन्हीं से जानते हैं।
पिछले कुछ दिनों से एक सवाल उठ रहा है कि क्या हिंदी फिल्म इंडस्ट्री मुंबई की जगह हिंदी हार्टलैंड में होनी चाहिए। यह सवाल तब से उठने लगा जब से बॉलीवुड के क्राइम, ड्रग्स और तमाम तरह के विवादों में उलझने की खबरें आने लगीं। पिछले पांच-छह साल से मैं इस बात की लगातार पैरवी कर रहा हूं और सक्रिय रूप आवाज उठाता रहा हूं कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री मुंबई नहीं बल्कि जहां पर हिंदी स्पीकिंग कल्चर है, जहां हिंदी भाषा की सभ्यता है, वहां होनी चाहिए। फिर चाहे वह मध्य प्रदेश हो, राजस्थान हो, उत्तर प्रदेश हो, या फिर बिहार हो।
भाषा की समझ होना जरूरी क्यों
आखिर ऐसा क्यों है? अक्सर लोग इसको एक राजनीतिक बात समझते हैं? लोग कहते हैं कि इसका क्या अर्थ है? भाषा का इंडस्ट्री से क्या लेना देना है?
लेकिन मैं आपको बताऊंगा कि इसके तीन स्तर हैं। भाषा किसी समाज की सभ्यता और संस्कृति को व्यक्त करने का एक तरीका है। बिना भाषा के आप किसी भी जगह की स्थिति को, वहां की सोच को, वहां की सामाजिक व्यवस्था को अभिव्यक्त नहीं कर सकते। खास तौर पर जब आप वहां बोली जाने वाली स्थानीय भाषा समझते हों, उसके संस्कार समझते हों और बिटवीन द लाइन्स यानी छुपे हुए अर्थ समझते हों- तभी आप वहां की बात अच्छे से व्यक्त कर सकते हैं।
ये फिल्में अपनी जमीन से जुड़ी हैं… क्यों?
जरा देखिए, तेलुगु फिल्म इंडस्ट्री हैदराबाद में है, तमिल फिल्म इंडस्ट्री चेन्नई में है, मराठी फिल्म इंडस्ट्री मुंबई, पुणे और कोल्हापुर में है, गुजराती फिल्म इंडस्ट्री अहमदाबाद और वडोदरा में है, उड़िया ओडिशा में है, कश्मीरी इंडस्ट्री कश्मीर में है, पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री पंजाब में है, बांग्ला फिल्म इंडस्ट्री बंगाल में है। अगर हर प्रांत की जो रूह है, भाषा है, वह अगर वहीं पर है तो इसके पीछे जरूर कोई कारण होगा।
विदेश में देखें तो फ्रेंच फिल्म इंडस्ट्री फ्रांस में है और जर्मन फिल्म इंडस्ट्री जर्मनी में है। ऐसा नहीं है कि तेलुगु फिल्में पंजाब में नहीं बन सकतीं। बिल्कुल बन सकती हैं… लेकिन नहीं बनतीं। क्या कारण है कि गुजराती फिल्में मुंबई में बन सकती हैं लेकिन नहीं बनतीं, जबकि दोनों आसपास में है। क्या कारण है कि पंजाबी फिल्में हरियाणा में नहीं बनतीं जबकि एक ही बात है, कोई फर्क नहीं है दोनों में। लेकिन ऐसा नहीं है… और उसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण है।
अगर मैंने यूपी के, बिहार के- लोगों के बारे में, वहां के पात्रों के बारे में कहानी लिखी हैतो वह कैमरामैन को भी तो समझ में आना चाहिए, एडीटर को भी तो समझ में आना चाहिए, कास्ट्यूम डिजाइनर को भी तो यह समझ में आना चाहिए कि वहां बहू कैसे कपड़े पहनती है और सास कैसे पहनती है। अगर पूरी फिल्म यूनिट उस बात कोनहीं समझेगी तो बात कैसे बनेगी। जैसा कि मलयालम, बंगाली या मराठी फिल्म इंडस्ट्री में होता है- छोटी छोटी चीज को वो लोग समझते हैं।
फिल्म यानी कहानी, पात्र, परिवेश
फिल्में क्या हैं? कहानियां हैं। तो जो कहानियां जहां जन्म लेती हैं और वो लोग जो वहां जन्म लेते हैं, जब उन दोनों का समन्वय होता है तो उन कहानियों को, कहानियों के परिवेश को आप अच्छे से व्यक्त कर सकते हैं।
क्या कारण है कि- मलयालम फिल्में, तेलुगु फिल्में, मराठी फिल्में, बांग्ला फिल्में- ये आज भी अपनी जमीन से जुड़ी हुई हैं और वहां की कहानियों, साहित्य, संगीत, विविधता और समस्याओं को बहुत अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर रही हैं।
वहीं हिंदी फिल्मों को ले लीजिए। ये हिंदीभाषी प्रांतों की मानसिकता, समस्याओं, उनकी सामाजिक-राजनीतिक प्रकृति से पूरी तरह कटी फटी हैं। इनमें मां एक अलग तरह की है, दोस्त अलग तरह के हैं, उनका यूथ एक अलग तरह का है… और एक तरह से सपनों की किसी दुनिया में खोई सी हैं। खासतौर पर जो हिंदी फिल्म इंडस्ट्री है वह आज भारत को छोड़कर हर चीज का प्रतिनिधित्व करती है। खासकर एक एनआरआई कल्चर को आकृष्ट करने के लिए वही शादी ब्याह, ग्लैमर आदि चीजों को व्यक्त करती है।
अगर हिंदीभाषी प्रांत में हिंदी फिल्में बनेंगी तो भाषा के तौर पर उनका फायदा होगा।
पूरी यूनिट को भाषा, संस्कृति की समझ जरूरी
कोई भी फिल्म टैलेंट से बनती है। उसके गीतकार कौन हैं, उसके कैमरामैन कौन हैं? अक्सर यह माना जाता है कि अगर किसी हिंदी लिखने वाले ने कहानी लिख दी तो हिंदी फिल्म बन सकती है- यह गलत है। अगर मैंने यूपी के, बिहार के- लोगों के बारे में, वहां के पात्रों के बारे में कहानी लिखी है तो वह कैमरामैन को भी तो समझ में आना चाहिए, एडीटर को भी तो समझ में आना चाहिए, कास्ट्यूम डिजाइनर को भी तो यह समझ में आना चाहिए कि वहां बहू कैसे कपड़े पहनती है और सास कैसे पहनती है। अगर पूरी फिल्म यूनिट उस बात को नहीं समझेगी तो बात कैसे बनेगी। जैसा कि मलयालम, बंगाली या मराठी फिल्म इंडस्ट्री में होता है- छोटी छोटी चीज को वो लोग समझते हैं। बांग्ला फिल्मों में हर कोई रबीन्द्र संगीत को समझता है बहुत अच्छे से। लेकिन यहां तो हिंदी फिल्में बना रहे हैं अगर उनको यही नहीं पता कि कढ़ी क्या है, अरहर की दाल क्या है, अगर वो उस मिट्टी की खुशबू को ही नहीं जानते हैं तो वे उसे बनाने में न्याय नहीं कर पाएंगे। इसलिए अगर टैलेंट भी हिंदी क्षेत्र से ही मिलेगा तो बात बनेगी।
टैलेंट क्यों नहीं आ सकता मुंबई
अब टैलेंट क्यों नहीं आ सकता मुंबई? इसका कारण यह है कि आज मुंबई में रहने की कीमत बहुत ज्यादा है। और हिंदी प्रदेश का वह टैलेंट जो कहानी लिख सकता है, गीत लिख सकता है, फिल्म को डायरेक्ट कर सकता है- वह एक मामूली घर का लड़का है। वह कैसे पचास हजार रुपये महीना खर्च करके मुंबई रहने आ सकता है। तो मुंबई वही लोग आ सकते हैं जो इतना पैसा खर्च कर सकते हैं और जो बिल्कुल हर हद तक जिंदगी से लड़ने के लिए तैयार हैं।
मुंबई के संभ्रांतवादी लोग
एक और बात। जब उत्तर भारत से कोई लड़का या लड़की मुंबई काम करने आता है तो उसे नीची निगाह से देखा जाता है क्योंकि मुंबई के लोग इलीटिस्ट (संभ्रांतवादी) हैं। आज जिनके हाथ में पूरी इंडस्ट्री का कंट्रोल है उनमें बड़े बड़े स्टूडियो हैं जो हॉलीवुड के हैं। वहां काम करने वाले वो लोग हैं जो विदेश से पढ़कर आए हैं। और बाकी जो लोग फिल्में बनाते हैं जिनमें धर्मा हो गया, यशराज हो गया- ये सब बड़े इलीट और प्रिविलेज्ड लोग हैं। ये उत्तर भारत के लोगों को उस नजर से नहीं देखते हैं जिस नजर से यशराज प्रोडक्शन में यश चोपड़ा जी देखा करते थे।
भारत का आम आदमी दिखता है फिल्मों में?
आज हिंदी फिल्मों से भारत के आम आदमी को हटा दिया गया है। पहले हिंदी फिल्मों में विलेन होते थे- जमींदार, डकैत, उद्योगपति, मिल मालिक, राजनीतिक नेता… आज ये सब गायब हो गए हैं। मतलब हमने हिंदी क्षेत्रों की सामाजिक समस्याओं को फिल्मों से निकाल दिया। जब सामाजिक समस्याएं निकाल दीं तो आम आदमी भी फिल्मों से निकल गया। पहले हीरो किसी अध्यापक, किसान या किसी गरीब का बच्चा होता था जो कि सामाजिक लड़ाई लड़ता था। आज हमने उसको गायब करके एनआरआई बना दिया है। और अब हम हर फिल्म शूट करने विदेश जाते हैं।
इसके अलावा हमारी वेशभूषा, खानपान, हमारा सोच- जिसे अपनी संस्कृति और सभ्यता कहते हैं- वो आज देखने को ही नहीं मिलता हिंदी फिल्मों में। तो अगर हिंदी हार्टलैंड में हिंदी फिल्में बनेंगी तो हम फिल्मों में अपनी संस्कृति और सभ्यता को वापस ला पाएंगे जिससे वह मजबूत होगी।
भारत को आर्थिक शक्ति बनाने में फिल्मों का योगदान
अगर आज भारत को विश्व में आर्थिक शक्ति बनाना है तो इन हिंदी फिल्मों को ‘साफ्ट पावर’ बनना पड़ेगा (सॉफ्ट पॉवर शब्द का प्रयोग अंतरराष्ट्रीय संबंधों में किया जाता है जिसके तहत कोई राज्य परोक्ष रूप से सांस्कृतिक अथवा वैचारिक साधनों के माध्यम से किसी अन्य देश के व्यवहार अथवा हितों को प्रभावित करता है)। जब जमीन से जुड़े हिंदी हार्टलैंड के लोग हिंदी फिल्में बनाएंगे तो ये सच्ची कहानियां होंगी। ये भारत का सही चित्रण करेंगी। भारत की खूबसूरती, हमारा रंग, हमारा रस निखरकर फिल्मों में आएगा। हमारी महानताएं- हमारी परिवार व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, हमारा एक दूसरे से जुड़े रहने का जो अटूट आध्यात्मिक स्वभाव है- वो फिल्मों में परिलक्षित होगा। जैसा कि अमेरिकन फिल्मों में अमेरिका को सबसे महान दिखाया जाता है। हमें तो भारत की महानता के बारे में यह कहना भी नहीं पड़ेगा कि हम महान है। वह हमारे पात्रों के माध्यम से पूरी दुनिया को दिखेगा जो वाकई में महान हैं। इससे देश की आर्थिक समृद्धि भी बढ़ेगी।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उत्तर प्रदेश में अंतरराष्ट्रीय स्तर की फिल्मसिटी बनाने की घोषणा अत्यंत स्वागत योग्य है। जिस बैठक में उन्होंने फिल्मों से जुड़े लोगों के समक्ष उसकी पूरी रूपरेखा रखी, मेरा सौभाग्य कि मैं उस बैठक में मौजूद था। यह बहुत अच्छा आइडिया है। और इसके चलते हो सकता है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार में भी फिल्म इंडस्ट्री बने और इससे हिंदी फिल्मों को एक नई दिशा और राह मिले।