राजीव रंजन ।

बिहार के कैमूर जिले में स्थित मां मुंडेश्वरी का मंदिर भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है। माना तो यह भी जाता है कि यह दुनिया का सबसे प्राचीन जीवंत हिंदू मंदिर है। यानी यहां कई सदियों से पूजा-अर्चना बिना रुके लगातार होती आ रही है। यह मंदिर शक्ति और शिव को समर्पित है। यह मंदिर बिहार के कैमूर जिले के भगवानपुर अंचल में कैमूर पर्वतश्रेणी (विंध्य पर्वत श्रेणी का पूर्वी भाग) की पवरा पहाड़ी पर 608 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से प्राप्त शिलालेख के अनुसार माना जाता है कि उदय सेन नामक क्षत्रप के शासन काल में इसका निर्माण हुआ। मंदिर की प्राचीनता का अंदाजा यहां मिले महाराजा दुत्‍तगामनी की मुद्रा से भी लगता है। बौद्ध साहित्य के अनुसार दुत्‍तगामनी अनुराधापुर वंश का था, जो ईसा पूर्व 101-77 में श्रीलंका का राजा रहा था।


 

माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण दूसरी शताब्दी (108 ईसवी) में हुआ था। हालांकि इसके निर्माण को लेकर कई मत हैं, जिनके अनुसार इसके निर्माण का समय शक काल से लेकर गुप्त काल के पूर्व तक बताया जाता है। वहीं मंदिर में लगे भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (एएसआई) के एक सूचनापट्ट से यह पता चलता है कि यह मंदिर 635 ईसवी से पूर्व अस्तित्व में था। एक बात तो तय है कि यह मंदिर करीब डेढ़ हजार साल पुराना है। मंदिर परिसर में विद्यमान शिलालेखों से इसकी ऐतिहासिकता प्रमाणित होती है। पुरातत्वविदों के अनुसार यह शिलालेख 349 ई. से 636 ई. के बीच का है। यह मंदिर अष्टाकोणीय है। मंदिर का अष्टाकार गर्भगृह इसके निर्माण से अब तक कायम है। मां मुंडेश्वरी मंदिर की नक़्क़ाशी नक्काशी और मूर्तियां उत्तर गुप्तकालीन बताई जाती हैं।

1838 से 1904 ई. के बीच कई ब्रिटिश विद्वान् और पर्यटक यहाँ आए थे। कहा जाता है कि प्रसिद्ध इतिहासकार फ्रांसिस बुकानन भी यहां आये थे। इस मंदिर का उल्लेख कनिंघम ने भी अपनी पुस्तक में किया है। इस मंदिर का पता तब चला, जब कुछ गड़रिये पहाड़ी के ऊपर गए और मंदिर के स्वरूप को देखा। उस समय इसकी इतनी ख्याति नहीं थी, जितनी अब है। प्रारम्भ में पहाड़ी के नीचे निवास करने वाले लोग ही इस मंदिर में दीया जलाते और पूजा-अर्चना करते थे। यहां से प्राप्त शिलालेख में वर्णित तथ्यों के आधार पर कुछ लोगों ने यह अनुमान लगाया कि यह आरंभ में वैष्णव मंदिर रहा होगा, जो बाद में शैव मंदिर हो गया तथा उसके बाद शाक्त विचारधारा के प्रभाव से शक्तिपीठ में बदल गया।

इस मंदिर में स्थापित शिवलिंग अत्यंत दुर्लभ है। दुर्गा का वैष्णवी रूप ही मां मुंडेश्वरी के रूप में यहां प्रतिष्ठापित है। मुंडेश्वरी की प्रतिमा वाराही देवी की प्रतिमा है, क्योंकि इनका वाहन महिष (भैंस) है। यह प्रतिमा महिषासुर मर्दिनी की प्रचलित प्रतिमा से कुछ अलग है। यहां वह महिषासुर का वध करती हुई नहीं दिखाई गई हैं, बल्कि महिष (भैंसा) पर बैठी हुई हैं। वर्ष में दो बार माघ और चैत्र में यहां यज्ञ होता है।

कहते हैं कि चंड और मुंड दैत्यों के नाश के लिए जब देवी उद्धत हुई थीं तो चंड के विनाश के बाद मुंड युद्ध करते हुए इसी पहाड़ी में छिप गया था और यहीं पर माता ने उसका वध किया था। इसीलिए यह मुंडेश्वरी माता के नाम से स्थानीय लोगों में जानी जाती हैं।

पुरातत्वविदों का मानना है कि इस इलाके में कभी भयानक भूकंप आया होगा, जिसके कारण पहाड़ी के मलबे के अंदर गणेश और शिव सहित अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां दब गईं। खुदाई के दौरान ये मिलती रही हैं। यहां खुदाई के क्रम में मंदिरों के समूह भी मिले हैं। 1968 में पुरातत्व विभाग ने यहां की 97 दुर्लभ मूर्तियों को सुरक्षा की दृष्टि से ‘पटना संग्रहालय’ में रखवा दिया। तीन मूर्तियां ‘कोलकाता संग्रहालय’ में हैं।

पहाड़ी के शिखर पर स्थित मुंडेश्वरी मंदिर तक पहुंचने के लिए 1978-1979 में सीढ़ी का निर्माण किया गया। वर्तमान में इसका तेजी से विकास हो रहा है। मंदिर को 2007 में बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद ने अधिगृहित कर लिया था। यहां पर अतिथिगृह भी बना है। मंदिर का ध्वस्त गुंबद बनाने की भी कोशिशें भारतीय पुरातत्व विभाग की ओर से हो रही हैं। पुरातत्व विभाग के पास उस काल के गुंबद का नक्शा उपलब्ध है।

यहां भगवान शिव का एक चारमुखी शिवलिंग है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह सुबह, दोपहर और शाम को अलग-अलग रंग का दिखाई देता है। मां मुंडेश्वरी के मंदिर में बकरे की बलि नहीं दी जाती। यहां बकरे को देवी के सामने लाया जाता है, जिस पर पुरोहित मंत्र वाले चावल छिड़कता है, जिससे वह बेहोश हो जाता है। फिर बकरे को बाहर छोड़ दिया जाता है।

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‘माता वैष्णो देवी’ की तर्ज पर इस मंदिर के विकास की योजनाएं बिहार राज्य सरकार ने बनाई हैं। यह मंदिर ‘प्राचीन स्मारक तथा पुरातात्विक स्थल एवं अवशेष अधिनियम’, 1958 के अधीन ‘भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण’ द्वारा संरक्षित है। मंदिर के अंदर पहुंचने के लिए पहाड़ को काट कर सीढ़ियां और रेलिंग युक्त सड़क बनाई गई है। जो लोग सीढियां नहीं चढ़ना चाहते, वे सड़क मार्ग से कार, जीप या बाइक से पहाड़ के ऊपर मंदिर तक पहुंच सकते हैं। मुंडेश्वरी धाम में वर्ष भर श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है, लेकिन नवरात्र के मौके पर यहां श्रद्धालुओं की संख्या काफी बढ़ जाती है। नवरात्र के अवसर पर यहां मेला भी लगता है। यहां शिवरात्रि और रामनवमी पर भी काफी चहल-पहल रहती है।

मुंडेश्वरी धाम का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन मुगलसराय-गया रेलखंड (ग्रैंड कोड लाइन) पर स्थित भभुआ रोड (मोहनिया) है, जो यहां से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां कई सुपरफास्ट ट्रेनें भी रुकती हैं। मोहनिया से सड़क मार्ग से बस, जीप या निजी वाहन से मुंडेश्वरी धाम पहुंच सकते हैं। वाराणसी, पटना और गया से भी सड़क मार्ग से मुंडेश्वरी धाम पहुंच सकते हैं। सबसे नजदीकी हवाई अड्डा वाराणसी है, जो करीब 90 किलोमीटर की दूरी पर है।

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