देवर्षि नारद जयंती (25 मई) पर विशेष।

रमेश शर्मा।
संवाद सूत्र पत्रकारिता में हों अथवा समाज के प्रबुद्ध जनों में, उनका ध्येय व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र निर्माण तथा  साँस्कृतिक मूल्यों की रक्षा होना चाहिए जिससे मानवीय मूल्यों की रक्षा और पूरे विश्व का कल्याण हो। देवर्षि नारद का पूरा जीवन और उनकी संवाद शैली इसी लक्ष्य के लिए समर्पित रही।

जिस प्रकार ज्ञान और अज्ञान, अंधकार और प्रकाश साथ चलते हैं उसी प्रकार दैवीय और आसुरी प्रवृत्तियाँ भी सदैव साथ चलतीं हैं। दैवीय प्रवृत्ति सकारात्मक होती है, प्राणी और प्रकृति दोनों को उनके मौलिक स्वरूप के अनुरूप जीवन विकास में सहायक होती है। जबकि आसुरी प्रवृत्ति हिंसक होती है, बलपूर्वक सत्ता पर अधिकार करती है, विध्वंसक होती है और सबको अपने रंग में रंगना चाहती है। जैसा हिरण्यकश्यपु ने इन्दारासन पर अधिकार करने और नारायण की पूजा उपासना बंद कराने का प्रयास किया या रावण ने कुबेर की लंका पर बलपूर्वक अधिकार करके सबको अपने रंग में रंगने का प्रयास किया। इन दोनों घटनाओं में लाखों वर्षों का अंतर है किंतु नारदजी दोनों स्थानों पर मिलते हैं। इन दोनों ही नहीं अपितु नारदजी प्रत्येक युग में नकारात्मक शक्तियों के विरुद्ध जन जागरण करने और सकारात्मक शक्तियों को चैतन्य करने के लिये सामने आते हैं। उनकी संवाद शीलता और साहित्य रचना दोनों इसी धारा पर है। वे सनातन संस्कृति के विकास विस्तार के लिये सदैव जाने गये। उनकी उपस्थिति हर युग में रही। भारत का कोई ग्रंथ उनके उल्लेख के बिना पूरा नहीं होता है। कुछ ग्रंथों के प्रेरणाकार और कुछ के संपादक वही हैं।

समाज, धर्म, संस्कृति, राष्ट्र रक्षा और मानवीय जीवन मूल्यों की स्थापना के लिये समर्पित नारदजी का प्राकट्य दिवस ज्येष्ठ माह कृष्णपक्ष की द्वितीया है जो इस वर्ष 25 मई को पड़ रही है। उनकी गणना ब्रह्मा जी के उन सात मानस पुत्रों में होती है जो सृष्टि निर्माण के साथ सबसे पहले संसार में आये। इन सात दिव्य विभूतियों में सर्वाधिक सक्रिय और व्यापक चिरंजीवी नारदजी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। उनके लिये कहीं कोई बंधन न था। देव, दानव और मनुष्य सहित प्रकृति के सभी प्राणियों से उनकी भाषा में संवाद करते थे। वे सृष्टि के प्रत्येक भाग में विचरण करते थे और किस कौने में कौन नकारात्मक आचरण और अंहकार में डूबकर दूसरों के अधिकारों का हरण कर अपने रंग में रंगने का प्रयास कर रहा है, इसकी जानकारी रखते, पहले उसे समझाने का प्रयास करते और यदि बात न बनती तो त्रिदेवों को सूचना देते, सकारात्मक शक्तियों को जाग्रत करते जिससे दुष्टों के अंत का मार्ग प्रशस्त होता। देव और दैत्य प्रवृत्ति में  यह संघर्ष हर युग में रहा और इस संघर्ष में समाधान कारक मार्ग नारद जी ने ही निकाला।

संसार को श्रेष्ठ बनाने के लिये नारद जी ने सकारात्मक संदेश का सदैव आदान प्रदान किया। उन्होंने केवल नकारात्मक भूमिका निभाने वालों को ही बिना किसी भय के समझाने का प्रयत्न नहीं किया अपितु जन कल्याण के लिये सकारात्मक शक्तियों को भी उचित मार्गदर्शन किया। देवराज इन्द्र, अवतारी परशुराम, दशरथ नंदन राम, यशोदानंदन कृष्ण, ही नहीं युधिष्ठर से उनके संवाद इसका प्रमाण हैं। जब आसुरी शक्तियों के आतंक से सकारात्मक शक्तियाँ क्षीण हो जाय तब प्रह्लाद जैसे व्यक्तित्व का निर्माण करके सत्य और धर्म की स्थापना का मार्ग नारदजी ने ही निकाला। एक अच्छे राज्य संचालन और समाज निर्माण का संदेश महाराज इक्ष्वाकु और नारद संवाद में मिलता है। तो अपने पूर्वजों एवं परिजनों के कल्याण के लिये भागीरथ को तप करने की सलाह भी नारद जी ने दी थी। कोई शासक या समाज प्रमुख मार्ग से भटका तो उसे सतर्क करने के लिये सबसे पहले नारद जी ही पहुँचते थे। उनके मार्गदर्शन से ही राजकुमार ध्रुव आसमान में सितारे के रूप में चमक रहे हैं, नारदजी के मार्गदर्शन से ही बाल्मीकि जी के जीवन की दिशा बदली और महर्षि बने।

Narad Janmotsav Date Time history know unknown facts about narad muni -  Astrology in Hindi - Narad Janmotsav : ब्रह्माण्ड के पहले पत्रकार थे नारद  जी, जानें उनके जीवन से जुड़ी खास

नारद जी के सुझाव पर ही बाल्मीकि जी ने रामायण की रचना की। यह ग्रंथ आज भी एक आदर्श व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र निर्माण का आदर्श सूत्र है। सृष्टि का सफल संचालन के लिये महर्षि भृगु की बेटी श्री लक्ष्मी का विवाह श्रीहरि विष्णु से और हिमाचल राज की पुत्री सती का विवाह देवाधिदेव महादेव से कराने वाले भी नारद जी हैं।

उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे सर्व सम्मानीय थे। जो लोग नास्तिक थे या स्वयं को ही भगवान् घोषित करते थे वे भी नारद को आदर और आसन देते थे। यदि राजाओं में परस्पर युद्ध हो, मन मुटाव हो तो नारदजी दोनों पक्षों से मिलकर उन्हें समझाने का प्रयत्न करते थे। उनकी जिव्हा पर सदैव नारायण का नाम होता था। कितने शासक ऐसे हुये जिन्होंने नारायण के अस्तित्व को ही चुनौती देते थे फिर भी यदि नारायण नारारण कहते हुये नारदजी वहां पहुँचे तो उन्होने नारद जी का आदर आसन अवश्य दिया है। आधुनिक पत्रकारिता के लिये नारद जी का जीवन, संवाद शैली और साहित्य रचना तीनों एक आदर्श हैं।

पुराणों में नारद का व्यक्तित्व और रचनाएँ

नारदजी का व्यक्तित्व बहुत विराट और बहुआयामी है। व्यक्ति, परिवार, समाज और आदर्श संस्कृति निर्माण में उनका अद्भुत योगदान है। वेद उपनिषद और पुराणों की रचनाओं में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। उन्हें  “देव-ऋषि” माना जाता है। श्रीमद्भगवत गीता के दसवें अध्याय में भगवान कृष्ण ने अपनी विभूतियों में से एक  नारदजी को भी माना है। वेदों में ऋचाओं के वर्गीकरण और उन्हें विभिन्न मंडल एवं सूक्त में निर्धारित करने वाले नारद जी हैं। वे वेद और उपनिषदों के मर्मज्ञ तथा पुराण रचना के मार्गदर्शक हैं। उनके द्वारा रचित ग्रंथ सभी विधाओं पर हैं। जिनमें में न्याय और धर्म के तत्त्‍‌वज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष विद्वान, संगीत की विधा का विवरण और मार्गदर्शन है। उन्होनें बृहस्पति जैसे महाविद्वानों की शंकाओं का भी समाधान किया है। वे धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष चतुर्पुरुषार्थ के ज्ञाता, सांख्य एवं योग के सम्पूर्ण रहस्य को संसार से अवगत कराने वाले हैं। क‌र्त्तव्य और अक‌र्त्तव्य के बीच भेद का जो वर्णन नारद जी ने किया वह कालजयी है और आज भी उपयोगी। अठारह पुराणों में नारद जी द्वारा रचित एक पुराण “नारद पुराण” भी है जिसमें बाइस हजार श्लोक हैं। यद्यपि इस पुराण में कुल पच्चीस हजार श्लोक का वर्णन आता है पर तीन हजार श्लोक उपलब्ध नहीं हैं। एक अन्य ग्रंथ  नारद संहिता है। सांख्य, योग, ज्योतिष और नीति की जो विवेचना नारदजी ने कि आगे उसी का विस्तार अन्य विद्वानों ने किया।

लेकिन भारत में एक षड्यंत्र चला। भारतीय ऋषियों और मनीषियों के बारे में कूटरचित प्रचार का जिससे उनके व्यक्तित्व की गरिमा कम हो। यह क्रम मध्यकाल से आरंभ हुआ और अंग्रेजीकाल में सातवें आसमान पर रहा। इसी षड्यंत्र के अंतर्गत विभिन्न धार्मिक चलचित्रों और धारावाहिकों में नारद जी का चरित्र-चित्रण एक विदूषक अथवा यहाँ की वहाँ खबरें देने वाले नकारात्मक प्रस्तुति की जाती है। देवर्षि की महानता के विपरीत उनके व्यक्तित्व एकदम बौना बताया जाता है। नारद जी के पात्र को जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे आम आदमी में उनकी छवि लडा़ई-झगडा़ करवाने वाले व्यक्ति अथवा विदूषक की बन गई है। यह उनके प्रकाण्ड पांडित्य एवं विराट व्यक्तित्व के प्रति अन्याय है। नारद जी का उपहास उडाने वाले श्रीहरि के इन अंशावतार की अवमानना के दोषी है। नारद जी प्रत्येक यूग के साक्षी हैं और संस्कृति एवं मानवीय मूल्य स्थापित करने वालों के अनन्य सहयोगी रहे हैं। वे भगवान के पार्षद होने के साथ देवताओं के प्रवक्ता भी हैं। नारद जी वस्तुत: सही मायनों में देवर्षि हैं।

नारदजी का जीवन, उनकी कार्यशैली आज के मीडिया कर्मियों, साहित्य रचनाकारों और नीति निर्माताओं के लिए एक आदर्श है। आज कुछ शक्तियाँ भारत और विश्व जिस दिशा में मोड़ने का प्रयास कर रहीं हैं इसमें निष्पक्ष, निर्भीक और सकारात्मक संवाद शैली बहुत आवश्यक है। ताकि प्रकृति का संरक्षण हो और व्यक्ति, परिवार और समाज को ऐसी दिशा मिले जिससे भारत पुनः उस स्थान पर प्रतिष्ठित हो सके जिस पल पहले कभी रहा है। शब्द सृजन और संवाद शीलता की यह धारा न केवल नारद जी की आराधना है अपितु आज भारत के सामने उपस्थित हो रही चुनौतियों का सामना करने के लिये भी आवश्यक है।