गर्म लू की लपेट में कांग्रेस।
प्रमोद जोशी।
पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद देश की निगाहें अब गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों पर हैं। पर राजनीति की निगाहें इससे आगे हैं। यानी कि 2024 और 2029 के लोकसभा चुनावों और भविष्य के गठबंधनों के बारे में सोचने लगी हैं। इस सिलसिले में रणनीतिकार प्रशांत किशोर और कांग्रेस के संवाद का एक दौर हाल में हुआ है और अब 13-15 मई को उदयपुर में होने वाले चिंतन शिविर का इंतजार है। दूसरी तरफ प्रशांत किशोर की ही सलाह से तैयार हो रहे एक ऐसे विरोधी गठबंधन की बुनियाद भी पड़ रही है, जिसके केंद्र में कांग्रेस नहीं है। इसकी शुरुआत वे हैदराबाद में टीआरएस के नेता के चंद्रशेखर राव से समझौता करके कर चुके हैं। इस बीच भारतीय जनता पार्टी के ‘उत्तर-मोदी’ स्वरूप को लेकर भी पर्यवेक्षकों के बीच विमर्श शुरू है, पर यह इस आलेख का विषय नहीं है।
पीके का प्रेज़ेंटेशन
प्रशांत किशोर के ‘प्रेज़ेंटेशन’ के पहले अटकलें थीं कि शायद वे पार्टी में शामिल होंगे, पर ऐसा हुआ नहीं। मीडिया में इस आशय की अटकलें जरूर हैं कि उन्होंने पार्टी को सलाह क्या दी थी। इस बीच बीबीसी हिंदी के साथ एक विशेष बातचीत में प्रशांत किशोर ने कहा कि मजबूत कांग्रेस देश के हित में है, पर कांग्रेस की कमान किसके हाथ में हो, इस पर उनकी राय ‘लोकप्रिय धारणा’ से अलग है। राहुल गांधी या उनकी बहन प्रियंका गांधी उनकी पहली पसंद नहीं हैं। उनका सुझाव सोनिया गांधी को ही अध्यक्ष बनाए रखने का है। दूसरी तरफ खबरें यह भी हैं कि प्रशांत किशोर को शामिल करने में सोनिया गांधी की ही दिलचस्पी थी, राहुल और प्रियंका की नहीं।
दूसरी ताकत?
कई सवाल हैं। प्रशांत कुमार के पास क्या कोई जादू की पुड़िया है? क्या राजनीतिक दलों ने अपने तरीके से सोचना और काम करना बंद कर दिया है और उन्हें सेल्समैन की जरूरत पड़ रही है? ऐसा है, तो बीजेपी कैसे अपने संगठन के सहारे जीतती जा रही है और कांग्रेस पिटती जा रही है? प्रशांत किशोर का यह भी कहना है कि बीजेपी एक मजबूत राजनीतिक शक्ति के रूप में इस देश में रहेगी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे 2024 या 29 जीत जाएंगे। साथ ही वे यह भी जोड़ते हैं कि कोई थर्ड फ्रंट बीजेपी को चुनौती नहीं दे सकता। जिसे भी चुनाव जीतना है, उसे सेकंड फ्रंट बनना होगा। जो भी फ्रंट बीजेपी को हराने की मंशा रख रहा है, उसे ‘सेकंड फ्रंट’ होना होगा। कांग्रेस देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन बीजेपी को चुनौती देने वाला ‘सेकंड फ्रंट’ नहीं है।
चिंतन-शिविर
पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद, भारतीय जनता पार्टी ने अगले चुनावों की तैयारियाँ शुरू कर दी हैं। आम आदमी पार्टी ने पंजाब की जीत के सहारे अपने विस्तार की योजनाएं बनानी शुरू की हैं। और कांग्रेस सिर पकड़ कर बैठी है। मार्च में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के पहले अफवाह थी कि गांधी परिवार के सदस्य अपने पद छोड़ने जा रहे हैं। यह खबर ‘विश्वसनीय-चैनल’ एनडीटीवी ने दी थी। ऐसा हुआ नहीं। पर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने कहना शुरू कर दिया कि यह हार गांधी परिवार के कारण नहीं हुई है। उसके बाद राष्ट्रीय चिंतन शिविर की घोषणा हुई। सूत्रों के अनुसार, चिंतन शिविर के दौरान अशोक गहलोत राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने का प्रस्ताव रख सकते हैं। यह भी कि शिविर में 6 प्रस्ताव पास किए जाएंगे, जिनके लिए पार्टी अध्यक्ष ने वरिष्ठ नेताओं की छह कमेटी बनाई हैं। इनमें जी-23 से जुड़े कई नाम हैं। इनका काम शिविर से पहले सभी विषयों पर प्रस्ताव तैयार करना है। इन प्रस्तावों को चिंतन शिविर के दौरान चर्चा के लिए पेश किया जाएगा।
चिंतन माने क्या?
पता नहीं चिंतन-शिविर से कांग्रेस का तात्पर्य क्या है, पर हाल के वर्षों का अनुभव है कि पार्टी ने अपनी संगठनात्मक-क्षमता में सुधार के बजाय इस बात पर ज्यादा ध्यान दिया है कि परिवार के प्रति वफादार कौन है और कौन नहीं है। बात यह भी सच है कि पार्टी को यदि अपनी किसी रीति-नीति में दोष दिखाई पड़ेगा, तो वह सार्वजनिक रूप से उसकी घोषणा नहीं करेगी। ऐसी बातें व्यक्तिगत-स्तर पर ही रहती हैं। पार्टी का पिछला चिंतन-शिविर जनवरी 2013 में जयपुर में लगा था। उसमें राहुल गांधी को जिम्मेदारी देने पर ही विचार होता रहा। पार्टी ने राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बना दिया था। उनकी सदारत में पार्टी पुराने संगठन, पुराने नारों और पुराने तौर-तरीकों को नए अंदाज़ में आजमाने की कोशिश करती नज़र आ रही थी। उसके पहले 4 नवम्बर, 2012 को दिल्ली के रामलीला मैदान में अपनी संगठनात्मक शक्ति का प्रदर्शन करने और 9 नवंबर को सूरजकुंड में पार्टी की संवाद बैठक के बाद सोनिया गांधी ने 2014 के चुनाव के लिए समन्वय समिति बनाने का संकेत किया और फिर राहुल गांधी को समन्वय समिति का प्रमुख बनाकर एक औपचारिकता को पूरा किया। जयपुर शिविर में ऐसा नहीं लगा कि पार्टी आसन्न संकट देख पा रही है। उस समय तक भारतीय जनता पार्टी केंद्रीय सत्ता पाने के प्रयास में दिखाई नहीं पड़ रही थी और न उसके भीतर आत्मविश्वास नजर आता था। नरेन्द्र मोदी अपना दावा जरूर पेश कर रहे थे, पर पार्टी का शीर्ष नेतृत्व आनाकानी कर रहा था।
संकट की देन
जयपुर का शिविर पाँच दशकों में कांग्रेस का चौथा चिंतन शिविर था। इसके पहले के सभी शिविर किसी न किसी संकट के कारण आयोजित हुए थे। 1974 में नरोरा का शिविर जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर खोजने के लिए था। 1998 का पचमढ़ी शिविर 1996 में हुई पराजय के बाद बदलते वक्त की राजनीति को समझने की कोशिश थी। 2003 के शिमला शिविर का फौरी लाभ 2004 की जीत के रूप में देखा गया। हालांकि लगता नहीं कि उस शिविर से कांग्रेस ने किसी सुविचारित रणनीति को तैयार किया था। कांग्रेस ने पचमढ़ी में तय किया था कि उसे गठबंधन के बजाय अकेले चलने की राजनीति को अपनाना चाहिए। शिमला में कांग्रेस को गठबंधन का महत्व समझ में आया। उसे 2004 के चुनाव में सफलता मिली, पर वह सफलता बीजेपी की गलत रणनीति और नेतृत्व के भीतरी टकराव की देन थी।
पार्टी का रवैया
राजनीति शास्त्री सुहास पालशीकर ने लिखा है कि प्रशांत किशोर सलाहकार की कुर्सी छोड़कर राजनीति में सीधे शामिल होने की कोशिश करके एक नए किस्म की राजनीति का आगाज कर रहे हैं। हमें कांग्रेस के पराभव और इस ‘नई राजनीति’ दोनों के बारे में ठंडे दिमाग से विचार करना चाहिए। साथ ही देखना चाहिए कि इस मामले में कांग्रेस की प्रतिक्रिया किस प्रकार की है। जैसा कि उसका चलन है, उसने पीके की पेशकश पर ब्यूरोक्रेटिक व्यवहार किया है। साथ ही उसने इस मामले में विलंब करने की कोशिश भी की। और यह जताने का प्रयास किया कि हमें इस बदहाली से बाहर निकलने के लिए किसी सलाह की जरूरत नहीं है। उसे गुरूर है कि वह देश की सबसे पुरानी पार्टी है साथ ही उसका आत्म-घोषित विश्वास है कि वह बीजेपी का एकमात्र राष्ट्रीय विकल्प है। पीके के प्रस्ताव पर पार्टी ने अपने वरिष्ठ नेताओं की जो समिति बनाई थी, उसकी राय है कि अपनी संरचना को तोड़ने की कोई जरूरत नहीं है। ये सब बातें बता रही हैं कि पार्टी खुले मन से विचार करने की स्थिति में नहीं है।
परिवार जरूरी
पार्टी और परिवार के वफादार एके एंटनी ने दो बातें कही हैं। एक, गांधी परिवार के बगैर कांग्रेस का अस्तित्व सम्भव नहीं है। दूसरे यह कि मैं अब राष्ट्रीय राजनीति से हटकर वापस केरल जाना चाहता हूँ। अब तथ्यों पर गौर करें। कांग्रेस पार्टी ने हाल के वर्षों में 1996 और 1998 के चुनाव परिवार के नेतृत्व में नहीं लड़े। एक का नेतृत्व पीवी नरसिंह राव ने किया और दूसरे का सीताराम केसरी ने। दोनों के परिणाम सोनिया गांधी के नेतृत्व में 2004 में प्राप्त उस सफलता के बराबर ही थे, जिसे जबर्दस्त माना गया था। राव और केसरी की सफलताएं 2014 और 2019 से कहीं बेहतर थीं। इतना ही नहीं राव के समय में कार्यसमिति के चुनाव हुए, जिन्हें बाद में रद्द करके फिर से मनोनयन की व्यवस्था शुरू करनी पड़ी। पीके सही हैं या गलत, पर यह साफ है कि वे खुद को शीर्ष नेताओं के बराबर रखकर बात कर रहे थे। इस बात से ‘वफादारों’ और क्षेत्रीय क्षत्रपों मन में असुरक्षा पैदा हुई ही होगी। पार्टी के तौर-तरीके ठीक होते तो पीके से सलाह लेने की नौबत ही क्यों आती। आपने पीके को खड़े घाट खारिज कर तो दिया, पर आपकी दृष्टि क्या है, यह तो बताइए।
बड़ी सर्जरी
पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का सबसे नीचे के कार्यकर्ता के साथ किस प्रकार का संवाद है, इसका पता पिछले दो दशक में कई बार देखने को मिला है। अरुणाचल, असम और पिछले साल नवंबर में मेघालय में पार्टी से जैसी एकमुश्त भगदड़ मची, उससे क्या नतीजा निकाला जाए? पार्टी की हरेक हार के बाद दिग्विजय सिंह, शशि थरूर और पी चिदंबरम जैसे नेता ‘बड़ी सर्जरी’ और ‘आत्मचिंतन’ की जरूरत बताते हैं और फिर समवेत स्वरों में जैकारा लगाते हुए कहते हैं ‘गांधी परिवार के बगैर कांग्रेस नहीं बचेगी।’ पिछले बीस-बाईस साल से ऐसा कहते-कहते उन्होंने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि पारिवारिक नेतृत्व की अनुपस्थिति की कल्पना ही ‘हौवा’ बन गई है। जब जी-23 के पत्र पर कार्यसमिति में विचार हुआ, तब पहली प्रतिक्रिया थी, हमें जरूरत ही नहीं है इनकी सलाह की। जैसाकि हमेशा से होता रहा है, कांग्रेस के भीतर से जैसे ही अंतर्मंथन की आवाजें सुनाई पड़ती हैं, तब उन्हें गांधी-नेहरू परिवार के खिलाफ विद्रोह की संज्ञा दे देती जाती है। पार्टी के भीतर से कोई नेता खड़ा होकर ये बातें करता है। मसलन जी-23 के सवालों पर अशोक गहलोत और सलमान खुर्शीद ने कहा कि इन बातों को पार्टी फोरमों के भीतर उठाना चाहिए। जब यह सवाल राजदीप सरदेसाई ने कपिल सिब्बल से किया, तो उन्होंने कहा किस फोरम में उठाएं? 24 अगस्त, 2020 को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सुधार की माँग करने वालों की बात सुनने के बजाय, उल्टे उनपर ही आरोप लगे। राहुल गांधी ने इस पत्र के समय पर सवाल उठाया और पत्र लिखने वालों की मंशा पर खुलकर प्रहार किया। इसका मतलब है कि हाईकमान से पूछे बगैर अंतर्मंथन की माँग करने वाले दगाबाज हैं। पत्र लेखकों की सामान्य सी माँग थी। सत्ता का विकेंद्रीकरण हो। हर स्तर पर चुनाव हों। राज्यों की शाखाओं को अपने फैसले करने का मौका दिया जाए। ये इतनी छोटी बातें थीं, तो अब तक पूरी हो चुकी होतीं। पर क्या इतने भर से कांग्रेस बदल जाएगी? नहीं बदलेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)