बालेन्दु शर्मा दाधीच।
बहुत से लोग उनकी आलोचना कर रहे हैं। सबके अपने स्वतंत्र विचार हैं, अनुभव हैं, नजरिया है- मेरा भी। भाई, मुझे तो इन्फोसिस के संस्थापक श्री एनआरनारायणमूर्ति की यह बात अच्छी लगी कि देश के विकास में योगदान देने के लिए हमें हर सप्ताह 70 घंटे काम करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
श्री नारायणमूर्ति के वक्तव्य का पूरा संदर्भ समझना ज़रूरी है। इन्फोसिस के पूर्व मुख्य वित्त अधिकारी (सीएफओ) मोहनदासपै के साथ एक पॉडकास्ट में श्री नारायणमूर्ति ने कहा कि भारत में कामकाज की उत्पादकता का स्तर विश्व में सबसे कम है। अगर हमें चीन जैसे देशों का मुकाबला करना है तो हमारे युवकों को अतिरिक्त घंटे कार्य करने के लिए तैयार रहना चाहिए- ठीक वैसे ही, जैसे कभी जापान और जर्मनी ने किया था।
शायद ऐसे हर व्यक्ति को यह बात अच्छी लगेगी जो दूसरे देशों की कामयाबी से प्रेरणा लेने के लिए तैयार है। जो खुद कुछ कर दिखाना चाहता है, देश की अर्थव्यवस्था को बेहतर होते हुए देखना चाहता है, देश के हर एक नागरिक का जीवन-स्तर निरंतर ऊपर उठते हुए देखना चाहता है और भारत की कल्पना एक विकसित देश के रूप में करता है। बिना मेहनत के कभी पहाड़ टूटे हैं क्या? बिना मेहनत के किसी देश-समाज-समुदाय-परिवार-व्यक्ति की तसवीर बदली है क्या? पहले यूरोप, फिर अमेरिका, फिर जापान, फिर चीन, और अब उभरता हुआ भारत इस बात की निशानदेही करते हैं कि आरामतलबी की पारंपरिक सोच से ऊपर उठकर, खुद को तकलीफ देने के लिए तैयार होकर, नाकामियों और संघर्षों का तनाव झेलकर ही आप कुछ बनते और बढ़ते हैं। सफलता उपहार में नहीं मिलती, अर्जित करनी पड़ती है। सपने, देखने से सच नहीं होते, मेहनत से साकार होते हैं।
वैसे सत्तर घंटे का मतलब एकदम सटीक सत्तर घंटे नहीं है। नारायणमूर्ति का मतलब हर नागरिक के स्तर पर कड़ी मेहनत की आवश्यकता है जिसके लिए आज का समय अनुकूल है, क्योंकि भारत के आगे बढ़ने के लिए समय अनुकूल है। यह भी ध्यान रखिए कि नारायणमूर्ति कोई अपनी कंपनी के लिए काम करवाने की बात नहीं कर रहे हैं। वे इस देश की ज़रूरत की ओर इशारा कर रहे हैं। अगर हमें अपने सकल घरेलू उत्पाद में निरंतर वृद्धि करनी है और प्रति व्यक्ति आय बढ़ानी है तो जो बहुत सारे काम करने होंगे, उनमें से एक है अपनी युवा पीढ़ी की उत्पादकता को अधिकतम स्तर तक ले जाना। इसमें क्या गलत है!
हाल ही में माइक्रोसॉफ़्ट के संस्थापक बिल गेट्स ने भी एक इंटरव्यू में कहा है कि जब उन्होंने माइक्रोसॉफ़्ट की स्थापना की थी तो लंबे समय तक सप्ताहांत की छुट्टियों या दूसरी छुट्टियों के बारे में सोच भी नहीं था। मतलब यह कि अगर आपको अपनी कंपनी को स्थापित करना है तो दिन-रात मेहनत करने के अतिरिक्त कोई विकल्प है ही नहीं। न भारत में और न ही अमेरिका जैसे विकसित देश में। किसी भी कंपनी की शुरूआत के समय न तो वित्तीय संसाधन प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं और न ही मानव संसाधन। और भी कई तरह की सीमाएँ होती हैं। ऐसे में कंपनी के संस्थापक की कारोबारी चतुराई के साथ-साथ कड़ी मेहनत ही है जो काम आती है।
याद कीजिए स्वामी विवेकानंद ने क्या कहा था? उनके दो उद्धरण मुझे याद आते हैं। पहला यह कि उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। दूसरा यह कि बड़ा काम करना है तो ‘लंबे समय तक, उतना ही बड़ा, और निरंतर’ परिश्रम करना होगा। हज़ारों बाधाओं को परास्त करने के बाद ही आपका किरदार स्थापित होता है।
मैं तो प्रति सप्ताह 70 घंटे से अधिक ही काम करता हूं और मुझे इससे कोई शिकायत भी नहीं है। शायद आपको बहुत ज्यादा लगे, लेकिन मुझे बहुत ज्यादा नहीं लगता क्योंकि मेरे काम और निजी जीवन के बीच ठीकठाक संतुलन है। परिवार को भी समय दे पाता हूं और अपने स्वास्थ्य का भी उतना ध्यान तो रख ही लेता हूं जितना मेरे अन्य मित्र रखते हैं। ईमानदारी से कहूं तो यही लगता है कि काश हर दिन में 24 से अधिक घंटे होते तो अपने बहुत सारे अधूरे काम भी पूरे कर पाता; शायद देश-समाज के लिए कुछ बेहतर योगदान कर पाता।
अब तक जो मिला वह कड़ी मेहनत की वजह से ही संभव हुआ है। मेरे जैसा- राजस्थान के बहुत छोटे और पिछड़े गांव का व्यक्ति, जिसने जमीन पर बिछी दरीपट्टियों पर बैठकर हिंदी माध्यम से पढ़ाई की, वह सिर्फ और सिर्फ अपनी कड़ी मेहनत और न थकने के संकल्प की वजह से ही विश्व की सबसे बड़ी कंपनी में ठीकठाक पद पर पहुंच सका। हिंदी माध्यम के एक सामान्य-प्रतिभा-संपन्न तथा अति सामान्य पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति ने कैसी चुनौतियाँ देखी होंगी, इसका अनुमान आप नहीं लगा सकते। सिर्फ और सिर्फ कठिन परिश्रम की बदौलत मैं कदम बढ़ाता रह सका। तभी तो मैं अपने कार्यक्रमों में आने वाले युवाओं से यही कहता हूँ कि कुछ कर दिखाओ मित्रो, क्योंकि यही उम्र है जब शरीर में अपरिमित क्षमता मौजूद है। मेहनत से भागो नहीं, मेहनत का जज्बा दिखाओ। आज कुछ युवाओं को देखकर निराशा होती है जब वे कहते हैं कि मैंने वह नौकरी छोड़ दी क्योंकि उसमें काम बहुत था। अगर आप युवावस्था में भी यह सोच रखते हैं तो आगे क्या करेंगे!
जीवन में मैंने कितने ही ऐसे कामयाब लोगों को देखा है जो मुझ जैसे लोगों से कई गुना अधिक परिश्रम करके अपने मुकाम तक पहुँचे हैं। स्वयं नारायणमूर्ति उनमें से एक हैं। अपनी, संस्थान की और देश की तरक्की के लिए कठिन परिश्रम एक अनिवार्यता है। बड़ा काम हो ही नहीं सकता यदि आप उसमें अपना सब कुछ नहीं झोंक देते। मैंने जिन बड़ी हस्तियों के साथ काम किया, वे इसके ज्वलंत उदाहरण हैं, जैसे- माइक्रोसॉफ्ट के चेयरमैन श्री सत्य नडेला, स्टार नेटवर्क के पूर्व सीईओ श्री उदय शंकर, प्रसिद्ध टेलीविजन पत्रकार श्री करण थापर, रिलायंस समूह के प्रेसीडेंट श्री उमेश उपाध्याय, जनसत्ता के पूर्व संपादक श्री प्रभाषजोशी आदि-आदि। आपमें से बहुत कम लोग शायद उनके परिश्रम से परिचित हों क्योंकि हम उन्हें सिर्फ सर्वोच्च स्तर पर बैठे एक सफल व्यक्तित्व के रूप में जानते हैं। लेकिन यह सफलता अपने आपको झोंकने के बिना, अपने निजी जीवन के साथ अनगिनत समझौते किए बिना प्राप्त नहीं हुई है।
हमारे पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजेअब्दुल कलाम को याद कीजिए जिन्होंने कहा था कि ‘सपने वे नहीं होते जिन्हें हम सोते हुए देखते हैं। सपने वे होते हैं जो हमें सोने नहीं देते।’
मेरे अपने जीवन में ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जब मैंने लगातार 24-30 घंटे तक बिना रुके (सामान्य ज़रूरतों के अतिरिक्त) काम किया है। एक बार मैं अपने दफ्तर से 72 घंटे तक घर नहीं गया क्योंकि मुझे, अचानक और अकेले ही अपने अखबार का दीपावली परिशिष्ट निकालने का दायित्व दे दिया गया था। लेकिन यह कोई बहुत विशेष बात नहीं है क्योंकि नई परियोजनाओं के लांच के समय और बहुत विशेष अवसरों पर ऐसा करना एक किस्म की अनिवार्यता हो जाता है। परिणाम देना है तो किसी न किसी को दायित्व संभालना पड़ता है, असामान्य मेहनत करनी पड़ती है।
मैं स्वयं, जो प्रारंभ में काम के प्रति ढीलाढाला नजरिया रखता था, अपने आपको बदल सका तो अन्य सफल लोगों का परिश्रम देखकर। लेकिन जब खुद को बदला तो सचमुच बदल लिया।
मैंने अपनी सामान्य शिक्षा को उच्च शिक्षा में बदला, मैं पत्रकारिता से प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आया और अच्छे स्तर तक पहुँचा, पर्याप्त पढ़ा, पर्याप्त लिखा, टेलीविजन कार्यक्रम बनाए, बहुभाषीय बना, किताबें छपीं, सैंकड़ों कार्यशालाओं के जरिए लोगों को भी नए कौशल देने की कोशिश की, कई सॉफ्टवेयर बनाए, सफल समाचार पोर्टल बनाए और अपने संस्थान के काम में भी ठोस योगदान देने का प्रयास किया। यह सब अतिरिक्त परिश्रम के बिना संभव नहीं था। जब मैंने एक परियोजना शुरू की तो पहले छह महीने तक सप्ताह के सातों दिन अपने साथियों के साथ रोजाना लगभग 11-12 घंटे काम किया। छह महीने बाद सप्ताह में आधे दिन की छुट्टी लेनी शुरू की और एक साल के बाद रविवार का अवकाश लेना शुरू किया। उन साथियों की भी दाद देनी होगी जो मुझसे भी अधिक मेहनत करने के लिए तैयार थे और करते थे। परिणाम यह रहा कि हम चंद लोग अपने ही दम पर एक कामयाब हिंदी समाचार पोर्टल विकसित कर सके, चला सके और उसे लोकप्रिय बना सके।
दलील दी जा रही है कि करोड़ों-अरबों रुपए कमाने वाले लोग 20-30 हजार रुपए कमाने वालों को 70 घंटे से अधिक काम करने की नसीहत दे रहे हैं। यहाँ दो बातें कहूंगा- पहली यह कि इन्फोसिस जैसी कंपनियों का कोई कर्मचारी 20-30 हजार रुपए की तनख्वाह नहीं पाता, अधिकांश का वेतन इससे कई गुना अधिक है। दूसरे, इन्फोसिस ने दर्जनों अरबपतियों और हजारों करोड़पतियों को तैयार किया है। इनमें से अधिसंख्य लोग अतिरिक्त मेहनत करने के लिए जाने जाते हैं। श्री नारायणमूर्ति जैसे लोग भी, जिन्हें उनकी कंपनी विरासत में नहीं मिली, शून्य से ही शुरूआत करके अपने मुकाम तक पहुँचे हैं और उन प्रक्रियाओं से गुजरे हैं जिनसे सामान्य कर्मचारी गुजरता है। परिश्रम की प्रक्रिया में आप सीखते हैं, बेहतर बनते हैं, अपनी छाप छोड़ते हैं, आगे बढ़ते हैं। अगर 20-30 हजार रुपए मासिक कमाने वाले मित्र कहें कि हम इतना काम नहीं करेंगे तो फिर आप लगभग इसी स्थिति में रिटायर होने का प्लान लेकर बैठे हैं- शायद आपके लिए इतना ही काफी है। अगर ऐसा है तो ठीक है।
सत्तर घंटे काम करने की आवश्यकता सदा नहीं रहेगी। आज के भारत में, जो महत्वाकांक्षाओं से लबरेज है और जहाँ पर तरक्की की अथाह गुंजाइश है, यह आवश्कता है। जब हम तरक्की की दौड़ में अमेरिका, यूरोप, जापान और चीन की तरह आगे बढ़ जाएंगे तब हम सप्ताह में तीन दिन या चार दिन काम करने की बात करेंगे तो अच्छा लगेगा। अभी तो जितनी मेहनत करें कम है!
इतनी मेहनत करेंगे तो स्वास्थ्य का क्या होगा? यह सवाल भी खूब उठ रहा है। मेरा मत है कि समय की उपलब्धता और आरामतलबी अच्छे स्वास्थ्य की गारंटी नहीं है। फिटनेस प्राथमिकताओं और मनोविज्ञान का मुद्दा है। खूब समय होने पर भी बहुत सारे लोग स्वस्थ नहीं होते और अत्यधिक व्यस्त लोग भी किसी तरह समय निकालकर अपनी फिटनेस पर काम करते रहते हैं। संतुलन की कला आनी चाहिए। अंततः आपको रोजाना औसतन 30-45 मिनट तक ही व्यायाम करने की आवश्यकता है न! माइक्रोसॉफ्ट इंडिया के पूर्व कारपोरेटवाइसप्रेसिडेंट अनंत माहेश्वरी सप्ताह के पाँच दिन जमकर मेहनत करते हैं लेकिन छठा और सातवाँ दिन वे पूरी तरह अपने परिवार, अपनी रुचियों और फिटनेस को देते हैं। वे आपसे और हमसे बहुत ज्यादा फिट हैं।
श्री नारायणमूर्ति के वक्तव्य में निहित संदेश गहरा है, मैं उसे स्टेरियोटिपिकल दृष्टिकोण (मालिक लोग शोषण करना चाहते हैं, स्मार्टवर्कबनामहार्डवर्क आदि-आदि) से अलग हटकर देखता हूं। मुझ जैसे लोगों को, जिन्हें तथाकथित ‘स्मार्टवर्क’ नहीं आता, हार्डवर्क ही सही विकल्प दिखता है।
(लेखक जाने माने तकनीकीविद हैं और माइक्रोसॉफ़्ट में ‘निदेशक-भारतीय भाषाएं और सुगम्यता’ के पद पर कार्यरत हैं)