#santoshtiwariडॉ. संतोष कुमार तिवारी।
आर्यभट का जन्म सन् 476 ईस्वी को हुआ था। वह भारत के प्रथम गणितज्ञ और खगोल शास्त्री थे। उनके जन्म का वर्ष उनकी पुस्तक ‘आर्यभटीय’ से ज्ञात होता है। यह पुस्तक संस्कृत भाषा में है। इसमें 121 श्लोक हैं। ‘आर्यभटीय’ में विश्व को पहली बार यह जानकारी दी गई थी कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उसमें यह जानकारी भी दी गई थी कि सूर्य और चन्द्र ग्रहण क्यों लगते हैं। ‘आर्यभटीय’ में कहा गया है कि सृष्टि नष्ट नहीं होती है। अर्थात यहाँ कुछ मरता नहीं है, केवल उसका स्वरूप बदलता है। इस छोटी सी पुस्तक के तीसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में आर्यभट कहते हैं ‘कालोऽयमनाद्यन्तो-काल’ अनादि-अनंत है। अर्थात ब्रम्हाण्ड का कोई आदि और अंत नहीं है।

इस आदि और अंत की उनकी थ्योरी के कुछ प्रमाण अब अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी नासा (NASA) द्वारा छोड़े गए जेम्स वेब अन्तरिक्ष टेलिस्कोप (James Webb Space Telescope) से प्राप्त फोटो और जानकारियों से मिलने लगे हैं। यह टेलिस्कोप दिसम्बर 2021 को प्रक्षेपित किया गया था और इस पर लगभग दस अरब अमेरिकी डालर की लागत आई है। यह पृथ्वी से पन्द्रह लाख किलोमीटर दूर पर स्थित है। यह दूरी पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच की दूरी से चार गुना अधिक है। अब से कोई एक सौ वर्ष पूर्व हम यह जानते थे कि ब्रम्हाण्ड में केवल एक आकाश गंगा है। अब नई-नई खोजों से पता चलता है कि इस ब्रम्हाण्ड में असंख्य आकाशगंगा हैं। JWST तेरह अरब प्रकाशवर्ष की दूरी के फोटो भेजने में सक्षम है। मोटे तौर से एक प्रकाश वर्ष का मतलब यह होता है कि वह दूरी जो प्रकाश एक वर्ष तय करता है। एक प्रकाश वर्ष का मतलब होता है लगभग 9.46 खरब किलोमीटर की दूरी। JWST जो तेरह अरब प्रकाश वर्ष दूर के फोटो लेने में सक्षम है, तो इसका मतलब यह नहीं है इतनी दूरी पर ब्रम्हाण्ड समाप्त हो जाता है। ब्रम्हाण्ड इसके आगे भी है। इस बात की बहुत संभावना है कि ब्रम्हाण्ड अनंत हो अर्थात उसकी कोई सीमा न हो। अब से कोई पचास वर्ष पहले तक हम यह नहीं जानते थे कि तारे बनते-बिगड़ते रहते हैं। JWST द्वारा भेजी गई फोटो से हमें पता चलता है कि इस ब्रम्हाण्ड में तमाम तारे बनते-बिगड़ते रहते हैं।

Aryabhata and the start of Siddhaantic Astronomy in India- The New Indian Express
आर्यभट को कुछ लोग आर्यभट्ट भी कहते है जो कि गलत है। उनका नाम आर्यभट ही है। ऐसा उनकी पुस्तक ‘आर्यभटीय’ से पता चलता है। आर्यभट एक क्रान्तिकारी वैज्ञानिक थे। उनके युग में यह माना जाता था कि जब राहु सूर्य को निगलने जाता है, तब सूर्य ग्रहण पड़ता है। उन्होंने कहा कि राहू सूर्य को निगलता है – यह बात पूरी तरह मनगढ़ंत है। आर्यभट ने इस थ्योरी को दरकिनार करके कहा के कहा कि सूर्य और पृथ्वी के बीच जब चंद्रमा आ जाता है, तो उसकी छाया के कारण सूर्य ग्रहण पड़ता है। इसी तरह उन्होंने चन्द्रग्रहण का भी वैज्ञानिक कारण बताया। उन्होंने कहा कि चन्द्रग्रहण तब पड़ता है जब पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा के बीच में आ जाती है और पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर पड़ने लगती है।
आर्यभट का कहना था कि पृथ्वी और चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं। आर्यभट के युग में यह मान्यता थी कि पृथ्वी स्थिर है। परंतु आर्यभट ने कहा कि पृथ्वी स्थिर नहीं है और वह अपनी धुरी पर घूमती है। आर्यभट ने अपने समय की तमाम धार्मिक रूढ़ियों का अपने जीवन काल में ही खुल कर विरोध किया। इस कारण उन्हें भी समाज में तरह-तरह की तिरस्कार सहने पड़े होंगे; गालियाँ सुननी पड़ी होंगी।

कोपर्निकस

आर्यभट से कोई एक हजार साल बाद यूरोप में एक महान खगोलशास्त्री हुए। उनका नाम था निकोलस कोपर्निकस (Nicolaus Copernicus 1473-1543)। उन्होंने एक और क्रान्तिकारी मत व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि पृथ्वी न केवल एक दिन में अपनी धुरी पर घूमती है, बल्कि एक वर्ष में सूर्य का पूरा चक्कर लगाती है। उन्होंने कहा कि सूर्य स्थिर है। कोपर्निकस के विचार तत्कालीन ईसाई मान्यताओं के बिल्कुल विपरीत थे। इस कारण उन्होंने जो ग्रंथ लिखा था वह उनकी मृत्यु के बाद ही सार्वजनिक हो पाया।

गणित के क्षेत्र में भी आर्यभट की अनेक उपलब्धियां है। ‘आर्यभटीय’ पुस्तक चार पदों अथवा अध्यायों में विभक्त है 
1. दशगीतिका: (10 + 3 श्लोक) इसमें ब्रह्माजी की भी वन्दना की गई है।
2. गणितपाद (33 श्लोक): इसमें गणित के बारे में चर्चा है।
3. कालक्रियापाद (25 श्लोक): इसमें ग्रहों की स्थिति, मास गणना आदि जैसे विषयों पर चर्चा की गई है।
4. गोलपाद (50 श्लोक): इसमें पृथ्वी के आकार, दिन क्यों होता हैऔर रात क्यों होती है, आदि जैसे विषयों की चर्चा की गई है।
गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलपाद में कुल मिलाकर 108 श्लोक हैं। इसलिए ये ‘आर्यष्टाशत’ के नाम से भी जाने जाते हैं।

गणितपाद का दसवां श्लोक है।
चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।
अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥

दसवां श्लोक वृत की परिधि (Circumference of a circle) और उसके व्यास (Diameter) के अनुपात के बारे में है। वृत की परिधि/ वृत का व्यास = 62832/20000 = 3.14। अर्थात वृत के व्यास से उसकी परिधि सदैव 3.14 गुना अधिक होती है। परिधि और व्यास के अनुपात को आज हम यूनानी अक्षर पाई (π) से व्यक्त करते हैं। यूनानी अक्षर पाई (π) का मतलब गणित में है 22/7 = 3.14। यही आज दुनिया भर के गणित के क्लासों में पढ़ाया जाता है। यूनानी अक्षर पाई को गणित में लोकप्रिय और उपयोगी बनाने का काम ब्रिटेन के गणितज्ञ विलियम जोन्स (William Jones 1675-1749) ने किया और इसका श्रेय उन्हीं को दिया जाता है। विलियम जोन्स के बेटे का नाम भी विलियम जोन्स था और उसने लैटिन, यूनानी और संस्कृत भाषाओं के शब्दों में व्याप्त समानताओं पर शोध किया था।
आर्यभट का बीजगणित (Algebra), त्रिकोणमिति (Trigonometry), शुद्ध गणित (Pure Mathematics), आदि में भी महत्वपूर्ण योगदान है।

एक समय में आर्यभट का नाम कश्मीर से लेकर केरल तक जाना जाता था। ‘आर्यभटीय’ का केरल की मलयालम भाषा में भी अनुवाद हो चुका है। फिर भी समय गुजरने के साथ हम लोग उन्हें लगभग भूलने लगे। इस बीच अप्रैल 1975 को भारत ने अपने वैज्ञानिकों के द्वारा तैयार किए गए एक उपग्रह को सोवियत संघ के एक राकेट की सहायता से आकाश में छोड़ा था। इस उपग्रह का नाम आर्यभट रखा गया। बाद में आर्यभट के नाम से एक डाक टिकट भी जारी किया गया। इस प्रकार भारत की नई पीढ़ी को एक बार फिर आर्यभट के बारे में जिज्ञासा जाग्रत हुई।

यह लेख नई पीढ़ी की इसी जिज्ञासा को थोड़ा शांत करने और थोड़ा बढ़ाने के लिए लिखा गया है। आर्यभट पर देश और विदेश में कई पुस्तकें और लेख लिखे गए। एक पुस्तक में कहा गया कि आर्यभट नाम के उसी काल में दो व्यक्ति थे, परन्तु यह बात गलत है। परंतु हां, कोई साढ़े चार सौ साल बाद आर्यभट नाम के एक और गणितज्ञ भारत में हुए। उनकी एक पुस्तक भी है, परंतु वह ‘आर्यभटीय’ की तुलना में कहीं नहीं ठहरती। ‘आर्यभटीय’ के कोई एक सौ साल बाद ब्रह्मगुप्त नामक एक गणितज्ञ भारत में हुए। वह आर्यभट के आलोचक थे, फिर भी उन्होंने आर्यभट की बुद्धि का लोहा माना है। अमेरिकी गणितज्ञ रोजर कूक (Roger Cooke) की एक अंग्रेजी पुस्तक है: The History of Mathematics। इसमें भी आर्यभट, रामानुजन् आदि कुछ भारतीय गणितज्ञों के बारे में चर्चा की गई है। इस पुस्तक के प्रकाशक हैं John Wiley & Sons, New York। प्रकाशन वर्ष है 1997।

गागर में सागर

दुनिया में हर वर्ष लाखों पुस्तकें छपती हैं। उनकी तुलना में ‘आर्यभटीय’ 121 श्लोकों की बहुत छोटी सी पुस्तक है। परंतु इसके हर श्लोक में गागर में सागर भरा हुआ है। ‘आर्यभटीय’ का अंग्रेजी, अरबी तथा कुछ अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इस पर कई टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं। भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादेमी (Indian National Science Academy) नई दिल्ली ने ‘आर्यभटीय’ का अंग्रेजी अनुवाद और टीका तीन खण्डों में प्रकाशित किया है। विश्व के गणित और खगोल शास्त्र में ‘आर्यभटीय’ का स्थाई स्थान है।

एक टीकाकार भास्कर-प्रथम ने आर्यभट को अश्मकाचार्य कहा है और उनकी पुस्तक को अश्मक-तंत्र कहा है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि वह अश्मक जनपद के निवासी थे। प्राचीन काल में महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र को अश्मक कहा जाता था। कुछ लोगों का यह कहना है कि आर्यभट केरल के निवासी थे। परंतु इन विवादों के बावजूद यह लगभग तय है कि अपने जीवन काल में वे किसी न किसी समय कुसुमपुरा में उच्च शिक्षा के लिए गए थे और वहां रहे भी थे। कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के रूप में की जाती है। गुप्त साम्राज्य के अन्तिम दिनों में वे वहां रहा करते थे। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे।

अपनी पुस्तक के एक श्लोक में आर्यभट ने यह जानकारी दी है कि वह ऐसे ज्ञान का वर्णन कर रहे हैं जिसका कुसुमपुर (अर्थात पाटलीपुत्र – पटना) में आदर-सम्मान होता है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि उन्होंने अपनी पुस्तक की रचना पाटलीपुत्र – पटना में की थी।

इस पुस्तक के एक श्लोक में आर्यभट ने लिखा है कि सत्य और असत्य के महासागर से मैं सत्य को निकाल कर आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।

क्या आर्यभट से पहले भी भारत में महान गणितज्ञ हुए?

क्या आर्यभट से पहले भी भारत में कोई महान गणितज्ञ हुए थे? शायद हुए थे, परन्तु उनका नाम किसी को मालूम नहीं है। विज्ञान-लेखक गुणाकार मुले का कहना है कि “आर्यभट से पहले ही शून्य की धारणा पर आधारित दाशमिक स्थानमान-अंक-पद्धति की खोज भरा में हो चुकी थी,…“ यह बात उन्होंने अपनी पुस्तक ‘आर्यभट प्राचीन भारत के महान गणितज्ञ ज्योतिषी’ (ज्ञान-विज्ञान प्रकाशन, नई दिल्ली) के पृष्ठ संख्या 70 में कही है। गनितपाद के दूसरे श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि आर्यभट दाशमिक स्थानमान-अंक-पद्धति से परिचित थे।

गुणाकार मुले की यह पुस्तक इस वेबसाइट पर क्लिक करके पढ़ी जा सकती है:
https://epustakalay.com/book/150981-aryabhata-by-gunakar-mule/

(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)