के. विक्रम राव।

26 फरवरी को भोर में यूक्रेन में रूस द्वारा सैन्य हस्तक्षेप पर संयुक्त राष्ट्र संघ में निन्दा प्रस्ताव आया। भारत तटस्थ रहा। मगर बाद में सुरक्षा परिषद में रूस के वीटो से यह निरस्त करा हो गया।

इस पूरी समस्या पर व्यापक बहस में कतिपय अनभिज्ञ, कथित बौद्धिकों ने भारत की तटस्थता की भर्त्सना की है। नीतिशास्त्र तथा न्याय व्यवस्था के नियमों की दुहाई दी है। अर्थात भारत को यूक्रेन के प्रति संवेदना तथा समर्थन व्यक्त करना चाहिए था। इन महानुभावों के मत में मानवीयता का तकाजा था कि इस विषय पर चर्चा हो। इस बुनियादी सिद्धांत को याद रखना पड़ेगा कि विदेश नीति की बुनियाद देशहित पर आधारित होती है। परोपकार पर नहीं। मसलन यूक्रेन का समर्थन भारत क्यों करें? जब अटल बिहारी सरकार ने 1998 में आणविक परीक्षण किया था तो यूक्रेन ने उसकी आलोचना की थी। भारत के विरुद्ध सुरक्षा परिषद में वोट दिया था। यूक्रेन ने पाकिस्तान को सैनिक टैंक दिये थे जिनका कश्मीर में उपयोग हो रहा है। कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की पाकिस्तानी मांग का यूक्रेन समर्थन कर चुका है। हालांकि नयी दिल्ली स्थित यूक्रेन राजदूत ईगोर पोलिखा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को महाभारत  के सिद्धांत का स्मरण कराया कि न्याय-अन्याय के संघर्ष में तटस्थता अनैतिक है।

Russia Attack On Ukraine "Any Day Now", US Asks Its Citizens To Fly Out

रूस की निंदा करते तो…

Vladimir Putin suspended as International Judo Federation honorary  president - Sports News

विचार कर लें कि यदि भारत व्लादीमीर पुतिन के समर्थन में नहीं रहता और रूस के आक्रमण की निन्दा करता तो क्या होता? इस परिवेश में देखें कि विगत दो दिनों तक मास्को में इस्लामी पाकिस्तान के वजीरे आजम खान मोहम्मद इमरान खान पुतिन के मेहमान बने बैठे रहे। पिछले ढाई दशकों में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की यह प्रथम रुसी यात्रा है। इसके पूर्व मियां मोहम्मद नवाज शरीफ गये थे। क्रेमलिन (सचिवालय) में बैठे पुतिन को इमरान खान समझाते रहे कि कश्मीर में भारत हमलावर है। अत: संयुक्त राष्ट्र संघ को सैनिक हस्तक्षेप करना चाहिये। सुरक्षा परिषद में रुसी वीटो के कारण गत सत्तर वर्षों से कश्मीर बचा हुआ हैं वर्ना कब का यह इस्लामी पाकिस्तान का मजहबी बुनियाद पर हिस्सा हो गया होता। इमरान की पूरी कोशिश रही कि अब रूस को कश्मीर के प्रस्ताव पर अपने वीटो के अधिकार का प्रयोग नहीं करना चाहिये। मायने यही कि यदि भारत यूक्रेन पर रुसी फौजी कार्रवाही की निन्दा करता है तो रूस को भी माकूल जवाबी कार्रवाही करनी चाहिये। कम्युनिस्ट चीन, जो लद्दाख हड़पने में तत्पर है, भी रूस का फिर से मित्र तथा समर्थक बन गया है। उसने भी रूस की निन्दावाले प्रस्ताव का खुला समर्थन नहीं किया। हालांकि ब्रिक्स राष्ट्र समूह (ब्राजील, रूस, इंडिया, चीन तथा दक्षिण अफ्रीका) का प्रस्ताव है कि कोई भी राष्ट्र किसी दूसरे देश की भौगोलिक सीमायें सैन्य बल पर बदल नहीं सकता है। स्वयं व्लादीमीर पुतिन ने इस संधि के प्रावधान का अनुमोदन किया था। भारत रूस पर अत्यधिक निर्भर है। कच्चे तेल, प्राकृतिक गैस, सैन्य हथियार तथा उपकरण और औद्योगिक धातुओं के लिये। यदि कहीं आपूर्ति कट जाये तो भारत पर विकट समस्या पड़ सकती है। अत: यूक्रेन पर भारत का नजरिया तथा कदम इन तथ्यों और अपरिहार्यताओं पर निर्भर रहता है।

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अमेरिका की हरकत

इतिहास को देखें तो खुद अमेरिका की हरकत भी उजागर होती है कि उसने भी अगस्त 1953 में पड़ोसी राज्य गौटेमाला तथा होन्डुरास पर हमला किया था,  यह कहकर कि अमेरिका के द्वार तक कम्युनिस्म आ टपका हैं। इन दोनों छोटे गणराज्यों की सरकारों ने अमेरिकी राष्ट्रपति जनरल डीडी आइजनहोवर तथा विदेश मंत्री जान डलेस की फल उत्पादक कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। बस ऐसे ”साम्यवादी” निर्णय का आरोप थोपा गया। जैसे आज यूक्रेन पर नाटो सैन्य समूह में रूस के विरुद्ध शामिल होने का इल्जाम है। अत: अमेरिका ने जिस प्रकार ईराक, वियतनाम और क्यूबा पर आक्रमण किया था वह भी वैश्विक अपराध ही गिना जाना चाहिये था।

इतिहास याद दिलाना होगा राहुल को

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कतिपय मोदी-आलोचकों ने यूक्रेन के मसले पर तटस्थ रहने पर जो बेतुकी, नासमझी की बात की है वह राष्ट्रहित में कदापि नहीं हैं। राहुल गांधी इस मामले में अपनी नासमझी से बाज नहीं आये। राहुल ने बयान दिया कि भारत सरकार की विश्व में साख घट रही है। उन्हें इतिहास की याद दिलानी होगी। बात 1956 की है। हंगरी गणराज्य की जनता ने सोवियत रूस के जबरन आधिपत्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने रूस का समर्थन किया था। यूएन में रूस की भर्त्सना का प्रस्ताव आया तो जवाहरलाल नेहरु ने मौन धारण कर लिया। निरीह हंगरी जनता को रुसी टैंकों तले रौंद दिया गया। राजधानी बुडापोस्ट की अपनी यात्रा (1984) में मैंने स्वयं पूरा विवरण तथा शहीद स्थल देखा था। बड़ा मार्मिक था। फिर आया प्राग स्प्रिंग (1968) जब रुसी सेना के उदारवादी राष्ट्रनायक एलेक्जेंडर ड्यूबचेक को अपदस्थ कर जनक्रान्ति का दमन कर दिया था। प्राग की अपनी पांच बार की यात्रा में हर बार मैंने उन शहीदों को नमन किया।

सभ्य नस्ल कब बनेगी विश्व मानवता

When Brezhnev Pleaded with Indira Gandhi | Lifestyle News,The Indian Express

तब भी इंदिरा गांधी ने सोवियत रूस द्वारा दमन की भर्त्सना नहीं की थी। भारत-रूस याराना का ही पक्ष लिया। जब ब्रेझनेव ने अफगानिस्तान का दमन किया तो इंदिरा गांधी ने काबुल के अफगान बागियो का साथ नहीं दिया। उस वक्त भारतीय जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ में एक इंटरव्यू में मुझसे एक भविष्यवाणी की थी कि : ”अफगानिस्तान भी एक दिन रूस के लिये वियतनाम जैसा हो जायेगा। अमेरिका की भांति रूस को भी भागना पड़ेगा।” और दोनों जगह ऐसा ही हुआ। आज की बाइसवीं सदी में लोगों को ईश्वर वन्दना करनी होगी कि विश्व मानवता आखिर सभ्य नस्ल कब बनेगी? कब तक लाठीवाला भैंस हाक कर जबरन ले जाया करेगा?

पुतिन के बारे में खास बात

इस संदर्भ में पुतिन के बारे में भी एक अति विलक्षण घटना का उल्लेख है। वह कठोर सोवियत कम्युनिस्ट रहा। डरावनी खुफिया एजेंसी केजीबी का मुखिया रहा। आज रूस का जालिम कर्णधार है। पुतिन पैदा ही नहीं होता क्योंकि उसके जन्म के पूर्व ही उसकी मां मृत घोषत हो गयी थी। उसका पति द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद घर आया। घर के सामने उन्होंने देखा लाशों का अंबार जिसे ट्रक में लाद कर दफन करने ले जाया जा रहा था। उसने चप्पल पहचानकर अपनी पत्नी को पाया। स्वयं दफन करने हेतु लाश मांग ली। आश्चर्य हुआ जब उसकी पत्नी में उसे स्पन्दन लगा। पति शव को अस्पताल ले गया। सेवा सुश्रुषा के आठ वर्ष बाद वह स्वस्थ हो गयी। उसके बाद उस युगल के एक पुत्र 1952  पैदा हुआ। वहीं पुतिन है। यदि लाश में स्पन्दन न होता तो? इतिहास ही भिन्न हो जाता। बालक पुतिन की तस्वीर मां के साथ नीचे है यह हिलेरी क्लिंटन की पुस्तक ”हार्ड चोइसेज” (कठिन चयन) से प्राप्त हुई है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)