कवि राजेश जोशी की कविता है ये

बाल मन नहीं जानता कि उसे क्‍या पढ़ाया जा रहा है, वह जो पढ़ रहा होता है, उसके साथ अपने समाज के यथार्थ और देश काल परिस्‍थ‍ितियों के सबक को समझने का प्रयास करता हुआ जीवन में आगे बढ़ता है। यदि किसी बाल मन में उसे यह सिखला दिया जाए कि फ़लाँ अच्‍छा और फ़लाँ  बुरा तो यकीनन जीवन भर कई बच्‍चे बड़े होने के बाद भी बचपन के कहे शब्‍द को सच मानकर व्‍यवहार करते दिखते हैं। फिर वह बचपन की बातें कितनी सही या गलत हैं, यह सच जानना अक्‍सर पीछे छूट जाता है। इसलिए बच्‍चों को दी जानेवाली शिक्षा का महत्‍व बहुत अधिक है। लेकिन यदि बच्‍चों को दी जानेवाली शिक्षा में ही एक विशेष प्रकार का नैरेटिव सेट करने का प्रयास किया जाए तब फिर आगे यही बच्‍चे बड़े होकर क्‍या सोच रखेंगे इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है,  ‘जैसी शिक्षा, वैसी सोच’।दरअसल, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की कक्षा नौ में पढ़ाई जानेवाली एक कविता कहने को बच्‍चों के श्रमिक जीवन से जुड़ी है, लेकिन अप्रत्‍यक्ष रूप से वह एक ऐसा नैरेटिव (धारणा) गढ़ रही है, जिसमें आधुनिकता की तमाम बातों के बीच बच्‍चों को वह मजहबी तालीम मदरसों में पढ़ने को बढ़ावा देती दिखाई दे रही है। जबकि स्‍कूली शिक्षा में इस प्रकार के किसी भी शब्‍द को बढ़ावा देने से बचना चाहिए। और यदि इस प्रकार के शब्‍दों का उपयोग करना अनिवार्य ही है तो फिर बाल मन में एक प्रतिछाया तैयार करने के लिए मदरसे ही अच्‍छे होते हैं यह न लिखकर फिर लेखक मदरसों के साथ आश्रमों, ज्ञान परंपरा के प्राचीन केंद्र, गुरुकुल, गुरुद्वारों और अन्‍य मत, पंथ, संप्रदायों के शिक्षा केंद्रों का नामोल्‍लेख करता तो कोई परेशानी शायद किसी को नहीं होती। लेकिन राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की कक्षा नौ की हिन्‍दी की पुस्‍तक में चेप्‍टर 14 पर साहित्‍कार राजेश जोशी के संपूर्ण परिचय के साथ उनकी कविता ‘बच्‍चे काम पर जा रहे हैं’ दी गई है। उसमें सिर्फ ”मदरसे” को अप्रत्‍यक्ष रूप से जोर देकर अच्‍छा बताया गया है।

कविता की शुरूआत कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं सुबह-सुबह… से होती है लेकिन जैसे-जैसे इस प्रयोगवादी कविता के बोल आगे बढ़ते हैं, कविता के ठीक बीच में एक पंक्‍ति उभरती है, ”क्या किसी भूकंप में ढह गई हैं, सारे मदरसों की इमारतें” । कवि राजेश जोशी ने यहां जो रुपक मदरसों की इमारतों के लिए बच्‍चों के शिक्षा केंद्र के रूप में गढ़ा है, वह अनायास ही बच्‍चों के बाल मन में यह विचार पैदा कर रहा है कि मजहब ”मदरसे” तो शिक्षा के अच्‍छे केंद्र हैं। इतने अच्‍छे कि उनकी आधुनिक शिक्षा देनेवाले स्‍कूल भी उसके सामने कमजोर हैं, क्‍योंकि उनका कोई जिक्र कविता में नहीं हुआ है!

दरअसल, यह बात कभी सामने नहीं आती, बच्‍चे इसी तरह आगे भी इस कविता को पढ़ते रहते और कोई इस पर आपत्‍त‍ि भी नहीं उठाता (अभी भी पढ़ ही रहे हैं) , यदि एक अभिभावक नाम न छापने की शर्त पर संवाददाता को यह नहीं बताता कि उसके बच्‍चे के साथ स्‍कूल में क्‍या घटा। उसने कहा, घर आकर मेरे बच्‍चे ने बताया कि आज उसके स्‍कूल में कवि राजेश जोशी आए थे और उनकी प्रशंसा हो रही थी। बच्‍चे उनके हस्‍ताक्षर ले रहे थे तथा उनकी कविता का पाठ भी हुआ, लेकिन मुझे एक बात समझ नहीं आई कि उनकी कविता में एक पंक्‍ति आई है, ”क्या किसी भूकंप में ढह गई हैं, सारे मदरसों की इमारतें” । आप बताएं!  क्‍या मदरसों में हमारे केंद्रीय विद्यालय से भी अच्‍छी शिक्षा दी जाती है?

इस संबंध में अभिभावक ने आगे बताया कि अपने बच्‍चे के प्रश्‍न का मैं अब तक कोई उत्‍तर नहीं दे पाया हूं। क्‍यों कि मदरसों की शिक्षा कैसी है! आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिलता है। अवैध मदरसों से लेकर, आतंक के रास्‍ते पर चलने वालों की सूची बहुत लम्‍बी है। अभिभावक का कहना है कि मेरा आग्रह आपके (मीडिया) के माध्‍यम से केंद्र के शिक्षा विभाग और  राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) से इतनी भर है कि कम से कम वह ऐसी कोई शिक्षा विद्यालयों में नहीं दे, जिससे कि हमारे बच्‍चों में आधुनिक शिक्षा के हटकर अन्‍य कोई खयाल उनके मन में बैठे और वह उसे अच्‍छा मानकर एक विचार अपने कल्‍पना रूपी संसार में बना लें।

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इस अभिभावक ने मांग की है कि एक विशेष प्रकार के नैरेटिव (धारणा) को स्‍थापित कर रही इस कविता को तत्‍काल एनसीईआरटी कक्षा नौ की हिन्‍दी पाठ्यपुस्‍तक से हटाए और यदि नहीं हटाना है तो लेखक अपनी कविता में बदलाव करे, सिर्फ मदरसे नहीं, सनातनी हिन्‍दू धर्म के शिक्षा केंद्र आश्रम, गुरुकुल, जिनालय, बौद्धालय, गुरुद्वारे जैसे शब्‍दों को भी उसके साथ प्रमुखता से जोड़े। तभी सही मायने में वह किसी विद्यालय में बच्‍चों को पढ़ाने योग्‍य कविता बनेगी । अभी तो यह सिर्फ एक मजहब इस्‍लाम को प्रमोट करती हुई कविता है। सरकारी स्‍तर पर लाभ लेकर बच्‍चों के मन का मजहबीकरण करना ठीक नहीं है।(एएमएपी)