पहले से बीजेपी पर नरम थे पवार?
ये नहीं भूलना चाहिए कि पवार ने अपनी आत्मकथा में यह भी उल्लेख किया है कि यूपीए सरकार के दौरान, उन्होंने तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के बीच संचार का एक चैनल स्थापित करने की पहल की थी। मौजूदा वक्त में भाजपा के लिए, एनसीपी के साथ गठबंधन करना केवल फायदे का सौदा नहीं बल्कि लंबे वक्त से चली आ रही है दबी हुई दोस्ती की मिसाल है। बीजेपी ने पिछले कुछ वर्षों में राज्यों में कई क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन किया है, जो उसकी हिंदुत्व विचारधारा को साझा नहीं करते हैं। इस लिस्ट में जम्मू -कश्मीर में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, जेडीयू, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, कर्नाटक में जेडीएस, आंध्र प्रदेश में टीडीपी और पंजाब में अकाली दल शामिल हैं। इससे बीजेपी को उन राज्यों में प्रवेश पाने में मदद मिली जहां उसकी उपस्थिति बहुत कम थी।
महाराष्ट्र में जब तक उसका शिवसेना के साथ गठबंधन था, खासकर जब दिवंगत बाल ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना अपने चरम पर थी तब तक भाजपा को किसी अन्य सहयोगी की जरूरत महसूस नहीं हुई। उस गठबंधन के टूटने और शिवसेना के विभाजन के बाद एनसीपी हमेशा भाजपा के लिए अगला सबसे अच्छा विकल्प थी। जो बात एनसीपी को बीजेपी की बीच दोस्ती की पहल करती है वह यह है कि पार्टी के पास शक्तिशाली नेता हैं जो पार्टी की निष्ठा के बावजूद अपने निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं के प्रति वफादार रहते हैं। एनसीपी का एक निर्वाचित घटक मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा अपने साथ लाता है।
मजबूत है बीजेपी, शिवसेना और एनसीपी गठबंधन?
भाजपा के साथ एनसीपी और शिवसेना के गुटों का गठबंधन क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनावों की स्थिति में महाविकास अघाड़ी पर भारी पड़ेगा। अपने विद्रोह के बाद समर्थकों को अपने पहले संबोधन में अजित ने कहा कि 2014 में एनसीपी और बीजेपी ने सबसे पहले गठबंधन की संभावनाओं पर विचार किया था। उस समय पृथ्वीराज चव्हाण की तत्कालीन कांग्रेस सरकार से नाराज एनसीपी और कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव अलग-अलग लड़ने का फैसला किया था। अजित पवार के अनुसार, बाल ठाकरे के निधन और नरेंद्र मोदी के उदय के बाद भाजपा और शिवसेना भी अलग हो रहे हैं, इसलिए एनसीपी और भाजपा के बीच चर्चा हुई।
अजित पवार ने सुनाई खरी-खरी
अजित ने बुधवार को कहा, “2014 के लोकसभा चुनावों से पहले, एनसीपी, शिवसेना और भाजपा के लिए एक साथ चुनाव लड़ने का प्रस्ताव रखा गया था, जिसमें प्रत्येक पार्टी 16 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। बाद में कुछ नेताओं की आपत्तियों के कारण भाजपा इससे पीछे हट गई। नितिन गडकरी जैसे कुछ लोग उत्सुक थे, लेकिन स्थानीय भाजपा नेताओं ने आपत्ति जताई।” अजित पवार ने साफ किया कि 2017 में दोनों पार्टियां फिर एक-दूसरे के पास पहुंचीं लेकिन भाजपा शिवसेना को छोड़ने को तैयार नहीं थी। एनसीपी के नेताओं ने कहा कि हम शिवसेना के साथ नहीं जाएंगे क्योंकि यह एक ‘सांप्रदायिक’ पार्टी है। अजित ने तब शरद पवार के नेतृत्व वाली गुट पर तंज कसते हुए पूछा, क्या वही शिवसेना 2019 में ठीक हो गई, जब एमवीए बनाने के लिए हमें उसके साथ हाथ मिलाने के लिए कहा गया।(एएमएपी)



