#shivcharanchauhanशिवचरण चौहान।

खेतों में कीटनाशकों का प्रयोग, गांव-गांव लगे मोबाइल टावर से निकलने वाली तरंगों और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगे हैं। सन 2015 से कृषि वैज्ञानिकों ने नीलकंठ पंछी के लुप्त हो जाने की चेतावनी दी थी। अब लगता है कि नीलकंठ पक्षी भारत में लगभग लुप्तप्राय है। कभी दशहरे पर नीलकंठ का दर्शन शुभ माना जाता था। कहते हैं भगवान राम ने भगवान शिव से रावण पर विजय का वरदान मांगा था और भगवान शिव नीलकंठ पच्छी का रूप धर कर आए थे। सुबह-सुबह नीलकंठ के दर्शन कर राम ने रावण का वध कर दिया था। तब से विजयदशमी के अवसर पर सुबह नीलकंठ के दर्शन करना पवित्र माना जाता है। गांव गांव शहर शहर भारतीय जनमानस में विश्वास है कि नीलकंठ के दर्शन से उनके बिगड़े काम बन जाते हैं।

नीलकंठ को लेकर अनेक दोहे और लोकोक्तियां समाज में प्रचलित हैं। 2021 में शुरू से ही नीलकंठ पंछी दिखाई नहीं पड़ रहा है। पहले तो बहेलिए पिंजरे में बंद कर शहरों में नीलकंठ के दर्शन कराने के लिए लाते थे किंतु अब बहेलिए नहीं आते। जलवायु परिवर्तन और मोबाइल टावरों से होने वाली रेडिएशन के कारण नीलकंठ के अंडों से बच्चे नहीं निकलते और इनकी वंश वृद्धि नहीं हो पा रही है। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि नीलकंठ किसान हितैषी पंछी है और यह कीड़े खा कर किसानों की फसल की रक्षा करता है।

झुण्ड में नहीं रहता

नीलकंठ, एक शिकारी पक्षी है। यह जोड़े के साथ रहता है किन्तु कभी झुण्ड में नहीं रहता है। स्वभाव से निडर, चंचल व लड़ाकू नीलकंठ, मुख्यतः कीट-भक्षी पक्षी है। कीड़े-मकोड़े, गिरगिट, छिपकली, चूहे, मेढक, झींगुर, टिड्डी इसके प्रिय खाद्य पदार्थ हैं। कभी-कभी यह साँपों पर भी झपट पड़ता है। अत्यन्त आकर्षक, चमकीले, नीले रंग के कारण, बरबस ही देखने वाले का ध्यान इसकी ओर आकर्षित हो जाता है। नीलकंठ, कौवे से कुछ छोटे आकार का कबूतर की तरह का पक्षी है। इसका सिर बड़ा, काली चोंच, पेट में पीली व नीली धारियाँ, धब्बे होते हैं। पीठ का रंग बादामी होता है, दुम लम्बी व गहरे नीले रंग की होती है।

नीलकंठ, नाम कैसे पड़ा क्यों कि इस पक्षी का कंठ, नीले रंग का न होकर बादामी भूरा होता है। शायद नीले रंग की अधिकता के कारण इसे नीलकंठ कहा जाने लगा होगा। भगवान शिव का एक नाम नीलकंठ है। समुद्र से निकले विष का पान कर उन्होंने उसे कंठ में रोक लिया था, इसलिए वह नीलकंठ कहलाए। दशहरे यानी विजयदशमी के दिन नीलकंठ का दर्शन करना शुभ माना जाता है। बाग बगीचों, खेत-खलिहानों, बस्तियों में, बिजली के तारों पर झूलने, बैठने वाला नीलकंठ अब तो दशहरे के दिन ढूँढने से भी नहीं मिलता। यह पेड़ों, जंगलों में छिपा रहता है। भाग्यशाली लोगों को ही दशहरे पर नीलकंठ के दर्शन हो पाते हैं। एक दोहा है- “नीलकंठ का दर्शन होय। मन वाँछित फल पाए सोय।” एक फारसी शायर ने दशहरे पर इसका महत्व बताते हुए लिखा है- “दशहरे रोज, पुरुष अंजुमन दए अस्त। पए लंका सवारी रामचन्द्र अस्त/ बदीदे नीलकंठी हिन्दुआरा। तमाथे बाग बोस्ता दिल पसंद अस्त॥”

कितने नाम

कबूतर से आकार में थोड़े बड़े नीलकंठ पक्षी को अंग्रेजी भाषा में ‘ब्लू जे’ (नीला जे) या ‘भारतीय रोलर’ कहा जाता है। मराठी भाषा में ‘चासा’ तेलगु में पाला-पित्ता, तमिल में पाल कुर्वी’ कहते हैं। कई स्थानों में इसे नीलर व सबजक के नाम से भी जाना जाता है। प्राणिशास्त्री इसे ‘कारेसिअस बेंगाकेसिस’ के नाम से पुकारते हैं।

वैसे तो नीलकंठ पूरे भारत में पाया जाता है किन्तु उत्तर भारत में यह अधिक पाया जाता है। यूरोपियन नीलकंठ, भारतीय नीलकंठ से चौड़ी चोंच वाला होता है। नीलकंठ एक प्रवासी पक्षी है और दशहरे के बाद अक्टूबर व नवम्बर में यह अफ्रीका की ओर प्रस्थान कर जाता है। नीलकंठ के नर व मादा पक्षियों के रंग में कोई अन्तर नहीं होता है। सामान्यतः नर-मादा की अलग-अलग पहचान नहीं हो पाती है। मादा-पक्षी से जोड़ा बनाने से पूर्व नर नीलकंठ, मादा को आकर्षित करने के लिए तेज-तेज आवाज करता हुआ, हवा में उड़कर कलाबाजियाँ दिखाता है। इस बीच कौआ या अन्य कोई पक्षी आ जाए तो यह बुरी तरह उससे लड़ बैठता है। मादा, किसी पुराने पेड़ की खोखल में चार-पाँच अण्डे देती है। इसके सभी अण्डों से बच्चे नहीं निकलते हैं। पाँच में से चार या दो अण्डों से ही बच्चे निकलते है। बच्चों को नर-मादा दोनों, कीट-पतंगे मारकर खिलाते हैं।

किसानों का सहायक

नीलकंठ के नीले-फिरोजी रंग बच्चों को बहुत प्रिय होते हैं। पेड़ में या बिजली के तारों में बैठ, दुम ऊपर-नीचे करते नीलकंठ को बच्चे एकटक देखते हैं। नीलकंठ के पर यानी पंख बच्चे अपनी कापियों, किताबों में रखते थे। आदिवासी इन्हें अपने वस्त्रों में लगाते थे। नीलकंठ, खेत व किसानों का सहायक पक्षी है, क्योंकि कीड़े-मकोड़ों को अपना आहार बनाकर फसल की सुरक्षा करता है। कीटनाशक दवाओं के घातक प्रभावों, मोबाइल टावरों से निकली तरंगों, जलवायु परवर्तन के कारण और शिकारियों के शिकार कारण नीलकंठ पक्षी पर भयंकर संकट आ गया है। अगर अभी ध्यान नहीं दिया गया तो किताबों, चित्रों और गूगल पर ही नीलकंठ शेष रह जाएगा। ऐसी स्थिति में नीलकंठ के अस्तित्व की रक्षा करना सभी का कर्तव्य है, ताकि ये लुप्त न होने पाए। नीलकंठ को लेकर हमारे कहानीकारों व कवियों ने काफी साहित्य रचा है। कहानी, कविताओं में नीलकंठ अमर है। देहात गांव में इन्हे लीला गणेश भी कहा जाता था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)