प्रदीप सिंह ।
नीतीश कुमार सोमवार को सातवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का नेता चुने जाने के बाद मीडिया से बात करते हुए उनके चेहरे पर न तो खुशी थी और न ही आवाज में उत्साह।
वे जानते हैं कि राजग में उनका पहले वाला रुतबा नहीं रहा। उनकी पार्टी भाजपा से छोटी पार्टी हो गई है। फिर यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि यह उनका आखिरी कार्यकाल है।
मजबूरी का अहसास
विधायक दल के नेता के चुनाव से राजग के दो बड़े घटक दलों भाजपा और जद-एकी ने दो अलग अलग संदेश दिए हैं। जद-एकी ने नीतीश कुमार को नेता चुनकर यथास्थिति बरकरार रखने का संदेश दिया है तो भाजपा ने नया नेता चुनकर बदलाव और भविष्य का तैयारी का। भाजपा ने सामाजिक समीकरण का भी ध्यान रखा है। नीतीश कुमार ने कहा कि वे चाहते थे कि भाजपा का मुख्यमंत्री बने पर भाजपा के कहने पर मुख्यमंत्री बन रहे हैं। जाहिर है कि यह बयान उनकी ताकत का नहीं मजबूरी का अहसास कराता है।
भाजपा ने बदलाव की ओर पहला कदम बढ़ाते हुए सुशील मोदी की बजाय तारकिशोर प्रसाद को विधानमंडल दल का नेता और रेणु कुमारी को उपनेता बनाया है। पार्टी चाहती तो इन दोनों नेताओं को विधायक दल का नेता और उपनेता बना देती और सुशील मोदी को विधानमंडल दल का नेता बने रहने देती। पर ऐसा न करने का मतलब है कि पार्टी उन्हें राज्य की राजनीति से हटाना चाहती है। सुशील मोदी का हटना नीतीश कुमार के लिए भी संदेश है कि गठबंधन में उनके एकाधिकार का युग समाप्त हो गया है। सुशील मोदी को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिल सकती है। पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के युग में पक्के तौर कुछ नहीं कहा जा सकता।
चमक फीकी पड़ी
नीतीश कुमार भारतीय राजनीति में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे पढ़े लिखे हैं, पिछड़ा वर्ग से आते हैं और पंद्रह साल मुख्यमंत्री और उससे पहले केंद्रीय मंत्री रहते हुए उन पर कभी भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा। यह आज की राजनीति में कोई सामान्य बात नहीं है। उन्होंने एक बहुत अच्छे प्रशासक के रूप में अपनी छवि बनाई है। इसी कारण उन्हें सुशासन बाबू का खिताब जनता से मिला। पर पिछले पांच साल के कार्यकाल में उनके सुशासन की चमक फीकी पड़ गई।
पंद्रह सालों के शासन में ग्यारह साल वे भाजपा के साथ रहे। सरकार उन्होंने ऐसी चलाई जैसे उनके अपने अकेले दल की हो। राज्य सरकार में शामिल भाजपा के मंत्री और बिहार भाजपा उनकी अनुगामिनी रही। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने बार बार इस व्यवस्था पर मुहर लगाई। यही कारण है कि सुशील मोदी के बारे में पूरे बिहार में यह धारणा बन गई कि वे नीतीश कुमार के पिछलग्गू हैं और भाजपा के लिए बोझ बन गए हैं। नतीजा यह हुआ कि सुशील मोदी पार्टी की राज्य इकाई के एक खेमे की आंख की किरकिरी बने रहे। नीतीश कुमार के साथ ताल बिठाने के चक्कर में उनकी अपनी ताल और चाल बिगड़ गई।
मोदी-शाह की भाजपा
ऐसा कहने वालों की तादाद अच्छी खासी है कि यह अटल-आडवाणी की नहीं मोदी-शाह की भाजपा है। यह मानने वाले गलत नहीं हैं। दोनों में बुनियादी फर्क यह है कि अटल-आडवाणी के दौर में पार्टी की राजनीति में भावना का पुट ज्यादा था और व्यावहारिक राजनीति का पुट कम। अब यह अनुपात उलट गया है।
आंध्र में चंद्रबाबू नायडू, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और पंजाब में बादलों का राजग से जाना इसी बदलाव का परिणाम है। साल 2017 में नीतीश कुमार की वापसी भी इसी वजह से हो सकी। नीतीश ने जब वापस लौटने की इच्छा जाहिर की तो मोदी ने बदले की भावना में न आकर व्यावहारिक दृष्टि से सोचा और फैसला लिया। नीतीश कुमार को राजग में लेना विपक्षी खेमे से एक राष्ट्रीय नेता का विकल्प छीनना, राजद से गठबंधन तुड़वाना और पिछड़ों में एक संदेश भेजना था। इसलिए मोदी नीतीश कुमार द्वारा किए गए निजी अपमान को भी भूल गए।
नीतीश कुमार मोदी के नेतृत्व के मुद्दे पर राजग छोड़कर गए थे। वे चाहते थे कि भाजपा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार किसे बनाए यह वे तय करें। लौटकर आए तो मोदी के नेतृत्व में ही। लौटने के बाद से नीतीश कुमार असहज हैं। जिस घर में वे 1995 से 2013 तक रहे वह उन्हें बदला हुआ नजर आ रहा है। यह असहजता दो तरफा है। साल 2013 में वे जिस तरह नाता तोड़कर गए उसके बाद से भाजपा को बराबर यह आशंका बना रहती है कि वे फिर जा सकते हैं।
नीतीश कुमार की सांसतः रहा भी न जाए और
सहा भी न जाए
अब सवाल है कि नीतीश कुमार ने छोटी पार्टी होने के बावजूद मुख्यमंत्री का पद क्यों स्वीकार किया। उनके सामने एक रास्ता था कि वे भाजपा से कहते कि अब वे राज्य की राजनीति से निकलना चाहते हैं। भाजपा इसके लिए तैयार भी हो जाती। नीतीश के करीबियों की मानें तो 2017 के बाद से उनकी सबसे बड़ी इच्छा अपनी विरासत (लीगेसी) छोड़कर जाने की है। पर बिहार के मतादाताओं ने उनका कद घटा दिया है। इशारा साफ है कि उन पर पहले जैसा भरोसा नहीं रहा।
फिर उन्हें पता है कि अब उनके सामने विकल्प है नहीं। अकेले चलने का साहस वे कभी जुटा नहीं पाए। जिस अपमान से त्राहिमाम करके उन्होंने 2017 में लालू का साथ छोड़ा, अब तेजस्वी के नेतृत्व में उसके साथ जाना शायद ही संभव हो। इसलिए भाजपा के साथ उनका संबंध तुम्हीं से मुहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई वाला ही रहने वाला है। ऐसे में वे कौन सी राजनीतिक विरासत छोड़कर जाते हैं यह तो समय ही बताएगा। पर इस पनघट की डगर कठिन तो बहुत है।